योगी की मंशा का हत्यारा

टी. धर्मेंद्र प्रताप सिंह

कोई भी अधिकारी अराजकता व भ्रष्टाचार की हदें पार दे व पूरे प्रदेश को राज्य मुख्यालय से संबद्ध कर ले, कोई ऐतराज नहीं, पर किसी न किसी के प्रति उसकी जवाबदेही जरूर होनी चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है और इसकी क्या जरूरत आ पड़ी अचानक ऐतिहासिक रूप से? अतीत में कहा जाता था कि कुर्सी किस्मत से मिलती है पर कालांतर में तो सारे मानक ही बदल गए हैं।

असंतृप्त जिलों की बात हो या आकांक्षी जिलों की या मुख्यमंत्री की महत्वाकांक्षी प्राथमिकताओं की। इसकी आड़ में ब्यूरोक्रेसी और उसके मातहत अधिकारियों को खूब मनमानी करने को मिल जाती है। दूसरे, वह कुर्सी ही क्या, जो मदांध न कर दे। शासन की जब एक नीति है कि गृह जनपद में तैनाती किसी को नहीं तो फिर किसी-किसी विभाग को बेहद और बेहिचक मनमानी करने की इतनी अराजकता की छूट कौन देता है, जो नियमों को ताक पर रखकर तैनाती देता है? भारत सरकार के नीति आयोग द्वारा घोषित अति पिछड़े जिलों में ही केवल थोड़ी सी छूट दी गई है कि गृह जनपद का भी आदमी पोस्ट किया जा सकता है। इस तरह की किसी भी अराजकता का अंत करने के लिए ही तो एक पुख्ता नीति बनाई गई थी।

कोई भी अधिकारी अराजकता व भ्रष्टाचार की हदें पार दे व पूरे प्रदेश को राज्य मुख्यालय से संबद्ध कर ले, कोई ऐतराज नहीं, पर किसी न किसी के प्रति उसकी जवाबदेही जरूर होनी चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है और इसकी क्या जरूरत आ पड़ी अचानक ऐतिहासिक रूप से? अतीत में कहा जाता था कि कुर्सी किस्मत से मिलती है पर कालांतर में तो सारे मानक ही बदल गए हैं। आमतौर पर कुर्सी मिलती ही है बहुत सारे पापड़ बेलने के बाद और भी पता नहीं क्या-क्या करना पड़ता है कुर्सी पाने के लिए? आज के दौर में तो और भी बहुत कुछ करना पड़ता है अलग से।

वह मद, पद, कुर्सी व सत्ता ही बेकार है, जो नियमों में बांधकर काम कराए, मदहोश न कर दे, पागल न कर दे और उलूल-जुलूल हरकतें न कराए? कुर्सी मिली है तो फिर उसका दुरुपयोग इतना करना है कि मातहतों के साथ कुर्सी तक रो पड़े। हालांकि समाज में दोनों ही सिद्धांतों के पक्षधर मिलते हैं पर पहली प्रजाति वालों की अधिकता में खो गए हैं दूसरी तरह के वे लोग, जो कल को दिमाग में रखकर एक्टिंग और एक्टिविटीज करते हैं, क्योंकि कल सत्ता या कुर्सी नहीं होगी, तब कौन आएगा नमस्ते करने और भला क्यों आएगा? इसके विपरीत आज में जीने में जुटा व सातवीं पीढ़ी के भविष्य के लिए सुख-सुविधाएं ढूंढ़ने में भिड़ा कोई व्यक्ति भला कहां सोचता है कल के बारे में?

अधिकांश अतीत और भविष्य को भूलकर आज की सत्ता का आनंद लेते हैं, इसीलिए यदि कोई येन-केन-प्रकारेण प्रमोशन से पद पा भी ले ले तो आमतौर पर उसे बाहर भेजने की ही परंपरा रही है सरकारी हलके में क्योंकि लंबे अर्से से साथ रह रहे स्थानीय कर्मचारी प्रायः आत्मसात नहीं कर पाते हैं और काम के बजाय राजनीति शुरू हो जाती है। राजधानी के मीठी गोली वाले मुख्यालय में आजकल यही सब चल रहा है। भ्रष्टाचार की कड़वाहट इतनी ज्यादा भर गई है कर्मियों के दिमाग में कि विभाग के अंदर की बातें छनकर नहीं, बल्कि थोक में उड़कर बाहर आ रही हैं। पैसे से यहां पर कुछ भी संभव हो जा रहा है। ट्रांसफर-पोस्टिंग व सस्पेंशन बहाली के खेल जब बड़ी संख्या में अदालत पहुंचे तो बात मीडिया में भी पहुंचने में देर नहीं लगी।

आंकड़े भी बताते हैं कि डायरेक्टर की हरकतें व करतूतें ही इतनी कड़वी हैं कि विभाग के चर्चे आम हो चुके हैं। विभागीय ब्यूरोक्रेट से लेकर मुख्यमंत्री के यहां तक दर्जनों शिकायती पत्र पहुंच चुके हैं, पर ढर्रा है कि सुधरने का नाम नहीं ले रहा है। बात हो रही है होम्योपैथी के निदेशक डॉ. अरविंद कुमार वर्मा की, जिन पर उक्त आरोप लगाए गए हैं मुख्यमंत्री व मुख्य सचिव को भेजे गए एक नए पत्र में। साथ में प्रमाणों का पुलिंदा भी भेजा गया है। इसमें निदेशक को भ्रष्टाचार पर सीएम की जीरो टॉलरेंस नीति का न सिर्फ दुश्मन बताया गया है, बल्कि प्रमाणों सहित साबित भी किया गया है। सरकार के लोक कल्याणकारी कार्यक्रमों के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैये, सरकारी धन के बंदरबांट, अधिकारों के दुरुपयोग, आदेशों को पलीता लगाने, ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था को भारी क्षति पहुंचाने के आरोपों की जांच की मांग की गई है।

उन्हें घोर भ्रष्टाचार में आकंठ (नख से शिख तक) डूबा बताते हुए शासन की मंशा व जनता के हक पर डाका डालने वाला बताया गया है। सरकार जहां ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था पर हर माह करोड़ों खर्च करके सुदृढ़ बनाकर जनमानस को स्वस्थ बनाना चाहती है, वहीं पर डॉ. वर्मा ने ग्रामीण क्षेत्रों में राजकीय होम्योपैथिक चिकित्सालयों केचिकित्साधिकारियों को बड़ी संख्या में निदेशालय में संबद्ध कर लिया है।वह भी बिना किसी ठोस वजह के। कोई कार्य न होने से वे बैठकर राजकोष से वेतन ले रहे हैं। यह एक ओर जहां खास प्रकार का भ्रष्टाचार है तो दूसरी ओर ग्रामीणों के लिए शासकीय व्यवस्था को ध्वस्त करने का अपराधिक कृत्य भी।

स्थानांतरण सत्र 30 जून 2024 समाप्त होने के बाद भी सितंबर-अक्टूबर में क व ख श्रेणी के अधिकारियों, जैसे- संयुक्त निदेशक, मुख्य चिकित्सा अधीक्षक, जिला होम्योपैथिक चिकित्साधिकारी, एसएमओ, एमओ का स्थानांतरण व संबद्धता बिना शासन की अनुमति लिए निदेशक ने कर डाले। यह कौन तय करेगा कि उनकी जवाबदेही किसके प्रति है? क्या यह आदमी मुख्यमंत्री के आदेशों को भी ठेंगे पर रखने लगा है, क्योंकि ट्रांसफर नीति 2024-25 में स्पष्ट कहा गया है कि स्थानांतरण सत्र की अवधि की समाप्ति के उपरांत समूह क व ख के कार्मिकों के संबंध में विभागीय मंत्री के माध्यम से मुख्यमंत्री का अनुमोदन प्राप्त कर लिया जाए, किंतु निदेशक ने मुख्यमंत्री के अनुमोदन की कौन कहे, आयुष के प्रमुख सचिव तक से अनुमति व सहमति लेना जरूरी नहीं समझा?

इससे साफ है कि वह विभागीय मंत्री व सचिव से भी बड़ी हैसियत रखता है। मुख्यमंत्री की भी अनुमति की उन्हें जरूरत नहीं है। उनकी स्वेच्छाचारिता, मनमानी और प्रताड़ना का नजला महिला अधिकारियों पर खासतौर से गिरा है। नियमों के विपरीत काम करके श्रेणी क की एकमात्र महिला संयुक्त निदेशक सहित मंडलों पर तैनात चार महिला मुख्य चिकित्सा अधीक्षकों को भी परेशान करने का आरोप है। डॉ. वर्मा ने नीति आयोग की एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट स्कीम की भी अवहेलना की है। आयोग द्वारा घोषित अत्यंत पिछड़े जिले सिद्धार्थ नगर में करीब आठ चिकित्सालयों में चिकित्साधिकारी का पद करीब एक साल से रिक्त है। निलंबन के बाद बहाल एक चिकित्साधिकारी को मूल स्थान चंदौली में तैनात न करके निदेशालय में करीब छह-सात माह से मनमाने तौर पर रखा हुआ है।

इसके बजाय स्थानांतरण सत्र बीतने के बाद बीच सत्र में 26 सितंबर 2024 को मुख्यमंत्री आवास स्थित राजकीय होम्योपैथिक चिकित्सालय से हटाकर एक एसएमओ को चंदौली भेजा गया है। इससे क्यों न यह आशय निकाला जाए कि एक आदमी शासन की नाक के नीचे बैठने के बावजूद अराजक होकर मनमानी कर रहा है? आयोग ने ट्रांसफर नीति के तहत महत्वाकांक्षी जनपदों (एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट स्कीम) में प्रत्येक दशा में प्रत्येक पद भरा रखने की हिदायत दी है। किंतु आकांक्षी जिला सिद्धार्थ नगर में चिकित्साधिकारी के करीब आठ पद, चंदौली व श्रावस्ती में तीन व बहराइच में एक पद वर्षों से रिक्त है।

गरीबों व पिछड़ों के हित साधने वाली सरकार की प्राथमिकताओं से भी इस आदमी ने मुंह मोड़ रखा है, क्योंकि सिद्धार्थनगर के चिकित्सालयों में चिकित्साधिकारी तैनात नहीं किए गए हैं, जबकि ट्रांसफर नीति व शासन के नियमों के विरुद्ध कई चिकित्साधिकारी 14 से 18 साल से एक ही जनपद या एक ही चिकित्सालय या एक ही मंडल में तैनात हैं, लेकिन निदेशक को नियमों के दायरे में काम करना पसंद ही नहीं है। इस तरह ग्रामीण क्षेत्रों में तैनात करीब दो दर्जन होम्योपैथिक चिकित्साधिकारियों को निदेशालय में संबद्ध करके गरीब, अभाव ग्रस्त लोगों की चिकित्सा सुविधा छीन ली गई है। ज्ञात हो कि इन नियुक्तियों का अधिकार सिर्फ सचिव को होता है। अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर डायरेक्टर अपने लाभ के लिए ट्रांसफर-पोस्टिंग कर रहा है शासनादेश के खिलाफ जाकर बिना अथॉरिटी के। उन पर बिना टेंडर अधिक दर पर औषधियों की खरीद का भी आरोप लगाया गया है।

बताते हैं कि कई साल से 28-30 रुपए प्रति 100 एमएल रेट की दवाएं 100-150 रुपए प्रति 100 एमएल की दर पर खरीदकर जनता के धन की बर्बादी की जा रही है। एक ही दवा समान मात्रा में विभिन्न जनपदों में भिन्न-भिन्न रेट पर क्रय करने से सरकार की छवि भी धूमिल की जा रही है। इसमें मांग की गई है कि उपरोक्त सारे मामले शुद्ध रूप से एक ओर जहां धनउगाही और भ्रष्टाचार की उपज हैं तो दूसरी ओर सरकार के जनकल्याणकारी योजनाओं को चूने के साथ पलीता भी लगा रहे हैं। ऐसे में शासन को तत्काल मनमानी पर अंकुश लगाते हुए व अपनी किरकिरी बचाने के लिए जांच करानी चाहिए। समय-समय पर दर्जनों शासनादेश स्थानांतरण नीति के अनुपालन के संदर्भ में जारी किए गए हैं, पर कहा जाता है कि निदेशक ने उन्हें ठेंगे पर ही रखा।

इसके अलावा अनु सचिव व सचिव स्तर से भी कई बार जारी आदेशों में कहा गया है कि यह कहने का निर्देश हुआ है कि सरकारी अधिकारियों-कर्मियों के तबादले में इन-इन बिंदु का पालन किया जाए। साल भर पहले मुख्य सचिव रहे दुर्गा शंकर मिश्र ने स्थानांतरण नीति 2023-24 के हवाले से कहा था कि समूह क एवं ख के उन अधिकारियों के स्थानांतरण प्राथमिकता के आधार पर किए जाएं, जो तीन साल से जमे हुए हैं। इसी प्रकार जो अधिकारी एक मंडल में सात वर्ष पूर्ण कर चुके हों, को तत्काल स्थानांतरित कर दिया जाए। छूट भी दी गई है कि विभागाध्यक्ष व मंडलीय कार्यालयों में की गई तैनाती को उक्त अवधि में नहीं गिना जाएगा। मंडलीय कार्यालयों में तैनाती की अधिकतम अवधि तीन वर्ष होगी व इस के लिए सर्वाधिक समय से कार्यरत अधिकारियों के स्थानांतरण प्राथमिकता के आधार पर किए जाएंगे।

विभागाध्यक्ष कार्यालयों में यदि समूह क तथा ख के अन्य अधिकारियों के समकक्ष पद मुख्यालय के बाहर विद्यमान हैं तो मुख्यालय व विभागाध्यक्ष कार्यालय में तीन वर्ष कार्यरत रहने वालों को समकक्ष पदों पर मुख्यालय से बाहर स्थानांतरित कर दिया जाए, किंतु जनपदों व मंडलों में तैनाती की अवधि को उक्त निर्धारित अवधि में न गिना जाए। जनपदों व मंडलों में तैनाती की अवधि एवं विभागाध्यक्ष कार्यालयों में तैनाती की अवधि को अलग-अलग माना जाए। उपरोक्तानुसार समूह क एवं ख के स्थानांतरण संग कार्यरत अधिकारियों की संख्या के अधिकतम 20 प्रतिशत की सीमा तक ही किए जा सकेंगे तथा सर्वाधिक समय से कार्यरत कार्मिकों को प्राथमिकता दी जाएगी। उक्त निर्धारित 20 प्रतिशत की सीमा से अधिक स्थानांतरण की अपरिहार्यता होने पर मुख्यमंत्री का अनुमोदन आवश्यक होगा।

समूह ख के कार्मिकों के स्थानांतरण विभागाध्यक्षों द्वारा किए जाएंगे। इस संबंध में विभागीय मंत्री से विचार-विमर्श करके कार्रवाई की जाए। स्थानांतरण सत्र की अवधि की समाप्ति के उपरांत समूह क एवं ख के कार्मिकों के संबंध में विभागीय मंत्री के माध्यम से मुख्यमंत्री का अनुमोदन प्राप्त कर स्थानांतरण किया जाए। समूह ग के ट्रांसफर विभागाध्यक्ष के अनुमोदन से होंगे। समूह घ के स्थानांतरण संवर्गवार कुल कार्यरत कार्मिकों की संख्या के अधिकतम 10 प्रतिशत की सीमा तक किए जा सकेंगे। 20 प्रतिशत की सीमा तक अपरिहार्यता की स्थिति में प्रशासकीय विभाग द्वारा विभागीय मंत्री के अनुमोदन से होंगे, लेकिन उनके, जो सर्वाधिक समय से कार्यरत होंगे।

समूह ग एवं घ के कार्मिकों के स्थानांतरण में नीति का पालन सुनिश्चित कराने की स्थिति में मंत्री से भी विचार-विमर्श होगा। स्थानांतरण सत्र की अवधि की समाप्ति के उपरांत अपरिहार्य परिस्थितियों में समूह ग एवं घ के स्थानांतरण विभागीय मंत्री का अनुमोदन प्राप्त कर के ही होंगे। संदिग्ध सत्यनिष्ठा वाले कार्मिकों की तैनाती संवेदनशील पदों पर कदापि न की जाए। समूह क के अधिकारियों को गृह मंडल में तैनात नहीं किया जाएगा तो ख वालों को गृह जनपद में नहीं दिए जाएंगे, परंतु प्रतिबंध यह है कि उक्त विधान केवल जनपद स्तरीय विभागों व कार्यालयों में लागू होंगे। भारत सरकार द्वारा घोषित प्रदेश की आकांक्षी जिला योजना (एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट स्कीम) से संबंधित आठ जिले- चित्रकूट, चंदौली, सोनभद्र, फतेहपुर, बलरामपुर, सिद्धार्थ नगर, श्रावस्ती व बहराइच एवं प्रदेश के घोषित 100 आकांक्षी विकास खंडों में प्रत्येक विभाग द्वारा प्रत्येक दशा में समस्त पदों पर तैनाती करके संतृप्त किया जाएगा एवं दो वर्ष बाद विकल्प प्राप्त कर उन्हें स्थानान्तरित किया जाए।

यदि विशेष आवश्यकता, भौगोलिक परिस्थितियों अथवा योजना के कारण जरूरी ही हो तो मंत्री के माध्यम से मुख्यमंत्री का अनुमोदन प्राप्त करके किया जाएगा। समूह ख एवं ग के कार्मिकों के स्थानांतरण यथा संभव मेरिट बेस्ड ऑनलाइन ट्रांसफर सिस्टम के आधार पर किए जाएं। जनहित एवं प्रशासनिक दृष्टिकोण से मुख्यमंत्री द्वारा कभी भी किसी भी कार्मिक को ट्रांसफर किया जाएगा। इस नीति में विचलन अपरिहार्य होने पर कार्मिक विभाग के परामर्श के उपरांत मुख्यमंत्री द्वारा कभी भी स्थानांतरित किया जा सकता है। नीति में किसी प्रकार का संशोधन भी मुख्यमंत्री द्वारा ही किया जा सकेगा। एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट स्कीम वाले प्रदेश के आठ जिलों में एक जिला सिद्धार्थ नगर भी है।

भारत सरकार के थिंक टैंक नीति आयोग ने मार्च 2018 में शिक्षा, स्वास्थ्य व पोषण को मिलाकर कुल पांच क्षेत्रों के विकास के 49 मानकों पर देश के 101 जिलों की रैंकिंग की थी तो सर्वाधिक पिछड़े पाए गए देश के 10 जिलों में उत्तर प्रदेश के चार थे, जिनके नाम हैं- श्रावस्ती, बहराइच, सिद्धार्थ नगर व बलरामपुर। आयोग से निर्धारित आकांक्षी जनपदों के सैचुरेशन हेतु आदेशांक 1719/96-2-2018-132/-2018 के आलोक में स्थानांतरण नीति के 05/2023/262/सामान्य / 47-क-4-2023 (1/3/96) के मार्गदर्शक सिद्धांत 4 के उप नियम (4) में भी निर्देशित है कि प्रत्येक विभाग आकांक्षी आठ जिलों को प्रत्येक दशा में हर पदों को गृह जनपद वाले अधिकारियों आदेशां को पास के जनपद के कार्मिकों को स्थानांतरित करके संतृप्त किया जाए। अब आते हैं अत्यंत पिछड़ा घोषित सिद्धार्थनगर मामले पर।

निदेशालय में संयुक्त निदेशक पद पर हालिया प्रमोटेड डॉ. सुमन रहेजा के प्रकरण में डायरेक्टर ने आदेश में कहा है कि सिद्धार्थ नगर आकांक्षी जनपद है। कई चिकित्साधिकारियों और वरिष्ठ चिकित्साधिकारियों के पद खाली हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि यह रहस्य निदेशक को कब पता चला, जबकि वह विभाग की सबसे बड़ी कुर्सी पर चार साल से अधिक समय से बैठे हैं?चिकित्साधिकारी डॉ. सूर्यभान गुप्ता को तो सेवानिवृत्त हुए एक साल सेअधिक हो गया है। एक संयुक्त निदेशक को दो पायदान नीचे का काम देने का आकांक्षी जनपद होना है तो एक वर्ष से वह पद खाली क्यों है, जबकि सरकार की महत्वाकांक्षी योजना व नीति आयोग की आकांक्षी जनपद योजना लागू है?

ज्ञात हो कि डॉ. सुमन की सेवानिवृत्ति मेंमात्र सात-आठ माह शेष हैं तो प्राइज पोस्टिंग योजना (शासनादेश) कालाभ क्यों नहीं दिया गया? शरारतन इतनी दूर क्यों संबद्ध किया गया? क्लास वन अधिकारी को डिमोट करने व संबद्ध करने का अधिकार डायरेक्टर को है या नहीं? दूसरे, निदेशक के आदेश में कहा गया है कि आकांक्षी जनपद सिद्धार्थ नगर में चिकित्साधिकारी व वरिष्ठ चिकित्साधिकारी के बहुत पद खाली हैं तो यह उनकी बहुत बड़ी असफलता है और शासन के साथ नीति आयोग की मंशा की अवहेलना भी, जिसकी पूरी जिम्मेदारी निदेशक की बनती है। यह अत्यंत पिछड़े जनपद में पीड़ित मानवता की अनदेखी भी है तो घोर लापरवाही भी। क्यों न इस आरोप में उन पर विभागीय कार्रवाई की जाए?

2012 में सपा की सरकार बनने के बाद से एक साल तक फर्जी अनुभव प्रमाण पत्रों के माध्यम से सात राजकीय होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेजों में शिक्षक पद पर तैनाती का मामला तो सरगर्म रहा, लेकिन बाद में धीरे-धीरे धूल जमती चली गई। सदस्य विधान परिषद हृदय नारायण दीक्षित द्वारा नियम 111 के अंतर्गत पहली बार चार दिसंबर 2012 को सदन में इस बाबत नोटिस दी गई थी, फिर चार मार्च 13 को डॉ. यज्ञदत्त शर्मा, डॉ. महेंद्र कुमार सिंह, विनोद पांडेय, केदारनाथ सिंह और एमएलसी दीक्षित ने पुनः नियम-105 के तहत नोटिस दी। इसके बाद हड़बड़ी में जागी व गंभीरता का बलात् प्रदर्शन करते हुए सरकार ने दीक्षित के पहले वाले नोटिस के बारे में बयान दिया कि उक्त मुद्दे पर संयुक्त सचिव चिकित्सा शिक्षा विभाग मो. अखलाक खां की अध्यक्षता में चार सदस्यीय जांच समिति का गठन 21 फरवरी 2013 को ही किया जा चुका है।

इसके सदस्य हैं, संयुक्त निदेशक चिकित्सा शिक्षा एवं प्रशिक्षण डॉ. सुनीति राज मिश्रा और होम्योपैथी प्रो. मनोज यादव व होम्योपैथी निदेशालय के वित्त नियंत्रक भोला नाथ। चूंकि समिति बन चुकी है तो अब दूसरे नोटिस पर चर्चा का कोई मतलब नहीं है। इसके बाद सदन के पटल पर रखी गई समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि प्रदेश से बाहर के अनुभव प्रमाण-पत्र वाले होम्योपैथिक शिक्षकों की कुल संख्या 51 है। हालांकि बाद में यह बढ़कर 70 से अधिक हो गई थी। उक्त में से मात्र दो के प्रमाण-पत्र प्रदेश से बाहर के राजकीय होम्योपैथिक चिकित्सालय के हैं। शेष के प्रमाण-पत्र -पत्र निजी होम्योपैथिक विद्यालय/महाविद्यालयों के हैं। उक्त नियुक्तियां लोक सेवा आयोग द्वारा की गई थीं। आयोग द्वारा उत्तर प्रदेश राज्य होम्योपैथिक चिकित्सा महाविद्यालय (अध्यापकों की सेवा नियमावली- 1990) के नियम-8 परिशिष्ट ख में दी गई शैक्षणिक अर्हताओं के अनुरूप ही अध्यापकों के अनुभव प्रमाण-पत्र स्वीकार किए जाते हैं।

आयोग की व्यवस्थानुसार प्रमाण पत्रों को वैतनिक एवं संबंधित राज्य के निदेशक/भारतीय चिकित्सा परिषद के रजिस्ट्रार से प्रति हस्ताक्षरित होने के उपरांत ही माना जाता है। यदि किसी चयनित अभ्यर्थी की संस्तुति शासन को प्रेषित नहीं की गई हो और इसी बीच प्रमाण-पत्रों के संबंध में कोई शिकायती पत्र प्राप्त हुआ हो तो उसकी संस्तुति नियमानुसार जांचोपरांत ही शासन को प्रेषित की जाती है और यदि संस्तुति शासन को भेज दी गई है और उसके पश्चात् कोई शिकायती पत्र प्राप्त होता है तो उस पत्र को शासन को नियमानुसार आवश्यक कार्यवाही के लिए प्रेषित कर दिया जाता है। प्रदेश के सात राजकीय होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेज के प्राचार्यों द्वारा उपलब्ध कराई गई सूचना के अनुसार प्रदेश से बाहर के निजी महाविद्यालयों में यथा मध्य प्रदेश, बिहार, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा एवं पश्चिमी बंगाल के प्रदेशों के हैं, जहां जाकर जांच करना समीचीन प्रतीत नहीं होता है।

समिति द्वारा यह भी मत व्यक्त किया गया है कि ऐसा प्रतीत होता है कि विभाग में होम्योपैथी चिकित्सा सेवा संवर्ग तथा चिकित्सा शिक्षा सेवा संवर्ग में आपसी मतभेद के कारण आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं। हास्य का विषय है कि सच की तलाश करने का जिम्मा जिसे दिया जाए, वही इस तरह के घटिया तर्क देने पर उतर आए तो फिर इसे जांच समिति का नाम ही क्यों दिया जाए? क्यों न इसे लीपापोती समिति कहा जाए? ऐसी बात जो अधिकारी लिख रहा है, क्यों न उसे ही विभागीय अधिकारी होने के कारण उक्त बात के लिए दोषी मान लिया जाए? बेशर्मी बानगी देखिए कि इस बात पर शासन को कोई अफसोस नहीं हुआ कि ऐसी घटिया व दोयम दर्जे की बात सदन के पटल पर रखी जा रही है। लॉजिक देखिए, अनुभव प्रमाण-पत्र के आधार पर लोक सेवा आयोग से चयनित अधिकांश शिक्षक 15-20 वर्षों से कार्यरत हैं।

केंद्रीय होम्योपैथिक परिषद नई दिल्ली द्वारा प्रत्येक वर्ष सभी राजकीय होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेजों का निरीक्षण किया जाता है। घटिया तर्क की पराकाष्ठा देखिए, होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेजों का निरीक्षण केंद्रीय परिषद द्वारा किया जाता है। यदि कोई कमी पाई गई होती तो सूचित किया जाता। इसका अर्थ तो यही हुआ कि चूंकि जांच की जाती है तो अन्य किसी जांच या सतर्कता की जरूरत नहीं है। मतलब यदि सीए खाते जांच रहा है तो फिर आंख बंद कर ली जाए और जहां भी जो कुछ हो रहा है, होने दिया जाए और वेतन लेकर घर बैठा जाए और सारा ठीकरा सीए के सिर पर फोड़ दिया जाए। ऐसी जांच तो विधान परिषद को जहां मुंह चिढ़ाती नजर आई, वहीं विधायिका पर कार्यपालिका की श्रेष्ठता साबित करते हुए भी। जांच समिति की 26 फरवरी 13, पांच व 19 मार्च, 13 मई 2013, 10 व 29 जुलाई, छह व 16 अगस्त, तीन सितंबर 2013 को अर्थात् नौ बैठकें हुईं। यह रहस्य आज तक कोई समझ नहीं पाया कि नौ लाइन की घिसी-पिटी व रटी-रटाई रिपोर्ट के लिए नौ बैठकों में बिजली, पानी, चाय, समोसा, महंगा लंच, डीजल और समय खर्च करने की क्या जरूरत थी? ऐसी लुटी-पिटी रिपोर्ट तो नौ मिनट में ही तैयार हो सकती थी।

अपने ही जाल में फंसता दिख रहा शिकारी

इतना ही नहीं, पत्र में होम्योपैथी डायरेक्टर की नियुक्ति को ही फर्जी करार दिया गया है कि वह न अर्हता पूरी करते हैं, न योग्यता रखते हैं और न ही सीनियारिटी। साथ ही नौकरी पाने के समय लगाया गया अनुभव प्रमाण पत्र भी फर्जी है। फर्जी प्रमाण पत्र वाली सूची में क्रमांक 47 पर उनका नाम दर्ज है। दागदार रिकॉर्ड के कारण सर्विस बुक में बैड एंट्री भी कई हैं, फिर भी डीपीसी करवाकर डॉ. वर्मा को जोर-जबरदस्ती डायरेक्टर बना दिया गया था। फर्जी सर्टिफिकेट से नौकरी पाने वाले लोग प्रमोट व रिटायर होते रहे तो कुछ लोगों की मौत भी हो चुकी है। प्रोफेसर व डायरेक्टर बनकर रिटायर हो गए तो कुछ होने वाले हैं। फर्जी शिक्षक मामले की जांच अब भी चल रही है, लेकिन सरकारी मंथन गति से। अगर समय पर अन्य की तरह इस विभाग में भी कार्रवाई की गई होती तो वर्तमान डायरेक्टर कब का नप गए होते? आईजीआरएस आदि शिकायतों पर कार्रवाई हो जाए तो अब भी देर नहीं लगेगी क्योंकि पेपर ही उनके खिलाफ इतने ज्यादा हो चुके हैं।

दूसरे, जिलों में अपना मकड़जाल फैलाने के साथ ही आरोप यह भी है कि चिकित्सकों को किनारे करके या बड़ी संख्या में निदेशालय से संबद्ध करके उनके स्थान पर बाबू, फार्मासिस्ट, वार्ड ब्वॉय एवं स्वीपर से मरीज देखवा कर दवाएं बंटवाने का स्वांग करके जन सरोकारों से खेल रहे हैं। मुख्य चिकित्साधिकारी कार्यालय के बाद अबजिला होम्योपैथिक अधिकारी के कार्यालय में शासन स्तर से निलंबित लिपिक से काम कराए जाने का मामला प्रकाश में आने के बाद आयुष विभाग की प्रमुख सचिव लीना जौहरी को पत्र भेजकर शिकायत की गई थी। व्हिसिल ब्लोअर स्वास्थ्य अधिकारी धीरेंद्र सिंह ने शासन को भेजे पत्र में कहा था कि तीन बार निलंबित किए जा चुके लिपिक से जिला होम्योपैथिक अधिकारी द्वारा अपने कार्यालय में सरकारी कामकाज करायाजा रहा है।

लिपिक की मूल तैनाती चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग में है।बीते दिनों गैर जनपद हुए तबादला आदेश न मानने पर निदेशक (प्रशासन), चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवाएं डॉ. राजा गणपति आर. ने लिपिक को निलंबित कर दिया था। उस वक्त प्रकरण में निदेशक (होम्योपैथी) डॉ. वर्मा ने कहा था कि संबद्धीकरण का कोई नियम नहीं है। अगर इस तरह कार्य हो रहा है तो गलत है। प्रकरण में जिला स्तरीय अधिकारी से रिपोर्ट तलबकी जाएगी। अवैध रूप से कार्य कराने का मामला होने पर सबंधित के विरुद्ध कार्रवाई की संस्तुति की जाएगी। इतना कहने के बाद वह भूल गए।पता चला है कि संविदा पर भी भर्ती का खेल किया जा रहा है। आरोप यह भी है कि फाइलों पर जबरन साइन करने का दबाव, सस्पेंशन और बहाली का जो खेल हो रहा है, उससे एक महिला डॉक्टर उर्मिला की मृत्यु भी हो चुकी है क्योंकि बहाली के बाद भी जिला होम्योपैथिक चिकित्साधिकारी के पद पर उनकी पोस्टिंग नहीं की जा रही थी। इसी बीच हार्ट अटैक हो गया था, जबकि ऐसे ही हालात के कारण तीन की मानसिक हालत का इलाज चला कई माह तक।

दूसरी ओर, दस जिलों के चिकित्सकों ने अपने-अपने कारणों से हाईकोर्ट में याचिका लगाई तो कमही समय में खुद को ऊंट समझने वाला भी न्यायपालिका के पहाड़ के नीचे दबता नजर आया। अब किसी को बहाली का लालच देकर तो किसी को विभागीय जांच का भूत दिखाकर तो किसी को जल में रहकर मगर से बैर का जुमला सुनाकर तो किसी को ट्रांसफर रोकवाने का आश्वासन देकर मैनेज किया गया है। इसके बावजूद कई जिद्दी लोग समस्या का समाधान हाईकोर्ट से ही चाह रहे हैं। फर्जी अनुभव प्रमाण पत्र लगाकर होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेजों में जिस प्रकार करीब 70 लोगों ने लेक्चरर पद पर नियुक्ति पाई है लोक सेवा आयोग के जरिए। उसके बाद तो यही लगता है कि विभाग में बहुत बड़े पैमाने पर घालमेल है, वह भी काफी लंबे अर्से से।

ज्ञात हो कि 2012 से 17 के बीच आयोग द्वारा की गई नियुक्तियों की जांच कई साल से सीबीआई कर रही है। बीते सात साल में प्रगति यह हुई है कि सिर्फ दो एफआईआर दर्ज हो सकी हैं कार्रवाई के नाम पर। विभाग की उक्त भर्ती 2005-06 की हैं, तब सब ऐसे ही चलता था। चालू जांच में उक्त 70 नियुक्तियों को भी शामिल करने की कई बार मांग की गई है, पर कोई सुनवाई नहीं हुई। उस दौरान इस मुद्दे को सदन में भी उठाया गया था, पर केवल फार्मेलिटी ही पूरी की गई थी और सदन में गोल-मोल जवाब देकर बात आई-गई हो गई थी। डॉ. हेमलता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य के केस में दो मार्च 2016 को पारित आदेश में उच्च न्यायालय लखनऊ पीठ ने पृष्ठ 10, 11 व 12 पर डॉ. जयराम राय की जांच के संबंध में डॉ. हेमलता के एक दिसंबर 1994 से चार मार्च 98 की अवधि का अनुभव प्रमाण-पत्र फेक, फोर्ल्ड व फैब्रिकेटेड होने का संज्ञान लिया है। न्यायालय ने डॉ. रेणु महेंद्रा द्वारा मंगला कमला होम्यो मेडिकल कॉलेज श्रीनगर सीवान के प्रिंसिपल से की गई तस्दीक में कॉलेज के प्रिंसिपल ने डॉ. हेमलता के अनुभव प्रमाण पत्र को फैब्रिकेटेड और ड्यूरेशन को ओवरलैप्ड बताया है।

हास्यास्पद यह है कि उक्त कॉलेज को केंद्रीय होम्योपैथी परिषद नई दिल्ली ने मान्यता 20 जून 2002 को दी है, जबकि अनुभव प्रमाण-पत्र 1994-98 का लगाकर नौकरी पाई गई है। अगर सबकुछ ठीक-ठाक रहा तो 2025 में होम्योपैथी निदेशक भी बन जाएंगी वह। इससे पहले जनपद एटा में संविदा पर नियुक्ति पाने के लिए चयन समिति के सामने कहा था कि वह लखनऊ में रहकर प्रैक्टिस कर रही हैं। 10 साल पहले शादी हुई थी व उनके पति रायबरेली में पोस्टेड थे। कहीं उन्होंने जिक्र नहीं किया कि सीवान का चार साल का अनुभव भी है। सरकारी शिक्षक बनने के लिए रिपर्टरी विषय के डिमांस्ट्रेटर के अनुभव प्रमाण-पत्र में भी उन्होंने रिपर्टनी लिखा है। इससे स्वतः परिलक्षित होता है कि अनुभव प्रमाण-पत्र कूटरचित है।

दूसरे, प्राचार्य डॉ. एमसी चौधरी द्वारा हस्ताक्षरित शिक्षकों की लिस्ट में उनका कहीं नाम नहीं है। तीसरे, वेतनमान व मानदेय दर्ज होना जरूरी होता है ताकि भविष्य में कोई कोर्ट में दावा ठोकने में कहीं लाभ न उठा ले, जो कि नहीं है। अतः प्रथम दृष्ट्या ही फर्जी साबित होता है। संयुक्त सचिव चिकित्सा शिक्षा यशवंत राव की जांच रिपोर्ट भी इसी की पुष्टि करती है। यद्यपि उच्च न्यायालय ने संदर्भित रिट में पारित आदेश में डॉ. जयराम राय की रिपोर्ट पर डॉ. हेमलता पर कार्रवाई का आदेश दिया है। इसके बावजूद वह जोड़-तोड़ से पद पर जमी हुई हैं।

प्रमोशन पाकर तीन वर्षों से राजकीय होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेज इलाहाबाद की प्राचार्य हैं और डॉ. वर्मा के 2025 में रिटायर होने पर सीनियर डायरेक्टर के नंबर पर हैं। डॉ. सुमन रहेजा, डॉ. अख्तर जहां, डॉ. संगीता, डॉ. अल्का कपिल, डॉ. श्वेता यादव, डॉ. उमंग भूषण सिंह, डॉ. मनीष कुमार सिंह व डॉ. सुरेश गोंड के मामले में भी निदेशक व विभाग की पहले ही विभिन्न मुद्दों पर काफी किरकिरी हो चुकी है।

मुंह की खाई : स्थानांतरण के साइड इफेक्ट

निःसंदेह सरकार जो कहती है, उसका पालन किया जाना चाहिए। प्रत्येक सरकारी कर्मचारी को कार्यक्रम को सर्वोत्तम तरीके से लागू करना चाहिए। बीच सत्र में थोक के भाव (करीब डेढ़ दर्जन) ट्रांसफर निदेशक द्वारा किए गए हैं और वे सभी वर्ग क और दो के अधिकारी हैं। सूची के अध्ययन से दो बातें निकलकर आती हैं। एक परेशान करने के लिए ट्रांसफर किए गए और सस्पेंशन का ड्रामा कर निदेशालय अटैच करने के लिए। किसी कार्मिक का ट्रांसफर पनिशमेंट के रूप में आंका जा सकता है, पर सस्पेंशन के बारे में न्यायालय का मंतव्य साफ रहा है कि सस्पेंशन इस नो पनिशमेंट। ऐसी दशा में सस्पेंड कार्मिक को आरोप पत्र दिया जाता है, समय देकर जवाब मांगा जाता है। जांच में दोषी सिद्ध होने पर गंभीर मामलों में बृहद शास्ति का शासनादेश है। लघु शास्ति में जहां यथा वार्षिक इंक्रीमेंट आदि रोक कर सजा दी जाती है, वहीं बृहद शास्ति के तहत पदावनति आदि आती है या जबरन रिटायरमेंट भी।

डायरेक्टर ने संयुक्त निदेशक व सीएमएस को अकारण दो-दो स्तर की पदावनति दे दी, जबकिन कारण बताओ नोटिस जारी किया गया और न ही सफाई का मौका दिया गया? इस अनाधिकार कृत्य से उम्र के 59वें व 60वें साल में चल रहे लोग तनाव में आ गए, इलाज भी कराए व परिवार भी परेशान रहा व तनाव में भी। परेशान कार्मिकों की ओर से रिट में विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस (11 अक्टूबर) के मौके पर जारी विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट काभी हवाला दिया गया है। इसमें कहा गया है कि काम पर तनाव से 1200 करोड़ कामकाजी दिवस बर्बाद होते हैं, जिसका बुरा प्रभाव अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है।

अकेले डिप्रेशन और एंजाइटी के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को सालाना लगभग एक ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान होता है। अगर लक्षद्वीप जाकर मरीजों को देखने के लिए कहा जाए तो उसका भी पालन करना होगा, लेकिन शासन की मंशा पर पहला कुठाराघात करने का मामला निदेशक पर ही बनता है। सरकार द्वारा कार्मिकों को आर्थिक, सामाजिक, मानसिक स्वास्थ्य व परिवार के भरण-पोषण की बेहतरी वास्ते समय-समय पर दी जाने वाली शासकीय व्यवस्थाओं पर चोट है यह फालतू की कवायद। क्यों न इसे लोकप्रिय सरकार की छवि धूमिल करने व कार्मिकों को मानसिक तनाव देकर अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने के षड़यंत्र के रूप में इसे देखा जाए? मद में जो ताजा शासनादेशों को भूल गया, भला वह 2007 के पुराने शासनादेश को क्या याद रखेगा, जिसमें कहा गया था कि शासन के संज्ञान में यह तथ्य लाया गया है कि स्थानांतरण नीति के विपरीत अनेकों चिकित्साधिकारी गृह जनपद में तैनात किए गए हैं।

समीक्षा के दौरान विभागीय मंत्री ने मामले पर गंभीरता दिखाते हुए निदेशक होम्योपैथ को निर्देश दिया था कि जिन्हें भी शासन की मंशा के विपरीत नियुक्ति दी गई है, उन्हें तुरंत स्थानांतरित किया जाए। साथ ही सूची भी शासन को भेजा जाए। यह भी निर्देश दिए गए थे कि किसी भी अधिकारी व कर्मचारी का संबद्धीकरण न किया जाए। यदि कार्य या जनहित में यह जरूरी हो तो समुचित प्रस्ताव बनाकर शासन को प्रस्तुत किया जाए। शासन के निर्णय के बाद ही आगे की कार्यवाही की जा सकेगी। साथ ही सभी संबद्धीकरण को तत्काल समाप्त किया जाए और कृत कार्यवाही से अवगत भी कराया जाए।

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