सरकारी जमीन पर डाका

टी. धर्मेंद्र प्रताप सिंह

श्री योगेश्वर ऋषिकुल बाल वेद विद्यापीठ जूनियर हाई स्कूल, योगेश्वर मार्ग, सआदतगंज लखनऊ। देखने और स्थलीय निरीक्षण में तो यह पता एक स्कूल का ही है, लेकिन यह इकलौता सत्य नहीं है। सत्य इस भवन के पीछे खाली जमीन में छिपा है और उसके पीछे छिपा है एक बड़ा भू-माफिया गिरोह, जिसका पता भले ही यह न हो, पर इससे गहरा नाता जरूर है। इस गिरोह के दर्जनों लोगों को इस पते के बारे में रत्ती-रत्ती पता है। उक्त पते को उन्होंने बार-बार जा-जाकर ऐसे चरा है, जैसे बकरी हरा पत्ता चर लेती है। तथ्य है कि इंसान का हरा पत्ता अलग होता है और बकरी का अलग, पर स्वभाव दोनों का एक ही है।

70 के दशक में जमीन आवंटन के लिए प्रदेश सरकार के सामने श्री, योगेश्वर, ऋषि, कुल, बाल, वेद और विद्यापीठ को किसी ने इतने करीने से पेश किया होगा कि पुराने लखनऊ जैसे बहुल घनत्व वाले इलाके में एक-एक शब्द को कैश कराते हुए 23 बीघे सरकारी जमीन महज एक रुपए में ले गिरे थे, जिसका बाजार मूल्य अब कई अरब है। अपनों को लाभ पहुंचाने के लिए ही इस तरह के अफलातूनी प्रावधान कानून में किए जाते हैं और इस मामले में सभी चोर आपस में मौसेरे भाई ही होते हैं। प्रदेश के इतिहास में संपकों व संबंधों को कैश कराने की चंद कुख्यात टाइप की नजीरों में से यह एक है। आज जब जमीन महंगी हो गई व अगली पीढ़ी के हाथों में पहुंची तो नीयत खराब होते देर नहीं लगी। हालांकि सरकार तत्कालीन रही हो या वर्तमान या फिर निवर्तमान, सभी को खोल में ही रहना चाहिए।

सवाल तो इस पर भी हर स्तर से उठना चाहिए कि कोई सक्षम जन प्रतिनिधि या अधिकारी किसी चहेते को व्यावसायिक गतिविधियों के संचालन या स्कूल चलाने के लिए इतनी बड़ी जमीन बीच शहर में कैसे दे सकता है? स्कूल तो राजधानी में चार-छह कमरों में भी चल रहे हैं और बीघा-दो बीघा में भी। हैरानी उस वक्त की नीयत पर भी है, क्योंकि वह दौर बुरे दौर वाली प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने का था। प्राकृतिक कानून भी यही कहता है और दर्जनों मामलों में सुप्रीम कोर्ट भी यही सिद्धांत प्रतिपादित कर चुका है कि ऐसा कृत्य संविधान में प्रदत्त समानता के सिद्धांत का खुला उल्लंघन है।

साथ ही यह भी कहा था कि प्राकृतिक संसाधनों को खैरात की तरह नहीं बांटा जा सकता, क्योंकि ये सीमित हैं। यहां पर कहना होगा कि यदि किसी को जमीन की रेवड़ी एक रुपये में 99 साल के लिए बांटनी हो तो अपने पिता जी की संपूर्ण संपत्ति को प्रदेश के गरीबों में बांट दे, जिसमें पक्का पक्का किसी को न कोई दिक्कत होगी और न ही ऐतराज। कभी-कभी लगता है कि कानून का डंडा इतना सख्त व मजबूत होना चाहिए कि तत्कालीन मुख्यमंत्री, शिक्षा मंत्री और संबंधित नौकरशाहों के नाम उस समय जो भी संपत्ति रही हो, आज भले ही वह उनके बच्चों के नाम हो, पर उसे बेचकर नुकसान की भरपाई होनी चाहिए। लोकतंत्र का कोई भी स्तंभ अराजक न होने पाए इसीलिए संविधान में प्राविधान रखा गया था चेक एंड बैलेंस का।

न्यायपालिका ने अन्य मामलों की तरह स्वतः संज्ञान लेकर संवैधानिक धर्म का पालन क्यों नहीं किया? भले ही प्रकृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों के बंदरबाट को हर स्तर पर कानून की किताबों में हमेशा हतोत्साहित किया गया है, फिर भी कुछ गुप्त कारणों से प्रदेश में हमेशा से होता रहा है। हर सरकार इस तरह के अपराध में शामिल रही है और मलाई डकारने के बाद बचा छांछ, ज्ञान, राशन और भाषण ही आया है वंचितों के हिस्से में। काली करतूतों का खुलासा हो जाता है तो लोग जान जाते हैं, पर दो-चार दिन में भूल भी जाते हैं।

दरअसल समाज की सोच व रवैया नमक, तेल, लकड़ी में कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहना व “कोऊ नृप होए, हमें का हानी वाली ही रही है। एक ओर सरकार का बुलडोजर माफिया, गैंगस्टर और अपराधियों की अपराध से अर्जित संपत्ति को गांव से लेकर शहर तक खाली कर शासन से अटैच कर रहा है। दूसरी ओर उक्त की अवैध संपत्ति को रौंदते हुए न सिर्फ देश के कोने कोने तक पहुंच चुका है, बल्कि ऑस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक दहाड़ रहा है। देश भर में इसकी बिक्री ने भी जोर पकड़ा है। ऐसा लग रहा है, जैसे आगे के युद्ध मानव रहित बुलडोजर से ही लड़े जाएंगे। इसके बावजूद राजधानी में शासन की नाक के नीचे सचिवालय, लोक व विधान भवन से महज आठ किलोमीटर की दूरी पर पुराने लखनऊ में एक मामला ऐसा है, जहां पूर्व माफिया के गुर्गों और भू-माफिया की जुगलबंदी से प्रशासन का इकबाल खतरे में है।

कई साल से शीर्ष संस्थाओं को पत्र लिख-लिख कर शिकायतें की जा रही हैं। नतीजतन फाइलें भी चल रही हैं, भले ही कछुए की तरह, पर लगता है कि एक दिन इतिहास खुद को दोहराएगा और फिर कछुए की जीत होगी। दरअसल स्कूल चलाने के लिए सरकार से 53 साल पहले दान में मिली 23 बीघे में से आधी भू-माफिया को बेचने का मामला डीएम, कमिश्नर, पुलिस, शिक्षा विभाग, एलडीए, नगर निगम व हाईकोर्ट की जानकारी में आ चुका है। इसके बावजूद कोई आंखें बंद कर अंधा होने या अंधेरा होने का नाटक करना चाहे तो कर सकता है। उक्त विभागों का नायाब कोरस ही अवैध जुगलबंदी को मात दे सकता है और उन्हें उनके सही ठिकाने पर पहुंचा सकता है।

हैरत की बात है कि आदेश पर आदेश होने के बाद भी सरकार अपनी ही जमीन वापस नहीं ले पा रही है। हालांकि कुछ लोग अब यह भी कहने पर मजबूर होने लगे हैं कि सरकार जमीन वापस लेना ही नहीं चाह रही है। मालूम हो कि 25 अक्टूबर 1972 को सरकार ने श्री योगेश्वर ऋषिकुल बालवेद विद्यापीठ जूनियर हाई स्कूल समिति को राजाजीपुरम इलाके में 22 बीघा 17 बिस्वा से अधिक जमीन मांगने पर स्कूल संचालन के लिए दी थी।

समिति ने दावा किया था कि दो स्कूल श्री योगेश्वर ऋषिकुल इंटर कॉलेज और श्री योगेश्वर ऋषिकुल बालिका इंटर कॉलेज (वर्तमान में स्वामी योगानंद बालिका इंटर कॉलेज संचालित) चलाने के लिए जमीन की आवश्यकता है और सरकार ने बच्चों के बेहतर भविष्य को देखते हुए समिति को जमीन प्रदान कर दी थी। बेरोजगार पाठकों से अनुरोध है कि वे भी इस तरह के प्रार्थना पत्र शासन व अधिकारियों को लिखें ताकि जीवन को सुविधाओं सहित भोगने के लिए महंगी जमीन दो-तीन पुश्तों के लिए एक रुपए सालाना की दर से मिल सके।

भारतीय व्यवस्था में कलम बचाने का अपना महत्व है, सो शर्त लगाई गई थी कि जमीन न बेची जा सकती है, न ही लीज पर दी जा सकती है और न ही उपयोग बदला जा सकता है। यह जानकर हैरानी होगी कि बलात्कार के माफिक उक्त सभी प्रतिबंधित काम कालांतर में जमीन के साथ जिम्मेदार लोगों ने किए, जिसके बाद से ही जमीन वापस लेने की बात चल रही है। सरकार के आदेश पर 21 जून 1976 को समिति को जमीन पर कब्जा मिला था। यानी कि एक-दूसरे पर नजर रखने का। एक मिनट के लिए पीछे चलते हैं। सरकार ने अपने चहेतों को स्कूल खोलने के लिए तीन के बजाय 23 बीघे जमीन दी तो जागरूक लोग मामले को हाईकोर्ट क्यों नहीं ले गए और

वक्त बीता, समिति प्रबंधन के लोग बदले तो नीयत बदली। नतीजतन आठ दिसंबर 1994 को समिति ने सिविल कोर्ट में वाद दायर कर जमीन अधिग्रहण के लिए किसानों को मुआवजा देने के लिए सात लाख की जमीन बेचने की अनुमति मांगी। इसके बाद 2005 में जमीन बेचने के लिए शिक्षा विभाग से अनुमति मांगी। ज्ञात लालच के वशीभूत होकर विभाग ने शासन को पत्र लिखा, पर इस बार शासन ने कोई गलती नहीं की और जमीन बेचने की अनुमति नहीं दी व इसी आधार पर मई 2006 को जिलाधिकारी ने जमीन बेचने पर रोक लगा दी। बहुत बड़ी बात है कि इसके बावजूद समिति के सचिव सुब्रतो मजूमदार ने आठ लाख रुपए के भुगतान की जरूरत दिखाकर जमीन बेच दी। इतना ही नहीं, साल 2009 से 2011 के बीच मजूमदार ने 11 बीघा से अधिक जमीन भू-माफिया और बिल्डर द लोटस बिल्डर एंड कॉलोनाइजर को चार करोड़ 83 लाख में बेच दी। अन्य के अलावा 2000 वर्ग मीटर से अधिक जमीन स्थानीय व्यापारी को 34 लाख में बेच दी।

बात संज्ञान में आते ही कॉलेज के प्रधानाचार्य महेश कुमार ने चार अक्टूबर 2018 को बाजार खाला थाने में समिति के सचिव सुब्रतो मजूमदार, अध्यक्ष राजीव विसारिया के साथ खरीददार बिल्डर और दुकानदारों पर एफआईआर दर्ज करवाई थी। उसके बाद से ही मामला सरगर्म है, पर संयुक्त पुलिस आयुक्त (जेसीपी) कानून व्यवस्था का यह कहना चौंकाता है कि मामला उनके संज्ञान में नहीं आया है। अगर शिकायत आई होगी तो संबंधित थाने से रिपोर्ट और सभी तथ्यों की जांच के बाद कार्रवाई की जाएगी। उधर, पूरे मामले में सामने आए दस्तावेजों के आधार पर हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में राहुल शुक्ला ने जनहित याचिका दायर कर कहा कि जांच अधिकारी ने आरोपी व्यापारी और बिल्डर की मदद की है। इस पर शिक्षा विभाग और लखनऊ विकास प्राधिकरण से जवाब मांगा गया है। उसके बाद से तारीखें पड़ व बढ़ रही हैं। अन्य के अलावा केरल को सेवा कार्यों के लिए भी जाना जाता है।

उत्तर या यूं कहें कि संपूर्ण भारत के वेलनेस इंडस्ट्री से जुड़कर यह बात दशकों से सच साबित करती रही है वहां की ट्रेंड युवत्तियां। 2004 में नया अध्याय जोड़ा आईएएस बनने के बाद यूपी काडर पाकर डॉ. रोशन जैकब ने, जो तब से नई इबारत लिखने में हमेशा लगी रहती हैं। इस कर्मठ अधिकारी को लोगों ने एक हादसे के घायलों को देखकर आंसू बहाते भी देखा है। कई अहम पदों के अलावा कई जिलों की डीएम रही अधिकारी पर यह शासन का विश्वास ही है कि ढाई साल से अधिक समय से लखनऊ मंडल की आयुक्त हैं एवं इस विश्वास को कभी टूटने नहीं दिया।

दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता डॉ. जैकब ने नवंबर 2022 में उक्त मामले की जांच के बाद प्रमुख सचिव माध्यमिक शिक्षा को जमीन बेचने वालों को भू-माफिया घोषित करने व अवैध निर्माण को ध्वस्त कर सरकारी जमीन वापस लेने की सिफारिश की थी। चूंकि जमीन शिक्षा विभाग के जरिए सरकार ने दी थी, लिहाजा जिला विद्यालय निरीक्षक, संयुक्त शिक्षा निदेशक और संयुक्त निदेशक कैंप की तीन सदस्यीय कमेटी गठित कर रिपोर्ट मांगी थी। अप्रैल 2023 में रिपोर्ट शासन को मिली, जिसमें साफ लिखा था कि शर्तों का समिति ने उल्लंघन किया है इसलिए जमीन वापस ली जाए। वापसी का तरीका राजस्व विभाग द्वारा तय करने के बाद न्याय विभाग जमीन को बेचने और कब्जेदारों पर कार्रवाई करे।

अवैध कब्जे को हटाने में आई लागत कब्जा करने वालों से ही वसूली जाए। बता दें कि 23 बीघे में से लगभग 11 बीघा पर बिल्डर व अन्य का कब्जा है। बाकी के बड़े हिस्से पर स्कूल व दबंगों व गुंडों की मदद से कार पार्किंग, अवैध टैक्सी स्टैंड एवं गोदाम चल रहा है। हालांकि उसके बाद से ही राजस्व विभाग के पास समिति की सिफारिशें धूल फांक रही हैं। बात निजी सेक्टर के फायदे के लिए किए जाने वाले चढ़ावे की होती तो फाइल की गति अपने आप तेज हो जाती, चूंकि यहां पर लाभ सरकार और प्रदेश का है तो विभाग ने उसे कहीं फेंक रखा होगा, जिस पर किलो के हिसाब से धूल जम गई होगी। कभी-कभी तो लगता है प्रदेश सरकार को तोप का मुंह अपनी ओर भी कर लेना चाहिए। जैसे दुश्मन पर गोलों की बौछार की जाती है, वैसे ही हर आदमी के पीछे ईडी, खुफिया, विजिलेंस व सीआईडी सीबीआई छोड़ने की जरूरत है, क्योंकि अंदर बड़े स्तर पर सफाई की जरूरत है। दो-चार को जबरन रिटायर कर जो अभियान शुरू किया गया है, वह छोटा है, दो-चार निकम्मों को तो रोज बाहर का रास्ता दिखाने की जरूरत है।

सरकारी मशीनरी की घटिया कारगुजारी के कारण अपनी ही जमीन को वापस लेने में सरकार कठिनाइयों का सामना कर रही है। बेशकीमती जमीन के इस मामले में एलडीए और पुलिस ने शुरू में कई बार भू-माफिया और बिल्डर की मदद की। यह आरोप कार्यशैली से स्पष्ट हो जाता है। पूरे फर्जीवाड़े के जांच अधिकारी सब इंस्पेक्टर दया शंकर द्विवेदी थे, जो कि अपने तत्कालीन सीओ से आदेश प्राप्त करते थे। जांच में जमीन खरीदने वाले दाऊ दयाल अग्रवाल और द लोटस बिल्डर के मालिक जायसवाल बंधुओं ओम शंकर, राजेंद्र व ईश्वर प्रसाद, संगीता श्रीवास्तव और राकेश त्रिपाठी को यह कहकर क्लीन चिट दी थी कि सरकार ने जमीन स्कूल चलाने के लिए दी थी और स्कूल चल रहा है, जबकि रिपोर्ट अमानत में खयानत की दर्ज कराई गई थी, जिसे अपनी समझ में कयामत तक के लिए दरोगा ने दफन कर दिया था, पर समय बीतने के बाद सीओ की पहुंच से काफी दूर मामला हाई कोर्ट व मंडलायुक्त तक जा पहुंचा

फिर भी जांच अधिकारी की करतूत की चर्चा जरूरी है। उन्होंने सिर्फ जमीन बेचने वाले को दोषी मानकर पूरे खेल के मास्टरमाइंड स्कूल के सहायक शिक्षक नवनीत कुमार, 2004 वर्ग मीटर जमीन खरीदने वाले दाऊ दयाल अग्रवाल व चार करोड़ 83 लाख में 11 बीघा खरीदने वाली फर्म द लोटस बिल्डर एंड कॉलोनाइजर को जान-बूझकर दोषी नहीं माना, जबकि नवनीत के बिना फर्जीवाड़ा संभव ही नहीं था। यह भी नहीं जांचा कि द लोटस बिल्डर के जायसवाल बंधु तो गोरखपुर के सरिया व्यापारी हैं, फिर नवनीत की पत्नी संगीता श्रीवास्तव बिल्डर की पार्टनर कैसे बन गईं? उल्टे दाऊ के ही बयान के आधार पर धर्मात्मा बताते हुए कहा था कि अग्रवाल द्वारा खरीदी गई भूमि पर गरीब नौकर रहते हैं। गोदाम बना है, लेकिन छत नहीं डाली है। इसके लिए लगे हाथ दरोगा को धन्यवाद भी कर देना चाहिए था और अपनी कमाई से ऐसे ही गरीबों के रहने के लिए एक धर्मशाला बनानी चाहिए। पुलिस ने दस्तावेजी फ्रॉड का भी जिक्र नहीं किया कि यदि नीयत साफ है तो फिर विक्री, भू-उपयोग बदलने व नक्शा पास कराने की कोशिश क्यों की जा रही है?

सिस्टम में बुराई यही है कि यहां किसी भी रिपोर्ट पर कार्रवाई में तो टाइम लगता ही है, पर लोग जांच रिपोर्ट के नाम पर कुछ भी लिख देते हैं और कोई पूछता तक नहीं कि ऐसा किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए लिखा गया है। ऐसी ही करतूतों ने मुख्यमंत्री के आईजीआरएस पोर्टल को ढकोसला बनाकर रख दिया है, वरना बहुत शानदार पहल थी। उक्त घटिया रिपोर्ट को भी हाईकोर्ट में अगली पेशी पर पेश करना चाहिए। ऐसा ही एक कारनामा फतेहपुर जिले में पकड़ में आया है, जहां के जगत सराय में उद्योग विभाग ने नगर पालिका से 30 साल के लिए जमीन लीज पर ली थी और बद्नीयती के तहत उद्यमियों को 99 साल के लिए प‌ट्टा कर दिया। ये लीज भी अब खत्म हो चुकी है और नवीनीकरण या निरस्तीकरण पर अभी किसी का ध्यान नहीं है। ऐसे में विभाग की कार्यशैली पर सवाल उठ रहे हैं कि इतने गंभीर मुद्दे पर अब क्या होगा?

विभाग ने औद्योगिक क्षेत्र बनाने के लिए जगत सराय में जमीन चिन्हित की थी। ये नगर पंचायत की थी, लिहाजा विभाग ने 1988-90 के बीच जमीन की मांग की तो नगर पंचायत ने 30 साल के लिए लीज पर दे दी। उद्योग विभाग ने जमीन पर 46 भूखंड बनाए, जिसमें से 45 का आवंटन भी कर दिया। वह भी 99 साल के लिए। पढ़े-लिखे तत्कालीन उद्योग अधिकारी इतनी जल्दबाजी में थे कि लीज अनुबंध को पढ़ना तक जरूरी नहीं समझा। चूंकि इस तरह की हरकतें निजी सेक्टर में रोज ही होती रहती हैं, पर मामला सरकारी होने के कारण आवंटियों में निश्चिंतता थी, जो कि अब भारी पड़ रही है।

सरकारी विभागों का मामला होने के चलते अभी फाइल दवी हुई है, लेकिन जिस दिन फाइल निकली, उस दिन दूर तलक जाएगी। वैसे भी इनवेस्टर समिट और कैबिनेट मंत्री राकेश सचान के भूखंड वापसी मामले के बाद उद्योग विभाग का हर पन्ना खुल रहा है। इसमें जगत सराय औद्योगिक क्षेत्र में लीज का भी मामला शामिल है। इस मामले में विभाग के अधिकारी जानकारी नहीं होने की बात कह रहे हैं। औद्योगिक क्षेत्र को विकसित करने से लेकर आवंटन प्रक्रिया तक सवालों के घेरे में है। जगत सराय मामले में अनुबंध 2020 से पहले ही खत्म हो चुका है। इसके बाद भी उद्योग विभाग ने लीज बढ़ाने के लिए न कोई बातचीत की है और न ही आवेदन। इस बारे में नगर पंचायत के ईओ समीर कुमार कश्यप ने कहा कि मामला संज्ञान में नहीं है। अब जानकारी मिली है, दिखवाता हूं। अगर ऐसा हुआ है तो कार्रवाई होगी। हालांकि अभी तक किसी कार्रवाई की खबर नहीं है।

घोटाले का मास्टरमाइंड है मास्टर

ज्ञात हो कि जब एलडीए से द लोटस बिल्डर की हाउसिंग कॉलोनी का नक्शा पास नहीं हुआ तो आरोपियों ने मूल समिति से मिलते-जुलते नाम वाली दूसरी समिति श्री योगेश्वर ऋषिकुल शिक्षा समिति बना ली और एलडीए में करीब 11 लाख रुपए नक्शे की फीस जमा की। शुरुआती मिलीभगत के बाद एलडीए के गले की फांस बन गया नक्शा। वैसे वाजिब काम के बदले ढेर सारा पैसा रोज चाहिए, पर निहायत गलत रास्ते पर जाने पर नौकरी बचाने को ही प्राथमिकता देता है हर अष्ट सरकारी बाबू। नक्शे के बदले जमा की गई फीस का मैटर हाई कोर्ट (याचिका संख्या 3155/2014) भी गया, जहां से सात फीसदी ब्याज के साथ फीस लौटाने का आदेश हुआ था। बाद में घोटाले के मास्टरमाइंड मास्टर का मैटर याचिकाकर्ता हाई कोर्ट ले गए थे।

याचिका में राहुल ने कहा था कि जमीन को बेचने में विद्यालय के ही असिस्टेंट टीचर नवनीत श्रीवास्तव की भूमिका की कभी जांच नहीं हुई, जिसे मिलाए बिना जमीन का गोरखपुर पहुंचना मुश्किल था। इसका ही नतीजा था कि कंपनी द लोटस बिल्डर ने जब सेठ एमआर जयपुरिया को स्कूल खोलने के लिए यह जमीन लीज पर दी तो पार्टनर के तौर पर नवनीत की पत्नी संगीता श्रीवास्तव का नाम शामिल था। यानी कि स्कूल टीचर की पत्नी द लोटस की पार्टनर। मिलीभगत का पूरा खेल इसी से उजागर हो जाता है। सबको पता था कि इसे न बेचा जा सकता है, न खरीदा जा सकता है और न ही उपयोग बदला जा सकता है, फिर भी औने-पौने में मिलने के कारण बिल्डर सहित कई ने खरीदा।

लोटस बिल्डर का अपार्टमेंट बनाने का नक्शा जब एलडीए से पास नहीं हुआ तो लोट्स बिल्डर ने यह जमीन 30 साल की लीज पर गोरखपुर की श्री योगेश्वर ऋषिकुल शिक्षा समिति को 30 साल के लीज पर दे दी, जिस पर आज एमआर जयपुरिया स्कूल फ्रेंचाइजी मोड में चल रहा है और अहम बात है कि संगीता मैनेजमेंट में पदाधिकारी हैं। जमीन के एक हिस्से पर दाऊ ने टाइल शोरूम का गोदाम खोल रखा है। दूसरे पर लखनऊ के 80 के दशक के माफिया बाबा बख्शी के साथी रहे वाजपेई ब्रदर्स ने कब्जा कर पार्किंग के साथ अवैध झोपड़ पट्टी बसाई है, जिसका किराया वसूल कर बच्चे पाल रहे हैं। यह बात लिखने में दरोगा की हलक सूख गई थी और पेन की स्याही खत्म हो गई थी। क्यों न ऐसे दरोगा से भी वसूली की जाए?

जमीन वापसी का शासनादेश जारी

पांच मार्च 2025 को जारी ताजा-ताजा शासनादेश में उत्तर प्रदेश शासन माध्यमिक शिक्षा अनुभाग-9 (संस्कृत) ने कहा है कि 26 जून 1975 को भूमि अर्जन अधिनियम 1894 के भाग-7 के उपबंधों के अनुसार सोसायटी श्री योगेश्वर ऋषिकुल बालवेद विद्यापीठ जूनियर हाईस्कूल को विस्तार के लिए धारा 42 के तहत परगना व तहसील लखनऊ के ग्राम बिहारीपुर की विभिन्न गाटा की 22 बीघा, 17 बिस्वा, 10 बिस्वांसी (14.295 एकड़) भूमि कुछ शर्तों के साथ दी गई थी। दूसरा पक्ष, उसके उत्तराधिकारी और समनुदेशिती उक्त भूमि का उपयोग पूर्वोक्त उद्देश्य के लिए करेंगे तथा सरकार की स्वीकृति/अनुमति के बिना किसी अन्य उद्देश्य के लिए नहीं करेंगे।

सरकारी स्वीकृति के बिना बिक्री, बंधक, पटूटे व उपहार द्वारा भी हस्तांतरित नहीं की जा सकेगी। करार की किसी भी शर्त का उल्लंघन करने की स्थिति में प्रथम पक्ष को भूमि के हस्तांतरण को शून्य व अमान्य घोषित करने का हक होगा, जिसके बाद भूमि राज्य सरकार को वापस हो जाएगी। सोसायटी ने अनुबंध का उल्लंघन करते हुए कुल 14.295 एकड़ में से लगभग 11 बीघा भूमि बिना अनुमति के बेच दी। दाऊ दयाल पुत्र रमेश चंद्र अग्रवाल को 2004.43 वर्गमीटर सात अगस्त 2009 को बेची गई। उसी दिन संजीव अग्रवाल पुत्र स्व. तुलसीराम को 60 वर्ग मीटर बेची।

मेसर्स द लोटस बिल्डर्स एंड कॉलोनाइजर्स को 29914.77 वर्गमीटर एक अप्रैल 2017 को बेची। उपर्युक्त वर्णित तथ्यों के दृष्टिगत सोसायटी द्वारा शासन को भेजे गए 25 नवंबर 2024, सात जनवरी 2025 एवं आठ फरवरी 2025 के पत्रों के माध्यम से प्रस्तुत किए गए कथन आधारहीन व बलहीन होने के कारण स्वीकारने योग्य नहीं हैं। अतः शर्तों का उल्लंघन करने के कारण अनुबंध शून्य हो गया है। अब उक्त भूमि राज्य सरकार (माध्यमिक शिक्षा विभाग) के पक्ष में वापस लेने की कार्रवाई शुरू की जाती है। अनुबंध-1975 के क्लाज 1, 2 एवं 3 के तहत भूमि अधिग्रहण की लागत के रूप में भुगतान की गई राशि के एक चौथाई के बराबर सरकार को हुए नुकसान के रूप में जब्त करने तथा शेष धनराशि दूसरे पक्ष श्री योगेश्वर ऋषिकुल बालवेद विद्यापीठ जूनियर हाईस्कूल को वापस दिए जाने की स्वीकृति राज्यपाल प्रदान करते हैं।

एलडीए का डबल क्रॉस (गेम)

आदतन एलडीए ने डबल गेम खेलते हुए मेज के ऊपर से (नीचे वाली अज्ञात) मोटी फीस ले ली, मानचिन्न (चार दिसंबर 2006) भी स्वीकृत कर दिया और शर्त भी लगा दी कि भू-स्वामित्व के संबंध में परीक्षण कर लिया जाए। हालांकि वे शरारतन आगे यह लिखना भूल गए कि किस विभाग को यह निर्देश दे रहे हैं और क्यों या सिर्फ हवा में गांठे लगाने की शिगूफेबाजी कर रहे हैं? बौद्धिक आतंकी की शाब्दिक लंफाजी और ड्रॉफ्टिंग चातुर्य की पराकाष्ठा थी यह लाइन। क्या आलाधिकारियों ने अपनी कलम व नौकरी बचाने के लिए उक्त लाइन लिखी थी या वाकई इस बात का कोई गूढ़ अर्थ था।

शर्मनिरपेक्ष होने के कारण विभाग ने यह भी नहीं सोचा कि शहर व समाज के जागरूक लोग क्या-क्या कहेंगे? सूत्रों को लगता है कि यह सांप को मारकर कलम के कौशल को निखारते हुए उसे लाठी की भांति भांजते हुए खुद को बचाने की कलाकारी थी। यानी कि मुट्ठी भी गर्म कर ली व अपने हाथ ही अपनी पीठ भी थपथपा ली। पार्टी भी खुश कि नक्शा पास हो गया और वे एक रुपए में दान में प्राप्त जमीन पर अपार्टमेंट बनाकर करीब दो अरब में बेचकर सारे साझेदार करोड़पति बन जाएंगे। इससे पहले बिक्री की मंजूरी के लिए कई साल तक समिति ने अदालतों व अधिकारियों के चक्कर मारे थे। किसी ने खुद की नौकरी को खतरे में डालकर अनुमति दी तो कई ने नहीं दी थी।

ध्यातव्य है कि उन विभागों को अपेक्षाकृत ज्यादा सतर्कता से काम करने की राह अब पकड़नी होगी, जो भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात हैं और गंदी नाली की तरह समाज में बदबू कर रहे हैं, क्योंकि इस दौर में पब्लिक वह भी सब जान गई है, जो 10-15 साल पहले 10-15 फीसदी लोग भी नहीं जानते थे। उल्टे उल्टी बमबारी खुद पर ही कर ली स्कूल समिति ने। मैप पास कराने के लिए मेज के ऊपर से जो करीब 11 लाख रुपए तीन बैंक ड्राफ्ट के जरिए एलडीए में जमा कराए थे, उनकी वापसी के लिए कई साल तक हाईकोर्ट के चक्कर लगाने पड़े अलग से।

कई सीनियर वकीलों को भी खड़ा करना पड़ा, कई दिन बहस हुई, तब कहीं जाकर ऊपर वाले पैसे मिल सके और मेज के नीचे वाले मर गए, क्योंकि पैसे की वापसी भला कब व किसने ईमानदारी से की है, यह एक सर्वविदित तथ्य है। हालांकि ज्ञात एवं अज्ञात आंकड़े देखकर यही लगता है कि मामला बराबरी पर छूटा यानी कि शेर को सवा सेर मिल गया व चाचा चतुरी को 11 लाख वसूलने में कई किस्तों में कमोबेश उतने ही खर्च करने पड़ गए थे। हाईकोर्ट में जमा रकम पर 18 फीसदी ब्याज की मांग की थी, पर कोर्ट ने सिर्फ सात प्रतिशत ब्याज ही ने का आदेश दिया था।

याचिकाकर्ता द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब के क्रम में हाईकोर्ट में प्रतिवादी नंचर दो व तीन एलडीए की ओर से अधिशासी अभियंता राहुल श्रीवास्तव ने काउंटर एफिडेविट दाखिल किया था। इसमें कही गई बातों से विषय को समझने में और मदद मिलेगी। दृष्टांत मीडिया हाउस द्वारा हासिल किए गए इस डॉक्यूमेंट में उन्होंने कहा था कि भूमि अधिग्रहण का उद्देश्य स्कूल का विस्तार करना था। मार्च 2006 में लेआउट मानचित्र अनुमोदन के लिए प्रस्तुत किया गया था और इसे चार दिसंबर 2006 को आवासीय भवन के निर्माण के लिए अनुमोदित किया गया था, न कि स्कूल भवन के लिए।

एक मार्च 2007 के पत्र के माध्यम से सोसायटी को बाहरी विकास शुल्क और पर्यवेक्षण के बारे में सूचित किया गया था। इस पर शुल्क जमा किए गए थे और उसके बाद दो जून 2007 को एक शिकायत प्राप्त हुई थी, जिसके अनुसार सरकार ने स्कूल के विकास के लिए भूमि अधिग्रहीत की है और निश्चित रूप से सोसायटी द्वारा इसका दुरुपयोग किया जा रहा है इसलिए मामले के सभी पहलुओं पर विचार करते हुए मानचित्र को धन वापसी के भी योग्य नहीं माना, जिसने नक्शा पहली बार में पहले ही झटके में पास कर दिया था। साथ ही कहा कि जमीन जिस वजह से अधिग्रहीत की गई थी, वह पूर्ण नहीं हो रहा है इसलिए मानचिन्न स्वीकृत नहीं किया गया।

आकांक्षी जिलों में एक रुपए में पटूटा

मुफ्त में रेवड़ी बांटने की परंपरा तो अपने देश में लंबे अर्से से रही है। राजे-महाराजे युद्ध जीतने या किसी खुशखबरी और तीज-त्योहार को खैरात बांटते रहे हैं। अब फर्क सिर्फ इतना हो गया है कि अब चुनाव के पहले बांटी जाती है वोट लेने व सत्ता पर काबिज होने के लिए। कोई जाहिल व अंधी सरकार जब रेवड़ी बांटती है तो अपनों को ही देती है। इसके विपरीत योजना में जब पीपीपी या आकांक्षी शब्द जाकर जुड़ जाता है तो पारदर्शिता आ जाती है और सरकार या सरकारी मशीनरी की मनमानी का विशेष अर्थ नहीं रह जाता है।

प्रदेश की योगी सरकार ने उपयोगिता समझते व संवेदनशीलता दिखाते हुए 2023 में ऐलान किया था कि पिछड़े क्षेत्रों में उच्च स्तरीय चिकित्सा सुविधा वाले अस्पतालों की स्थापना के लिए निजी क्षेत्र को एक रुपया प्रति वर्ष की रियायती दर पर पट्टे की भूमि दी जाएगी। इसके अलावा पूंजीगत व परिचालन अनुदान और स्टांप ड्यूटी में छूट जैसे अन्य लाभ भी दिए जाएंगे। शासन के एक वरिष्ठ अधिकारी ने साफ किया था कि वर्तमान में लागू सरकारी निजी सहभागिता नीति उम्मीद के हिसाब से नतीजा नहीं दे सकी है।

इसीलिए अस्पतालों के विकास में निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए सरकारी सहयोग की योजना लाई गई थी। दूसरे राज्य भी इस पर जरूरी ध्यान दे रहे हैं। एमपी की मोहन सरकार ने हेल्थ सेक्टर में निजी निवेश को बढ़ावा देने के लिए नई हेल्थ इनवेस्टमेंट प्रमोशन पॉलिसी पेश की है। उत्तर प्रदेश के बारे में उक्त अधिकारी ने बताया था कि निजी सहयोग से ये अस्पताल आठ आकांक्षात्मक (पिछड़े) जिलों व 100 पिछड़े ब्लॉकों में प्राथमिकता पर बनाए जाएंगे।

साथ ही 17 नगर निगमों, नोएडा-ग्रेटर नोएडा के क्षेत्रों व गैर पिछड़े क्षेत्रों के लिए अलग फॉर्मूला तैयार किया गया है। योजना चार मॉडल पर आधारित है। पहला, केंद्र सरकार की वायबिलिटी गैप फंडिंग पर आधारित है। इसके तहत निजी क्षेत्र की संस्था 50 वर्ष के लिए कम से कम 50 शैया के अस्पताल का निर्माण और संचालन करेगी। इसके बाद शून्य लागत पर अस्पताल, उपकरण व परिसंपत्तियां सरकार को हस्तांतरित करनी होगी। सरकार इसके लिए प्रतिवर्ष एक रुपए की रियायती दर पर पट्टे पर भूमि देगी। पूरी परियोजना लागत का 80 फीसदी तक निजी क्षेत्र की संस्था को पूंजीगत अनुदान। इसमें 40 प्रतिशत हिस्सा केंद्र सरकार की वीजीएफ (वायबिलिटी गैप फंडिंग) से मिलेगा।

पहले पांच वर्षों के लिए संचालन खर्च का अधिकतम 50 फीसदी तक परिचालन अनुदान निजी क्षेत्र की संस्था को दिया जाएगा। इसमें 25 प्रतिशत वीजीएफ योजना के अंतर्गत केंद्र सरकार से प्राप्त हो सकेगा। दूसरे मॉडल में अस्पताल की स्थापना 50 वर्ष के लिए ही होगी। जमीन भी एक रुपए के रेंट पर दी जाएगी। इसमें 40 प्रतिशत पूंजीगत अनुदान एवं विडिंग प्रक्रिया से तय परिचालन अनुदान मिलेगा। 50 वर्ष बाद अस्पताल पर सरकार का नियंत्रण हो जाएगा। तीसरे, मॉडल में भूमि निजी क्षेत्र की संस्था की होगी। कम से कम 50 शैया का अस्पताल बनाएगी व संचालन करेगी। सरकार को भूमि व अस्पताल का हस्तांतरण नहीं करना होगा। पूंजीगत अनुदान नहीं मिलेगा। स्टांप शुल्क में छूट व अन्य लाभ मिलेंगे।

चौथा मॉडल 17 नगर निगमों व नोएडा-ग्रेटर नोएडा क्षेत्र में लागू है। भूमि संस्था की होगी। न्यूनतम 200 शैया का अस्पताल बनाना व चलाना होगा। सरकार को अस्पताल का हस्तांतरण नहीं करना होगा। प्रतिवर्ष कुल शैया दिवसों का 25 प्रतिशत चयनित रोगियों के लिए रखेगी। यहां प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना व मुख्यमंत्री जन आरोग्य योजना के रोगियों का इलाज होगा। पूंजीगत अनुदान लागू नहीं होगा। स्टांप छूट व अन्य लाभ मिलेंगे। नीति में कहा गया है कि इस तरह के अस्पतालों में मरीजों को आपातकालीन, ओपीडी व भर्ती सेवा तो मिलेगी ही और सभी तरह की जांच मुफ्त होगी। विभाग सभी मॉडल के अस्पतालों में इलाज पर खर्च हुई रकम की प्रतिपूर्ति करेगा।

योजना के क्रियान्वयन से मोड-ए के अंतर्गत आठ आकांक्षी जिलों में एक-एक अस्पताल, मोड-वी में 50 आकांक्षी ब्लॉकों में एक-एक अस्पताल व मोड-सी में 50 आकांक्षी ब्लॉकों में एक-एक अस्पताल स्थापना की जा रही है। इसमें करीब 800 करोड़ रुपये वार्षिक खर्च होने का अनुमान है। न्यायपालिका को जहां स्वतः संज्ञान लेना चाहिए, वहां वह भी मौन हो जाती है। इसी कारण केवल उक्त तीन मामलों में ही करीब पांच से छह हजार करोड़ की लूट हो चुकी है। साफ है कि अपने देश से जवाबदेही या तो नदारद है या फिर मृत्युशैया पर अंतिम सांसें ले रही है। साल 2022-23 में रक्त संबंधों में केवल 5000 रुपए में संपत्ति का स्वामित्व हस्तांतरित करने की बेहतरीन योजना के बारे में भी लोग चुटकी लेने से नहीं चूके थे।

उत्तर प्रदेश सरकार ने शुरू में इसे छह माह के लिए इसे शुरू किया था, बीच में बंद हो गई थी और भारी मांग पर फिर खोली गई। इसका प्रदेश के कई लाख लोगों ने लाभ उठाया था। बावजूद इसके इधर-उधर लोग कहते मिल जाते थे कि शासन के किसी खास को बड़ी प्रॉपर्टी ट्रांसफर करनी होगी, इसीलिए किसी आईएएस ने योजना मंजूरी के लिए कैबिनेट में रखी होगी। कहा जाता है कि अपनों को लाभ पहुंचाने के लिए ही 2014 में ऐसी ही एक योजना पट्टा (लीज) भूमि को फीस देकर फ्री होल्ड कराने के लिए शुरू की गई थी। इसमें 2021 में भाजपा सरकार ने बदलाव किया था। लीज होल्ड भूमि को फ्री होल्ड कराने के लिए सर्किल रेट का 25 प्रतिशत तक का चार्ज देना पड़ेगा।

अभी तक पुरानी प्रक्रिया और दरों से ही काम चल रहा था। इसे व्यावहारिक बनाने व समय के साथ कदमताल करने के लिए सरकार ने इसमें संशोधन किया था। प्रमुख सचिव आवास एवं शहरी नियोजन के मुताबिक यह विभागीय वेबसाइट ऍण्नचण्दपवण्पद पर अपलोड है। लीज के मामले में अब प्रीमियम धनराशि लेकर आवंटित भूखंड या भवन को चालू पट्टे के भूमि पट्टेदार या विधिक उत्तराधिकारी के पक्ष में फ्री होल्ड करने के लिए सर्किल रेट का 12 प्रतिशत लिया जाएगा। इसी तरह लीज पर आंशिक प्रीमियम व लीज रेंट पर या बिना प्रीमियम या लीज रेंट पर आवंटित भूमि और भवन को चालू पट्टागत भूमि के पट्टेदार या उत्तराधिकारी के पक्ष में फ्री होल्ड करने के लिए सर्किल रेट का 25 प्रतिशत देना होगा।

पटूटे की शर्तों का उल्लंधन न होने की दशा में पहले से लंबित मामलों में भी सर्किल रेट का 12 से 25 प्रतिशत तक देकर फ्री होल्ड कराया जा सकेगा। पहले से जमा धनराशि सेविंग बैंक एकाउंट पर देय ब्याज के साथ समायोजित होगी। फ्री होल्ड में सिर्फ स्वामित्व का परिवर्तन होगा। भू-उपयोग में परिवर्तन नहीं किया जाएगा। शिक्षा जैसी सामुदायिक सुविधाओं के मामले में भूखंड फ्री होल्ड नहीं होंगे। औद्योगिक इकाइयों को लीज पर आवंटित भूमि को भी प्रदूषण या अन्य संबंधित विभागों की अनापत्ति पर फी होल्ड कराया जा सकेगा। रक्त संबंध मामले की तरह यह योजना भी शुरू में सिर्फ एक वर्ष के लिए थी।

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