
आदर्श चौहान
वर्षों से ऐसा देखने व सुनने में आ रहा है कि शिक्षा विभाग के कुएं में भी भांग पड़ गई है, फिर वह चाहे प्राथमिक शिक्षा का कुआं हो या माध्यमिक का या फिर उच्च शिक्षा का। अन्य की तरह यहां भी जिस मेज से काम की फाइल गुजरती है तो कुंडली मारे बैठा बाबू या बड़ा बाबू उसमें दाम ढूंढ़ने लगता है। कमीशन के बिना पत्तों ने हिलना और फाइलों ने चलना बंद कर दिया है। अगर बात किसी बिल-वाउचर के पेमेंट और ठेका देने की है तो कमीशन का आलम यह हो गया है कि लगता है कि 10 फीसदी को विधिक जामा पहनाने के लिए यही उपयुक्त व सही समय है, वरना बहुत देर हो जाएगी। यानी कि जनता को आदेश दिया जाए कि वह 10 फीसदी तक कमीशन लेने या देने का बुरा मानना तत्काल बंद करे।
उक्त प्रतिशत तक की शिकायत करने वाले, उस पर लिखने वाले, पढ़ने वाले या सुनने वाले को शर्म से डूबकर मरना होगा और अगर वह बच गया तो उसे ही पाप का भागीदार माना जाएगा, न कि कमीशन लेने वाले को। कई केस में यह बढ़कर 40 फीसदी तक पहुंच चुका है तो कई सौदे आधे-आधे पर भी अब होने लगे हैं, क्योंकि दलाली का पैसा लेकर लोग शायद अब ऊपर जाने लगे हैं। यह ठीक वैसा ही है, जैसे किसी अवैध मकान या कॉलोनी को फीस लेकर वैध का प्रमाण पत्र दे दिया जाए, तब तो यह नोएडा के ट्विन टॉवर केस में भी होना चाहिए था कि अरबों रुपए का मलबा बिखेरने और लाखों लोगों के फेफड़े में ठेला भर धूल का गुबार धकेलने से बेहतर था कि कुछ लेकर अवैध को वैध का जामा पहना दिया जाता।
साथ ही उन जिम्मेदारों को साफ छोड़ दिया गया, जिनकी कृपा दृष्टि से दो टॉवर का निर्माण संबंधित पक्ष यहां तक पहुंचाने में सफल रहा। शिक्षा के मंदिरों में कमीशन पूरा गिराने के बजाय यह भी संभव था कि शिमला की सुजौली या अन्य मस्जिद की तरह इसके भी अवैध (बाद में बढ़ाई गई मंजिलें) फ्लोर (मंजिलें) तोड़ दिए जाते तो अरबों का नुकसान बच जाता। टॉवर के साथ उन्हें भी गिरा देना चाहिए था, जिन्होंने 11 मंजिल का नक्शा पास करने के बाद इसे 24 मंजिल और फिर 40 मंजिल करने के आदेश पर साइन किए थे। हालांकि विषय यह है कि हाल के साल में दर्जन भर कुल सचिव विभिन्न विश्वविद्यालयों में राज्य सरकार की ओर से नियुक्त किए गए थे, क्योंकि पहले वालों में कई दागी निकले थे और निलंबन की कार्रवाई भी की गई थी।
कई कुलपतियों पर भी कालांतर में गंभीर आरोप लगे हैं, सस्पेंशन की कार्रवाई भी हुई है और बहाली भी। आमतौर पर ट्रेंड यही रहा है कि बाबू लेकर ऊपर तक पहुंचाता है, पर जब कार्रवाई का नंबर आता है तो बलि का बकरा उसे ही बनाया जाता है। कोरोना काल के पहले तक प्राथमिक शिक्षा विभाग को खाला का घर बना देने पर उन्नाव के बीएसए रहे कौस्तुभ कुमार सिंह द्वारा की गई नियुक्तियों पर हंटर चल चुका है तो बड़ी धांधली के चलते उन पर भी निलंबन की कार्रवाई हो चुकी है। बीते माह उन्नाव डीआईओएस ऑफिस में यह हो चुका है। पकड़ा गया अकेले बाबू राम स्वरूप और पैसा खाते थे कई फल स्वरूप भी। उच्च शिक्षा की बात करें तो कुछ साल से विवादित रहे रजिस्ट्रार एसके शुक्ला पर भी हंटर चल चुका है। लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. एमपी सिंह के 2019 में रिटायर होने के बाद ऐसे दागी आदमी को कार्यवाहक कुलपति भी बनाया गया था। राज भवन चाहता तो इसका तोड़ निकाल सकता था।
एक साल पहले लखनऊ के ही बाबा साहब भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय के कुलसचिव डॉ. अश्वनी कुमार सिंह को करीब 20 करोड़ के भ्रष्टाचार में निलंबित किया गया था, पर दिल्ली के जले नोट कांड की तरह न्यायपालिका ने निलंबित का साथ देते हुए निलंबन पर रोक लगा दी थी। एक दिन पहले ही महाराजा सूरजमल विश्वविद्यालय भरतपुर के कुलपति को अनियमितता के गंभीर आरोपों के चलते निलंबित कर दिया गया है तो एकेटीयू लखनऊ व कानपुर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. विनय पाठक और जांच के बीच चूहे-बिल्ली का खेल चल रहा है कई साल से और वह पद पर विराजमान रहकर हजारों विद्यार्थियों के समक्ष स्वच्छता की नजीर पेश कर रहे हैं और सभा-सेमिनार में लच्छेदार बेशर्म ज्ञान भी बांट रहे हैं। राज भवन इस काम में उनके साथ है।
हाईकोर्ट के पूर्व जज की अगुवाई में जो जांच समिति गठित की गई थी, उसे ही इससे साफ है कि शिक्षा के मंदिरों में गंदगी अंदर तक घुस गई है। उसी न्यायपालिका के एक भले आदमी ने यह सब देखकर सीबीआई जांच का आदेश दिया था। सीबीआई ने एसटीएफ से सारे सुबूत ले लिए थे तो वादी, आरोपी व गवाहों के बयान भी दर्ज किए थे। इंदिरा नगर थाने के विवेचकों के भी बयान लिए थे। टीम पहली बार एक साल पहले परिसर पूछताछ के लिए पहुंची थी। शिक्षा के इन मंदिरों में अब मां सरस्वती पर कम काम व व्याख्यान हो रहे हैं तो मां लक्ष्मी व ठेकेदारी पर लोग ज्यादा ध्यान देने में जुटे हैं। ऐसा मोटे बजट के कारण हो रहा है, जिससे विभिन्न विश्वविद्यालय भ्रष्टाचार के बड़े केंद्र हाल के साल में साबित हो रहे हैं।
सवाल तो सहायक प्रोफेसर, कुल सचिव व वीसी की नियुक्तियों पर भी काफी समय से खड़े हो रहे हैं कि योग्यता पर जुगाड़ हावी है, पर वह एक अलग विषय है। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि जो पकड़ा गया, वह भ्रष्ट और जो अब तक नहीं पकड़ा गया वह साहूकार। ऐसे पकड़े गए भ्रष्ट जब राहत के लिए कोर्ट पहुंचते हैं तो वहां मौजूद सभी लोगों को उसे चोट्टे की ही नजर से देखना चाहिए तो शर्म से मरने की एक्टिंग करते दिखेगा, क्योंकि यह जंतु इस दौर में इतना शर्मनिरपेक्ष हो गया है कि पड़ोसियों के जान जाने के बाद भी शर्म नहीं महसूस कर रहा है।
समाज भी जान गया है कि इनका खर्चा, बच्चों की शिक्षा का स्तर और मकान वेतन की तुलना में बड़ा है। लोग पकड़े जा रहे हैं, कार्रवाई भी हो रही है, पर न जाने किस अज्ञात अघोषित आधार पर स्टे ऑर्डर मिल जा रहा है, जो कि दुःखद है और लोगों का बोलने का मौका देता है। सोशल मीडिया के इस दौर में लाखों बोलने वाले हैं। कई बार हैरानी होती है ऐसे हजारों चोट्टों को कोर्ट से स्टे ऑर्डर की राहत और जमानत मिलती देखकर, पर वह तो अदालत है। कुछ भी कर सकती है। वह “नौ दिन चले अढ़ाई कोस” की तर्ज पर किसी महाचोर को सजा देने के बजाय तबादला भी कर सकती है।
उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने 1976 में एक मामले में दिए गए फैसले में कहा था कि तबादला कोई सजा नहीं है। उक्त फार्मूला को अपराधियों के केस में भी अब ट्राई किया जा सकता है, उसे फांसी या उम्रकैद की सजा देने के बजाय जिला या प्रदेश बदर (तबादला) करके काम चलाया जा सकता है। इस काम में बस उतनी ही देर है, जितना समय किसी एक को चाहिए होगा आगे आकर नजीर स्थापित करने में। ऐसा ढीठ कथित जांच के बाद कुर्सी पर बैठ जाए और फिर फैसले देने लगे तो दोनों पक्षों को खुलकर बोलना चाहिए कि केस दूसरी कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया जाए। ऐसे घटिया लोगों को खुदकुशी न सही तो कम से कम इस्तीफा तुरंत देकर गुप्त स्थान की यात्रा पर हमेशा के लिए निकल जाना चाहिए और फिर कभी किसी को शक्ल नहीं दिखानी चाहिए।
आइने की तरह जब सबकुछ साफ हो गया था पहले घंटे में ही तो फिर जांच, कोलेजियम, सुनवाई व ट्रांसफर ये सब क्या है? कोलेजियम को योग्यता का गंदा व घटिया दृष्टांत पेश करने के बजाय सीधे इस्तीफा मांगना चाहिए था, पर ऐसा न करके अपनी ही थू-थू कराई है। क्या यही कानून का शासन है? आम जनता इसे कानूनों के मुंह पर कालिख ही कहेगी। बड़ी बुरी स्थिति है, जहां संविधान को मुखर होना चाहिए, वहां मौन हो जाता है व उल्लिखित सारे प्राविधान द्विअर्थी हो जाते हैं। गरीब के लिए जिम्मेदार लोग दूसरा अर्थ निकाल देते हैं व अमीर के लिए दूसरा। लचर प्रशासन की एक नजीर देखिए।
प्रो. राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) राज्य विश्वविद्यालय से संबद्ध पांच कॉलेजों ने बिना मान्यता आदेश के मनमाने तरीके से बी.एड. कोर्स की 300, डीएलएड कोर्स की 100 व एमएड की 50 सीटें बढ़ा लीं। एडमिशन ले लिए और मामला तब पकड़ में आया, जब राज्य विश्वविद्यालय को इस बाबत एनसीटीई ने पन्न भेजा। शिकायत मिलने पर राज्य विवि के रजिस्ट्रार ने नेशनल रीजन कमेटी (एनआरसी) व नेशनल काउंसिल फॉर टीचर एजुकेशन (एनसीटीई) एनसीटीई को पत्र भेजकर सच क्या है, पूछा था तो जवाब में इस गड़बड़ी का खुलासा हुआ।
क्षेत्रीय निदेशक सतीश कुमार की ओर से रजिस्ट्रार संजय कुमार को भेजे गए पत्र में स्पष्ट किया गया कि केपी उच्च शिक्षा संस्थान झलवा प्रयागराज, नंद किशोर सिंह डिग्री कॉलेज धनुहा चौका नैनी व डिग्री कॉलेज उपरदहा बरौत हंडिया में बी.एड. की 100-100 सीटें (दो-दो यूनिट) बढ़ाने के लिए एनआरसी-एनसीटीई की ओर से कोई मान्यता आदेश जारी नहीं किया गया है। इसी तरह धनुहा में डीएलएड की 100 सीटें (दो यूनिट) बढ़ाने के लिए भी कोई आदेश जारी नहीं किया गया है। बरौत मामले में एमएड की 50 सीटों (एक यूनिट) के लिए भी नियंत्रक संस्था ने आदेश जारी नहीं किया है।
उक्त ने सिफारिश की है कि इन संस्थानों के खिलाफ सीटें मनमाने ढंग से बढ़ाने पर विधिक कार्रवाई करें और संबंधित पाठ्यक्रमों में संबद्धता प्रदान न करें। साथ ही आग्रह किया कि आगे से छात्र-छात्राओं को संबंधित पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिए उक्त संस्थान आवंटित न किए जाएं। एनआरसी-एनसीटीई ने राज्य विवि से इन संस्था में संचालित टीचर ट्रेनिंग प्रोग्राम की जानकारी भी मांगी है। ऐसे अन्य संदिग्ध संस्थानों के बारे में सूचना मांगी है, जिनके खिलाफ विधिक कार्रवाई की जा सकती है। राज्य विवि के कुलपति प्रो. अखिलेश कुमार सिंह ने बताया कि संस्थानों के खिलाफ शिकायत मिली थी, जिसको तस्दीक के लिए उक्त नियंत्रक संस्थाओं को पत्र भेजा गया था।
उक्त संस्थानों के खिलाफ नियमानुसार कार्रवाई की जा रही है। कालांतर में उच्च शिक्षा संस्थानों में इतनी गंध भर गई है कि बेड़ा ही गर्क हो गया है। इतना ही नहीं, दिन पर दिन यह और भरती जा रही है नई भर्ती के जरिए। विभिन्न विश्वविद्यालयों के भर्ती के मामले अक्सर मीडिया में सुर्खियां बनते रहते हैं। हाल ही एक विश्वविद्यालय के वीसी और उन्हीं के मातहत कुल सचिव का मामला भी कमीशन के पैसे के बंटवारे को लेकर मीडिया में खूब उछला था। आरक्षण नियमों का उल्लंघन कर 26 शिक्षकों की नियुक्ति का मामला भी पकड़ में आया है।
प्रो. राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) राज्य विश्वविद्यालय में पिछले वर्ष हुए शिक्षकों के चयन में आरक्षण नियमों की अनदेखी का आरोप लगा था। यह किसी और ने नहीं, बल्कि यूनिवर्सिटी के ही डिप्टी रजिस्ट्रार (प्रशासन) प्रभाष द्विवेदी ने लगाया था। उन्होंने 26 शिक्षकों का वेतन परीक्षा विभाग से देने पर आपत्ति उठाई थी। कुलपति प्रो. अखिलेश कुमार सिंह को पत्र भेजकर विश्वविद्यालय में वित्तीय अनियमितता के उन्होंने गंभीर आरोप लगाए थे व निष्पक्ष जांच की मांग की थी। आरोप लगाया है कि तत्कालीन कुलपति प्रो. संगीता श्रीवास्तव के कार्यकाल में ये 26 नियुक्तियां आरक्षण नियमों का उल्लंघन करके की गई थीं। इनके वेतन भुगतान के लिए कोई ग्रांट जारी नहीं की गई थी। ऐसे में शिक्षकों को वेतन का भुगतान विश्वविद्यालय प्रशासन परीक्षा मद से कर रहा है। यह वित्तीय नियमों का उल्लंघन है।
प्रभाष द्विवेदी ने लेखाधिकारी और वित्त अधिकारी को कठघरे में खड़ा करते हुए पन्न में कहा है कि उत्तर प्रदेश राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम 1973 के नियमों के उल्लंघन किया जा रहा है। बिना शासन की अनुमति से परीक्षा विभाग की राशि से वेतन भुगतान नहीं किया जा सकता है। प्रभाष ने तत्कालीन कुलपति संगीता से भी शिकायत की थी, लेकिन सुनवाई नहीं की गई थी। इनका वेतन रोककर पूर्व में निर्गत वेतन और अन्य भत्तों की वसूली की भी उन्होंने मांग की है। राज्य विवि के कुलपति प्रो. सिंह ने तब कहा था कि उन्हें कोई पत्र नहीं मिला है। पत्र मिलने और पढ़ने के बाद ही कुछ कहना ठीक रहेगा।
आम बात है धांधलेबाज कुलसचिवों के निलंबन
11 नवंबर 2019 को लखनऊ विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो. एमपी सिंह का कार्यकाल पूरा होने पर तत्कालीन रजिस्ट्रार एसके शुक्ला को कार्यवाहक कुलपति का कार्यभार सौंपा गया था। शुक्ला की ओर से कार्यभार ग्रहण करने के बाद एलएलवी तीसरे सेमेस्टर की परीक्षा का पेपर लीक हो गया था, जिसे गंभीर अनियमितत मानते हुए कार्रवाई की गई थी। इस बीच उन्हें रज्जू भैया राज्य विश्वविद्यालय रजिस्ट्रार के पद पर भेज दिया गया था। शुक्ला को निलंबित कर दिया गया है। लखनऊ विश्वविद्यालय में उनके कार्यवाहक कुलपति रहते हुए पेपर लीक कराने का प्रथमदृष्ट्या दोषी पाए जाने पर प्रदेश सरकार ने यह कार्रवाई की थी। उनके खिलाफ जांच के लिए कमेटी भी गठित कर दी गई है।
एसआईटी से भी इसकी जांच कराई गई थी। मामले में वायरल हुए ऑडियो के आधार पर एसआईटी ने जांच की और रिपोर्ट दी थी, जिसके आधार पर शुक्ला को निलंबित किया गया था। शुक्ला को प्रयागराज से 30 जून 2022 को तबादला संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी रजिस्ट्रार के पद पर भेज दिया गया था। राज्य विवि में तैनाती के दौरान स्व वित्तपोषित महाविद्यालय संगठन ने भी उन पर कई गंभीर आरोप लगाए थे। संगठन अध्यक्ष हरिश्चंद्र सिंह ने सीएम को भेजे पत्र में कहा था कि शुक्ला संबद्धता के नाम पर अनियमितता कर रहे हैं और सहयोगियों से अभद्रता भी। संविदा कर्मियों को हटाकर अपने चहेतों को नियुक्त करने का भी आरोप तथ्यों के साथ जड़ा था।
दूसरी ओर, ठेकेदारी में 20 करोड़ की धांधली के आरोपों में बाबा साहब भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय लखनऊ के कुलसचिव डॉ. अश्वनी कुमार सिंह को भी निलंचित कर दिया गया था, लेकिन तब लोग चौंक पड़े, जब लखनऊ हाईकोर्ट ने उनके निलंबन पर रोक लगा दी थी। साथ ही जांच पर भी रोक लगा दी थी। दिल्ली के जज कांड के बाद तो हर ऐसे फैसले को समाज संदेह की नजर से देखने लगा है। इतना ही नहीं, केंद्र सरकार और विश्वविद्यालय को चार सप्ताह के भीतर जवाबी हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया गया था।
जस्टिस अब्दुल मोइन की एकल पीठ ने डॉ. सिंह की याचिका पर यह आदेश दिया था। डॉ. अश्वनी ने 18 नवंबर को निलंबन और 22 नवंबर को विभागीय जांच के आदेश को चुनौती दी थी। दोनों ही आदेश कार्यवाहक कुलपति द्वारा पारित किए गए थे। डॉ. अश्वनी की दलील है कि नियम के तहत उनके खिलाफ ये आदेश पारित करना कुलपति के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। उधर, इस याचिका का विरोध करते हुए विश्वविद्यालय की ओर से दलील दी गई कि कुलपति को विश्वविद्यालय के कर्मियों के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार है। भ्रष्टाचार का एक मामला पाए जाने के बाद यह कार्रवाई की गई है।
दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद कोर्ट ने कहा कि विश्वविद्यालय के नियमों के प्रावधानों के तहत कर्मियों और अधिकारियों को अलग अलग परिभाषित किया गया है और कुलसचिव को एक अधिकारी माना गया है। कुलपति सिर्फ कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई कर सकता है, अधिकारियों के खिलाफ नहीं इसलिए देखने से लग रहा है कि कुलपति ने दोनों आदेश अधिकार से बाहर जाकर दिए हैं, जो कि गलत है। यह सुनकर कई के चेहरे पर कुटिल मुस्कान तैर गई थी। मौके पर मौजूद विश्वविद्यालय के एक प्रतिनिधि ने कहा कि इस प्रकार के निर्णय भ्रष्ट लोगों की मदद करते हैं। निलंबन व की कार्रवाई पर स्टे से चोरों का हौसला ही बढ़ेगा।