सूबे में चरम पर है भ्रष्टाचार

पठार की खासियत कहें या मिट्टी की कि खेती चाहे जितनी हो, पर बिना पानी पैदा होने वाली सिर्फ जौ, चना व सरसों जैसी ही फसलें होती हैं। अन्य फसलें होती हैं, पर उतने ही हिस्से पर, जो समतल होता है। कभी-कभी तो साल में एक ही फसल ले पाते हैं किसान, क्योंकि सिंचाई के साधन की बहुत कमी है। यदि उत्तराखंड की पहाड़ी ढलानों पर धान की खेती से लोग कुछ सीख सकें तो अन्य फसलें यहां भी लहलहा सकती हैं। प्राथमिक शिक्षा गांव से हुई और हाईस्कूल ब्लॉक स्तर तिंदवारी व माध्यमिक तक जिला मुख्यालय में की। कहना न होगा कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात।

बांदा जैसे पिछड़े व पठारी जिले में आर्थिक, पारिवारिक, भौगोलिक व सामाजिक परिस्थितियों के मद्देनजर सत्ता व शक्ति का सपना देखना आम बात है। हजारों बच्चे शरीर पर वर्दी व कंधे पर स्टार का भी सपना देखते हैं, लेकिन यह सब बातें आज के दौर की हैं, न कि 60-70 के दशक की। यह वह दौर था, जब पुलिस का नियुक्ति पत्र आने के बाद भी घरवाले फाड़कर फेंक देते थे या ज्वॉइन करने बलात् नहीं जाने देते थे, क्योंकि दुर्दात दस्युओं के डर से सूर्यदेव के अपने घर जाने के पहले ही अपने घर के अंदर दुबक जाते थे बुंदेलखंड के लाखों लोग।

इतना ही नहीं, रात में घोड़े बेचकर सोने के बजाय ज्यादा ध्यान बाहर डाकुओं के घोडों की टाप की आहट और हिनहिनाहट पर ही केंद्रित रहता था। बात हो रही है उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे के पूर्व डीजीपी, आईआईटी रुड़की व दिल्ली से बीटेक एवं एमटेक करने के बाद देश की सबसे बड़ी परीक्षा यूपीएससी पास कर महज 23 साल की उम्र में 1980 में आईपीएस बने सुलखान सिंह की। इनकी प्रतिभा व हौसले के साथ पिता लाखन सिंह की आला सोच को भी सैल्यूट बनता है, जिन्होंने कम आमदनी के बावजूद एक किसान होकर उस दौर में बीटेक व दिल्ली जैसे महंगे शहर से एमटेक कराया।

पठार की खासियत कहें या मिट्टी की कि खेती चाहे जितनी हो, पर बिना पानी पैदा होने वाली सिर्फ जौ, चना व सरसों जैसी ही फसलें होती हैं। अन्य फसलें होती हैं, पर उतने ही हिस्से पर, जो समतल होता है। कभी-कभी तो साल में एक ही फसल ले पाते हैं किसान, क्योंकि सिंचाई के साधन की बहुत कमी है। यदि उत्तराखंड की पहाड़ी ढलानों पर धान की खेती से लोग कुछ सीख सकें तो अन्य फसलें यहां भी लहलहा सकती हैं। प्राथमिक शिक्षा गांव से हुई और हाईस्कूल ब्लॉक स्तर तिंदवारी व माध्यमिक तक जिला मुख्यालय में की। कहना न होगा कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात।

यही देखकर फिर आगे का रास्ता बनता चला गया, के होत चीकने पात। दरअसल निवेश चाहे बाजार में हो, व्यापार में हो या फिर परिवार में, हमेशा नतीजे देखकर के ही करने की समाज में परंपरा सी रही है। फिर क्या था, चार भाइयों में सबसे बड़े अपने लाडले बेटे को आगे बढ़ाने के लिए पिता ने त्याग की परिधि और तपस्या की अवधि बढ़ा दी तो जिले के अपेक्षाकृत काफी बड़े गांव जौहरपुर के एक साधारण से प्रतिभाशाली बेटे ने भी न कभी निराश किया और न ही कभी पीछे मुड़कर देखा ?

दृष्टांत मीडिया के साप्ताहिक कार्यक्रम “जवाब चाहिए” में आईआईएम के निकट स्थित स्टूडियो में आए उत्तर प्रदेष के पूर्व पुलिस महानिदेषक ने अपनी जिंदगी के कुछ अनछुए पहलुओं को भी छुआ और तकरीबन सभी मुद्दों पर बेबाक और बेखौफ बोले। लंबे अर्से से बेबाकी ही उनकी यूएसपी रही है। याद होगा कि कुछ तकनीकी बिंदु के कारण अपनी नियुक्ति तक को अवैध बताकर खुद में एक नजीर बने इस अधिकारी में दूसरी पारी में न कुछ पाने की ललक दिखी और न कुछ जाने का डर।

इससे परे होकर बांदा का यह बेखौफ बंदा मुख्यमंत्री, नियुक्ति, पुलिसिंग, एनकाउंटर, शादी व पारिवारिक पृष्ठभूमि, विभागीय से आगे के संस्थागत भ्रष्टाचार, कानून-व्यवस्था और बुंदेलखंड के पिछड़ेपन पर 67 साल की उम्र में भी शेर की तरह दहाड़ा व खुलकर कहा कि बहुत बड़े प्रोजेक्ट सिर्फ मोटे कमीशन के लिए ही बनाए जाते हैं। निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से निकलकर एक शख्स डीजीपी तक का सफर तय करता है तो निश्चित तौर पर इसे अगन, लगन, चिंतन, मनन और मंथन का ही नतीजा कहा जाएगा। वह बोले कि दर्जा आठ तक पढ़ाई गांव के ही सरकारी जूनियर हाईस्कूल में की।

स्कूल में बिल्डिंग भी नहीं थी। बाबा बजरंगबली के चबूतरे में बैठकर पढ़ाई की थी। शिक्षकों की मेहनत और फर्ज के प्रति ईमानदारी बेमिसाल थी। कई मायनों में वह पिता से बढ़कर थे। पिता खुद जाकर बोल आते थे कि ठोके पीटे रहना और फिर खूब सुताई होती थी। इसी का नतीजा था कि सिर्फ वही पढ़ने आते थे, जो पढ़ना चाहते थे। गांव से ब्लॉक, फिर बांदा होते हुए रुड़की पहुंचे, फिर आईआईटी दिल्ली। पहले अटेम्ट में आईपीएस बनने का श्रेय वह बेसिक, जूनियर, हाईस्कूल और इंटर की पढ़ाई को देते रहे हैं, क्योंकि उन शिक्षकों ने गणित व विज्ञान आदि में जो कुछ सिखा दिया था।

वह आज रिटायर होने के बाद भी ताजा है। उन शिक्षकों को आज भी याद करता हूं और पिटाई पर मुस्कुराता हूं। टेक्नोक्रेसी के जरिये ब्यूरोक्रेसी के सफर पर निकलने के बारे में उन्होंने कहा कि आईआईटी पहुंचे तब भी किसी तरह की कहीं कोई कमजोरी या कॉम्प्लेक्स के चक्कर में नहीं पड़े। अपनी धुन में लगे रहे। बीई थर्ड ईयर तक तो बहुत कुछ जानते भी नहीं थे और न ही कोई रुचि थी। इंजीनियरिंग में एडमिशन के सवाल पर कहा कि हम बहुत पिछड़े इलाके से हैं। एक मित्र पुराना प्रोस्पेक्टस कहीं से उठा लाए थे, जिसे देख अप्लाई कर दिया था। हो गया तो फिर बात आगे बढ़ गई। यह इमरजेंसी का दौर था।

उसी दौरान 1978 में जावेद उस्मानी ने आईएएस में टॉप किया था तो उनकी तस्वीर अखबारों से लेकर कंपटीशन की पुस्तकों तक छाई हुई थी। कंपटीशन सक्सेस रिव्यू में तस्वीर देख दोस्तों में चर्चा हुई कि हम लोग को भी सिविल सर्विसेस में कंपीट करना चाहिए और पब्लिक सर्विस करनी चाहिए। न कोई बताने वाला था और न ही यूपीएससी के बारे में कोई गाइड करने वाला। उसी साल इंजीनियरिंग के जरिए रेलवे में हो गया था और फिर आईपीएस। सफलता का श्रेय वह माता-पिता व गुरुजनों की मेहनत के अलावा धर्मपत्नी को भी देते हैं।

इंटर का एग्जाम देने के बाद ही शादी हो गई थी और फिर तुरंत इंजीनियरिंग के लिए रुड़की चला गया था इसलिए कहा जा सकता है कि कुछ उनके भी भाग्य का फायदा जरूर मिला। भीषण अर्थयुग में भी सेवाकाल के दौरान ईमानदारी लाजवाब तो इस उम्र में भी कुछ कर गुजरने की तमन्ना भी लाजवाब। काजल की कोठरी में करीब 37 साल तक नौकरी करने के बाद भी बेदाग निकलने के बाद राजनीति में कदम रख अपनी माटी के लिए पार्टी के जरिए कुछ करने के लिए सोचा और बुंदेलखंड लोकतांत्रिक पार्टी का गठन किया।

हालांकि यह पार्टी कम, एक सामाजिक संगठन की तरह ज्यादा काम कर रहा है। यह दीगर बात है कि इसके बैनर तले कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं चलाया जा सका है और न ही बुंदेलखंड से अपेक्षित सहयोग ही मिला है। उन्होंने कहा कि गांव में तो कमोबेश सारे लोग हमारे जैसे ही दिखते थे, पर पढ़ाई के सिलसिले में जब बांदा की दुनिया से आगे निकल कर रुड़की, मेरठ, मुजफरनगर और दिल्ली पहुंचे व घूमे तो देखा कि विकास किसे कहते हैं? यहां का विकास बांदा के विकास से कहीं आगे था और कुछ-कुछ मेल खाता था पूर्व प्रधानमंत्रियों के भाषण से। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कृषि, बाजार व व्यापार देखा तब पता चला कि कहां प्रदेश का यह कोना और कहां हमारा बुंदेलखंड?

50 साल में बुंदेलखंड और पीछे चला गया है। देश आजाद होता है। बंटवारा होता है। देश में भीषण रक्तपात होता है। पं. जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बनते हैं और लाल किले के प्राचीर से नारा देते हैं कि देश को विकास के रास्ते पर लेकर जाऊंगा। तरह-तरह की योजनाएं बनाई जाती हैं, पर कहते हैं कि उनका कोई खास सीधा लाभ बुंदेलखंड को नहीं मिला। वह पीछे कैसे छूट गया, इसके बारे में जवाबदेही किसकी है? इसके लिए वह शत-प्रतिशत दोनों राज्य के नेताओं को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं कि 1956 तक सब ठीक था।

बुंदेलखंड खुद एक राज्य था, पर जबसे राज्य पुनर्गठनआयोग बना और राजा चरखारी व पं. जवाहर लाल नेहरू की किसी बात पर अनबन हुई, तब से बुरा दौर शुरू हो गया था। नतीजतन मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश में आधा-आधा बांट दिया गया, तब से दिन पर दिन और साल दर साल हालात खराब होते ही चले जा रहे हैं। इसी बात का सर्वाधिक फायदा दस्युओं ने उठाया। बाद में जब एक होकर समन्वय के साथ कार्रवाई की गई, तब सफलता मिली। विकास के लिए भी उसी समन्वय और समिन्वित नीति की बुंदेलखंड को अनिवार्य जरूरत है।

बुंदेलखंड कीसमस्या का एकमात्र हल पृथक बुंदेलखंड ही है। सबसे बड़ी गलती उस समय कुछ लोगों ने की थी, पर अब दिवंगत हैं क्यों नाम लेकर आक्षेप लगाया जाए? हैरत इस बात पर होती है कि इसके बाद 65 साल हो चुके हैं और अभी तक किसी ने समन्वित विकास की सुध ही नहीं ली। पं. जवाहर नेहरू के अहम को ठेस न लगती तो बुंदेलखंड राज्य बना रहता और दो हिस्सों में न बांटा जाता। सीमांत समझ कर मध्य प्रदेश सरकार भी उपेक्षा करती है और उत्तर प्रदेश सरकार भी ध्यान नहीं देती रही है इसीलिए बुंदेलखंड के विकास में सफलता नहीं मिली है अभी तक।

सात जिले एमपी के व इतने ही यूपी के, जब इन्हें मिलाकर बुंदेलखंड गठित होगा, तभी समग्र विकास की कल्पना की जा सकती है। रेवेन्यू देने में बुंदेलखंड किसी से बहुत पीछे नहीं है। वहां के तो बालू, मौरंग व पत्थर तक रेवेन्यू दे रहे हैं सरकार को। बस, इच्छाशक्ति का अभाव है। पहला उदाहरण है इंदिरा गांधी के जमाने में शुरू की गई पाठा परियोजना, जो कि ध्वस्त हो गई है। पानी की टंकियां हैं, पानी व नल गायब हैं। कुछ इस तरह पहुंच रहा है हर घर तक नल से जल। बुंदेलखंड में विकास के नाम पर केवल लूट मची हुई है।

करोड़ों-अरबों का बजट ठिकाने लगाया जा रहा है। दूसरा उदाहरण है, सांसदी के दौरान नैनी में फिल्म अभिनेता अभिताभ बच्चन द्वारा प्रधानमंत्री राजीव गांधी से शुरू कराए गए इंडस्ट्रियल एरिया में बहुत से बड़े-बड़े कारखाने, जो कि अब बंद हो गए हैं। तीसरे, वेल इंडस्ट्रियलाइज्ड नोएडा की बात कर लेते हैं। वहां भी हालत पतली है, वसूली गैंग चल रहा है। कमाने के बाद उद्योंगों पर प्रतिशत बंधा है गुंडाटैक्स के नाम पर। नेताओं को हिस्सा दिए बिना कोई काम नहीं हो रहा है। कुख्यात सरिया गैंग का आतंक अलग चल रहा है। खराब कानून-व्यवस्था प्रदेश में उद्योगों को पनपने नहीं दे रही है, उनके विकास में बाधक बनी हुई है।

बेहतर कानून-व्यवस्था तो केवल दावा भर है। चंद बदमाशों को मारकर दावा नहीं किया जा सकता है कि कानून व व्यवस्थाकी स्थिति प्रदेश में अच्छी है। कई मायनों में यह अखिलेश सरकार से भी खराब है इसीलिए बड़ी कंपनियां नहीं आ रही हैं। खराब लॉ एंड ऑर्डर का उदाहरण है एक मंत्री द्वारा सीजेएम के हाथ से फैसला छीनकर भाग जाना। दूसरे फैसले में भी उसे सजा होती है, फिर भी मंत्रिपरिषद में बना हुआ है। जीरो टॉलरेंस किसे कहते हैं, यह शोध का विषय है? 2019 में यूपीपीसीएल में 4300 करोड़ से अधिक का पीएफ घोटाला हुआ था।

जांच सीबीआई को सौंपी गई थी, जिसमें पाया गया था कि उक्त रकम का 99 फीसदी हिस्सा सिर्फ डीएचएफएल (दीवान हाउसिंग फाइनेंस कंपनी) में लगाया गया था, जिस पर पहले ही घपले व घोटाले के कई केस चल रहे हैं। एमडी स्तर के तीन आईएएस के खिलाफ सीबीआई ने जांच व पूछताछ की अनुमति मांगी थी, लेकिन आज तक मिली नहीं है और जीएम व अन्य स्तर के तीन अधिकारी जेल की सजा काट रहे हैं, जबकि नीचे वालों ने वही किया होगा, जो ऊपर वालों ने कहा होगा। तंज कसते हैं कि उम्मीद थी कि रिटायर होने के बाद सरकार आदेश दे देगी, पर ऐसा नहीं हो सका और तीन में से दो रिटायर हो गए।

एक आईएएस, जो अभी सेवा में हैं, उनके पति आंध्र प्रदेश के सैकड़ों करोड़ के स्किल डेवलपमेंट घोटाले में गिरफ्तार हुए थे और यूपी की इस आईएएस से भी कई बार पूछताछ हुई थी। एक उपजिलाधिकारी ने बहुत सी जमीनें घरवालों के नाम कर दीं, पर कुछ नहीं हुआ। इसी प्रकार दर्जनों अधिकारियों के खिलाफ अनुमति न मिलने के कारण जांच ही नहीं शुरू हो सकी है। कथनी-करनी में फर्क मिटाने से ही प्रदेश का भला हो सकता है और कानून व्यवस्था बेहतर हो सकती है, क्योंकि उद्योगों के फूलने-फलने के लिए पाक-साफ दामन बहुत जरूरी है। कोई भी आदमी बिना इन लोगों को पैसा दिए काम नहीं शुरू कर सकता है सूबे में।

कई अधिकारी खुलेआम लूट और भ्रष्टाचार में हैं लिप्त हैं। उद्योग लगाने के लिए भी पैसे देने पड़ रहे हैं। उद्योगपतियों व व्यापारियों का उत्पीड़न बढ़ा है इसीलिए नया इनवेस्टमेंट नहीं आ रहा है। इनवेस्टर समिट के बारे में पूछने पर कहा कि जो कुछ लिखता हूं, मीडिया उसे छापता नहीं है। लखनऊ ही नहीं, बल्कि प्रदेश में हजारों खंभों पर लाखों की लागत से बिजली की झालर लपेटी गई है। लाखों रुपये के होर्डिंग, टेंट, टैक्सी व विज्ञापन जारी किए जाते हैं हर बार। साथ ही लाखों की लागत से सैकड़ों खंभों पर ई-तिलती लगाई गई हैं। अब यही ई-तितली को लखनऊ से लेकर प्रयागराज तक हजारों खंभों पर लगाने की तैयारी की गई है।

कुल मिलाकर मामला करोड़ों का है। लाख टके का सवाल है कि लाखों करोड़ के एमओयू के बाद धरातल पर कितने उद्योग लग रहे हैं और कितनों को रोजगार मिल रहा है? उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री रहे अखिलेश यादव के टाइम पर राजधानी लखनऊ के चक गंजरिया फार्म की सैकड़ों एकड़ जमीन उद्योगों को दी गई थी। कुछ लोगों ने कंस्ट्रक्शन भी शुरू किया। अब 10 साल से अधिक हो गए हैं, कितने उद्योग लगे? 40-40 लाख रुपये में सीएमओ की कुर्सी बेचने व इनवेस्टर समिट के नाम पर हो रहे खेल के सवालों का वह जवाब दे रहे थे। वह बोले कि पुलिस के काम के लिए कुछ साल पहले ग्राम समाज की जमीन जिला प्रशासन की मंजूरी से ली थी।

रेवेन्यू बोर्ड के मेंबर ने भ्रष्टाचारियों के साथ मिलकर फर्जी मालिक खड़े करके उसे एक माफिया के नाम पर कर दिया था। भला यह कैसे संभव हो सकता है? हम हारते तो जमीन ग्राम समाज को जानी चाहिए थी। वह इसे दुस्साहसिक फैसला करार देते हैं। रिजीवन दाखिल हुआ काफी दिनों तक रिवीजन दबाए बैठे रहे दूसरे सदस्य। बाद में काफी थू-थू के बाद पुराना आदेश खारिज हो गया था। बुंदेलखंड में सोलर पॉवर प्लांट हब के सवाल पर कहा कि जब कोई बड़ी कंपनी आने का साहस करेगी, तब ही कुछ संभव हो सकेगा। व्यापार व उद्योग अशांति के साथ पनप नहीं सकते। दो-दो मंत्री जहां आपस में गोली चलाएं और जहां मंत्री जाकर के ठेकेदार का काम रूकवा दे, बाद में कमीशन मिलते ही सारी शिकायतें काफूर हो जाएं, वहां कौन आएगा पैसा लगाने?

एकगन्ना मिल में मजदूर मर गया तो सीधे जनरल मैनेजर के खिलाफ मुकदमा कायम करा दिया। ऐसा कैसे चलेगा? एफआईआर तो भ्रष्टाचार का जरिया है। पीलीभीत में मेनका गांधी को एक रुपए में जमीन दी गई थी, जिसकी सीबीआई जांच होती है। रिपोर्ट आज तक पेंडिंग है। जमीन देने वाला उत्तर प्रदेश का मुख्य सचिव बन गया। ये तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की जीरो टॉलरेंस को पलीता लगाने जैसा है। ऐसा आदमी कैसे उनकी नाक के नीचे बैठता होगा? इस पर कहते हैं कि कोई संपर्क नहीं है तो कैसे कहूं कि कैसे एक-दूसरे को फेस करते होंगे? ह

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