राजकोष के लुटेरे

संजय राजन

सोचिए, कैसी मजबूरी होगी कि पुलिस से शिकायत भी नहीं कर सकते। अगर कहीं सड़क किनारे झाड़ी में एयर या ट्रॉली बैग पड़ा हुआ मिल भी जाए तो यही कहना पडेगा कि मेरा नहीं है? चोर की धारणा की पवित्रता भी प्रणम्य है कि चोर का धन चुराने में कतई पाप नहीं लगता। हालांकि अयोध्या धनशोधन (मनी लांडरिंग) मामले में आयकर विभाग अभी चोरों के नामों के खुलासे के मूड में नहीं है, लेकिन कई बड़े जिलों के डीएम, विकास प्राधिकरणों के उपाध्यक्षों व आवास आयुक्तों को पत्र लिखकर 2008 से 24 तक की बड़ी रजिस्ट्री का रिकॉर्ड मांगा गया है।

किसी भी मुख्यमंत्री या शासनाध्यक्ष के आंख, कान, नाक व हाथ ब्यूरोक्रेसी होती है इसलिए सर्वप्रथम प्राथमिकताओं से उसे ही अवगत कराने की परंपरा रही है। लीक छोड़ चलने वाले आंख अपनी रखते हैं तो हाथ ब्यूरोक्रेसी को बनाते हैं, पर तंत्रिका तंत्र का कान व नाक जैसा सिस्टम अलग से विकसित करते हैं ताकि सभी खोल में रहें और कोई भी हद न पार करने पाए। दृष्टांत न्यूज स्टूडियो में दिए गए एक इंटरव्यू में पूर्व डीजीपी सुलखान सिंह ने भी इसी बात पर जोर दिया था और कहा था कि किसी को भी किसी पर पूरी तरह निर्भर रहना नाकामी की ओर ले जाएगा। फीडबैक के लिए फील्ड में जाना होगा या लोगों से मिलना होगा। अलग से तंत्र विकसित करना होगा।

सत्ता के पहले साल 2017 में ही सीएम ने लॉ एंड ऑर्डर, एक्सप्रेस-वे, एयर कनेक्टिविटी, वन ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी, निर्यात, महाकुंभ, नमामि गंगे, सूबा नंबर वन अभियान व धर्मस्थलों का कॉरिडोर आदि के जरिए विकास की प्राथमिकताएं स्पष्ट कर दी थीं। इसके बाद ब्यूरोक्रेसी के कुछ लोग उन्हें पूरा करने में लग गए तो कुछ रस निचोड़ने में तो कुछ नए-नए शिगूफे छोड़ने में। कुछ ने प्राथमिकताओं से व्यभिचार का रास्ता चुना तो कुछ ने पलीता लगाने का तो कुछ ने प्राथमिकताओं की प्राथमिकता से हत्या का। अयोध्या धाम को विकसित करना प्राथमिकता में था और है तो भ्रूण (फाइल) को सूंघकर लाव-लश्कर व काली कमाई के साथ अधिकांश शातिर परिजन व रिश्तेदारों सहित उधर का ही रुख कर लिए थे।

चंद साल में वहां के दलाल तक लंबी गाड़ियों से चलने लगे, जिन्होंने अधिकारियों के लिए धरातल पर उम्दा बैटिंग करते हुए चट मंगनी और पट ब्याह की तर्ज पर रकम लगवाई व दो-तीन साल में ही बिजनेस टाईकूनको प्रॉपर्टी बेंचकर दो-तीन गुना करवा दी। उक्त निवेश के बारे में यह हम नहीं कह रहे हैं, बल्कि आयकर विभाग ने कहा है। विभाग को सरयू तीरे प्रभु श्रीराम के चरणों के इर्द-गिर्द हजार वर्ग मीटर से बड़े प्लॉट खरीदने में कई बड़े नामों के बारे में पता चला है। अगर कोई यह कहेगा कि इसमें डेमोक्रेट, ब्यूरोक्रेट, टेक्नोक्रेट, हिप्पोक्रेट, अरिस्टोक्रेट व जुडीसियोक्रेट का पैसा लगा है तो उसे इडियोक्रेट ही कहा जाएगा क्योंकि सारी कवायद आयकर विभाग की बेनामी संपत्ति इकाई कर रही है।

प्रायः सेवाकाल में कोई भी नामचीन अपने नाम से बड़ी संपत्ति खरीदने से बचता है। हालांकि अधिकांश इस क्रम में भूल जाते हैं कि पूत कपूत तो का धन संचै, पूत सपूत तो का धन संचै। एक और बात कम से कम एक या अधिकतम दो बच्चे होते हैं। एक अमेरिका की सिलिकॉन वैली में तो दूसरा बेंगलुरू की। इसके बावजूद बुढ़ापे में नौकरों के सहारे कफन में जेब सिलवाने में लगे रहते हैं बेचारे, क्योंकि बच्चे सिर्फ वीडियोकॉल पर ही उपलब्ध रहते हैं। भले ही सेवा समाप्त होने के बाद घर से 50 करोड़ नौकर ही साइकिल पर लादकर भाग जाए। सोचिए, कैसी मजबूरी होगी कि पुलिस से शिकायत भी नहीं कर सकते। अगर कहीं सड़क किनारे झाड़ी में एयर या ट्रॉली बैग पड़ा हुआ मिल भी जाए तो यही कहना पडेगा कि मेरा नहीं है? चोर की धारणा की पवित्रता भी प्रणम्य है कि चोर का धन चुराने में कतई पाप नहीं लगता।

हालांकि अयोध्या धनशोधन (मनी लांडरिंग) मामले में आयकर विभाग अभी चोरों के नामों के खुलासे के मूड में नहीं है, लेकिन कई बड़े जिलों के डीएम, विकास प्राधिकरणों के उपाध्यक्षों व आवास आयुक्तों को पत्र लिखकर 2008 से 24 तक की बड़ी रजिस्ट्री का रिकॉर्ड मांगा गया है। शुरुआती जांच का नतीजा निकालें तो यही लगता है कि प्राथमिकताओं का लाभ उठाने में लगे हैं अधिकांश लोग। नाम तो खुलेंगे, भले थोड़ा और टाइम लग जाए और रिटायरमेंट के बाद खुलें। इस क्रम में पवित्र सरयू के थाले के कई तालाब कम समय में ही विलीन हो गए। एक बड़े बाबा, ऐसे ही एक ताल किनारे बड़ा वाला कॉलेज बनवा रहे हैं। ठेकेदार के कारिंदे न जाने किसके आदेश पर रोज बचा खुचा मलबा तालाब में धकेल कर उसे पाट रहे हैं?

शक होता है, कहीं यह कोई युक्ति तो नहीं, जबकि नौसिखिया नक्शा नवीस भी तालाब को योजना में स्वीमिंग पूल का शेप दे सकता है और उसे बड़े परिसर के जरूरी हिस्से के रूप में अंगीकार कर सकता है? इस लिस्ट में उच्चस्थ लॉ एंड ऑर्डर को भी कुछ लोग अपने-अपने ढंग से कैश कराने में लगे हुए हैं कई साल से तो कई पलीता लगाने में तो कई बखिया उधेड़ने में। कम बजट होने के कारण चूंकि बहुतायत में कमाई की कमी है तो लॉ एंड ऑर्डर पर कम ही ध्यान देने की परंपरा रही है, क्योंकि हजार करोड़ का कोई प्रोजेक्ट बनाने की गुंजाइश कम है। पैसे खर्च करके कानून को कोई खरीद सकता है, पर व्यवस्था को नहीं।

हरित व धार्मिक महत्व के करीब आधा दर्जन कॉरिडोर, जिनमें से अधिकांश पर काम चल रहा है, नमामि गंगे, गंगा आदि एक्सप्रेस-वे, टियर टू शहरों के लिए एयर कनेक्टिविटी और सूबा नंबर वन अभियान का भी यही हश्र न हो इसलिए चेक एंड बैलेंस के सिद्धांत को एक भी दिन के लिए बिसराने की जरूरत नहीं है। इसी क्रम में हरदोई-सीतापुर रिंग रोड को इमामबाड़ा से जोड़ने वाले गोमती नदी के तटबंध (पक्की फोर लेन) की बात करें तो इसका नाम है ग्रीन कॉरिडोर। जॉगर्स पार्क से चंद सौ कदम की दूरी पर इसी के किनारे अटल राष्ट्रीय प्रेरणा स्थल के रूप में एशिया का दूसरा सबसे बड़ा पार्क 73 एकड़ में बन रहा है सौ करोड़ से ज्यादा की लागत से। दोनों पार्क को मिलाकर देखा जाए तो यह करीब सौ एकड़ होगा। इसमें ओपन एयर थिएटर, योगा सेंटर, भाजपा के त्रिचिंतक (खेवनहार) की 63 फीट ऊंची मूर्तियां, कैफेटेरिया, म्यूजियम, हेलीपैड और करोड़ की लागत वाले शौचालय ब्लॉक भी हैं।

एशिया का पहले नंबर का पार्क सपा की सरकार में 370 एकड़ में जनेश्वर मिश्र के नाम से बना था। इस सिलसिले में आलाधिकारियों का पहली, दूसरी और चौथी बार इधर आना हुआ तो यहदेखकर शैतानी दिमाग नाचने लगा कि बगल से निकल रहे पथ का नाम है ग्रीन कॉरिडोर और ग्रीन के नाम पर पेड़-पौधे छोड़िए घास का तिनकातक नहीं है। अब कई किमी में ग्रीनरी के नाम पर घास उगाने का लाखों का ठेका दिया गया है। 20-30 फीट ऊंची व सात-आठ किमी लंबी फोर लेन रोड की ढलान पर ऊपर से पचासों डंपर मिट्टी गिराई गई है। अगर तूफान फेंगल ने दिल्ली जितनी बारिश इधर भी डाल दी होती तो मिट्टी को बहने व दोपहिया वाहन सवारों को गिरने में दो मिनट भी नहीं लगते।

दावा है कि ढलान पर डाली गई सूखी मिट्टी को रोकने की कला विभाग के बड़े कलाकार के अलावा कोई नहीं बता पाएगा पूरे प्रदेश में। बताया जा रहा है कि अब इसी पर लाखों की लागत से घास उगाई जाएगी और पौधों की रोपाई होगी। डिवाइडर की घास महीने भर से छीली जा रही थी। अब एक ओर से फूलों के व सजावटी पौधे खोंसे जा रहे हैं तो दूसरी ओर से चोरी हो रहे हैं। उद्देश्य यही होगा कि इसे वाकई नामानुरूप बनाया जा सके। अभी जो घास थी, वह जंगली थी और सूख भी गई थी, सो ऊपर से मिट्टी डालकर ढकी जा रही है।

बोला था कि दिमाग इधर भी कम नहीं है, सो हुजूर की सेवा में पेश है एक बानगी- सूखी मिट्टी ऐसे तो रुकेगी नहीं, सो पहले उस पर एक हजार रुपए प्रति वर्ग मीटर की दर से पानी डलवाओ तो कई किमी लंबा होने के कारण एक करोड़ के करीब हो ही जाएगा, फिर तकरीबन इसी दर से गिट्टी डलवाओ और फिर उस पर पुट्टी (सीमेंट)। एक-एक हजार के करीब एक हजार गमले रखवाओ, फिर उसमें एक से दस हजार की दर से खरीद कर ग्रीनरी के लिए पौधे लगवाओ, तब कहीं कहा जाएगा ग्रीन कॉरिडोर। डरते हुए लिखना पड़ रहा है क्योंकि पढ़ने के बाद कहीं किसी का खाली दिमाग शैतान के घर की तर्ज पर जाग न जाए और आइडिया आ जाए कि इसके लिए भी लाखों में घास उगाने व ढलान पर सूखी मिट्टी रोकने के एक्सपर्ट को ऊटी की ऊंची पहाड़ी व दिल्ली-फरीदाबाद की अरावली से बुला लिया जाए।

साथ ही दुआ कीजिए कि कहीं आपके पैसे से कोई टीम घास उगाने की कला सीखने यूरोप के दौरे पर न भेज दी जाए और इस तरह नौ की लकड़ी पर नब्बे खर्च हो जाएं। बड़े-बुजुर्ग कह भी गए हैं कि दीवारों के भी कान होते हैं। यही हाल हरदोई रोड (दुबग्गा) को भिटौली (सीतापुर रोड) से जोड़ने वाले सिक्स लेन रिंग रोड का भी है। यहां भी किसी यूरिया (हाईब्रिड) ब्रेन ज्ञानी ने विभागीय जाहिल को लाखों का ज्ञान दिया है किनारे (ढलान) की सूखी घास पर मिट्टी डालकर उसे दबाने और बारिश में बह गई मिट्टी की जगह पर लाखों से सूखी मिट्टी डालकर गड्ढे भरने का। कुछ पैसे और ले लेते, पर लगे हाथ मिट्टी को बहने से रोकने का पुख्ता पक्का प्रबंध भी कर देते, क्योंकि कई जगह 10 से 15 फीट ऊंची दीवार ढह गई है, लेकिन अगर ऐसा करेंगे तो अगली बारिश के बाद फिर कैसे उत्तराधिकारी सैकड़ों डंपर मिट्टी डालने का ठेका दे पाएंगे, क्योंकि अब तो विदाई में कम ही समय बचा है?

यह दीगर बात है कि बारिश के बाद समतलीकरण तो बीते 50 साल में लोगों ने 50 बार देखा होगा, लेकिन यहां तो गोमती को ही उल्टा बहाया जा रहा है। लाखों की लागत से कई किमी लंबी व करीब नौ फीट चौड़े इंटरलॉकिंग फुटपाथ पर मिट्टी डाली जा रही है, जो वक्त के साथ-साथ रोड से दो इंच नीचे चला गया था। फिर से बता दूं लाखों की ब्रिक्स को मिट्टी के नीचे दबाया जा रहा है बिल्कुल टाइम कैप्सूल की तरह। ऐसा लग रहा है, जैसे दोनों हाथ लूट की खुली छूट का जैसे लाइसेंस मिल गया हो तो सब बनावटी (कृत्रिम) बना डालेंगे, प्रकृति के करने के लिए घास तक नहीं छोड़ेंगे। फिलहाल महाकुंभ, नमामि गंगे, निर्यात और वन ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी बनाने का भूत नौकरशाही के सिर चढ़कर बोल रहा है, फिर खर्चा भले ही आमदनी से ज्यादा आ जाए।

दृष्टांत के लिए आम के निर्यात को ही ले लेते हैं। इसके निर्यात की कई दशक से कवायद में जुटी सफेद हाथी टाइप की संस्था से कम से कम अब तो पूछ ही लेना चाहिए कि हर साल पूरी सैलेरी पर खर्च हैइतना और पूरी टीम से लाभ हुआ इतना। नतीजे न दे पाने के कारण क्यों न उसकी वसूली की जाए? उसके बाद जबरन रिटायरमेंट और छंटनी की सजा। मुंबई और बेंगलुरू के पांच सितारा होटलों में दो-दो दिन गोष्ठी चलती है। देश-विदेश से पचासों लोगों को बुलाया जाता है। अधिकारियों की लंबी-चौड़ी टीम (बीवी-बच्चों सहित) भी कई दिन पहले से जाकर जम जाती है स्टाल की तैयारी व मंच की रिहर्सल के नाम पर। उनके रहने, खाने और फाइव स्टार होटल के सभागार में गोष्ठी कराने पर हर साल बीसों लाख खर्च किए जा रहे हैं, पर आम निर्यात कितने रुपए का हुआ, इससे विभाग को कितना लाभ हुआ और लखनऊ, उन्नाव व सहारनपुर के आम उत्पादकों को कितना?

इसमें जो लोग शामिल हुए थे, निर्यात में उनकी क्या भूमिका रही और दोनों महानगरों के पांच सितारा आयोजन में कुल कितने लाख खर्च हुए थे? इसी तरह बजट को ठिकाने लगाने वाले दूसरे विभागों के किमियागर से भी यह पूछना चाहिए कि क्या खोया और क्या पाया, पर न जाने कब व कौन पूछेगा? इतने साल में करोड़ों का वारा-न्यारा करने वालों से किसी ने यह पूछने की भी जरूरत नहीं समझी कि आम सामुद्रिक यात्रा की वस्तु नहीं है तो फिर यह सपना हर साल क्यों परोसा जाता है? जल्द खराब होने की प्रकृति के कारण उसका दम तो दिल्ली-मुंबई तक ही जाने में निकल जाता है तो फिर बेंगलुरू तक ही ट्रक से क्यों भेजना, कन्याकुमारी के रास्ते सात समंदर पार तक क्यों न ट्रक से भेज दिया जाए?

बहुत बड़ी व कई मैंगो बायर-सेलर मीट पर हर साल तकरीबन एक करोड़ रुपये फूंकने के बजाय अगर इतने पैसे का आम राजधानी लखनऊ से सीधे गल्फ जा रहे हवाई जहाज पर रोज लाद दिया जाए, उसे वहां फ्री बंटवाया जाए तो ज्यादा बड़ा ऑर्डर मिल जाएगा व उदरस्थ होने के समय तक फ्रेश भी रह सकेगा और केमिकल मुक्त भी। दो दिन में ट्रक से मुंबई या चार दिन में बैंगलुरू पहुंचाने के बाद उसे वहां से विदेश के लिए लोड करने का काम बिना केमिकल के सहारे हो ही नहीं सकता। बताया जाता है कि रेडिएशन ट्रीटमेंट प्लांट मुंबई व बेंगलुरू में ही है तो दो साल के पांच सितारा होटलों में गोष्ठी के पैसे से एक रेडिएशन प्लांट ऐसे एयरपोर्ट के पास बन जाता अब तक, जहां से सीधी फ्लाइट गल्फ या यूरोपीय देशों को जाती होती।

शासन को यही भूत दिखाया जाता है कि यूएस और यूरोपीय देश बिना ट्रीटमेंट का आम नहीं लेते हैं। देर आए, दुरुस्त आए की तर्ज पर अब उत्तर भारत में पहले के नाम पर जेवर में रेडिएशन ट्रीटमेंट प्लांट का शिगूफा छोड़ा गया है, जिसके बाद मुंबई व बेंगलुरू की कवायद से छुट्टी मिलने की उम्मीद की जा सकती है। ज्ञात हो कि उक्त दोनों प्रदेशों के पास निर्यात के लिए अपने अल्फांसो, बांबे ग्रीन, बैगनफली व तोतापरी आम हैं। लाख टके का सवाल यह है कि जब वाया बेंगलुरू व मुंबई एक भी आम यूएस, यूके व दुबई गया ही नहीं तो फिर ट्रीटमेंट किस आम का या फिर आम आदमी द्वारा पसीना बहाकर कमाए गए पैसे से दिए गए टैक्स का?

दूसरी ओर, राजधानी लखनऊ व प्रदेश की आब-ओ-हवा को शासन की नाक के नीचे के अधिकारियों द्वारा इनडेक्स मापक मशीनों को हरे कपड़े से घेरकर व पानी छिड़कने की हेरा-फेरी करके शुद्ध बताने के लिए किए जा रहे खेल की जिम्मेदारी अपर लेवल पर कौन लेगा? यह केवल चंद उदाहरण हैं उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की प्राथमिकताओं के साथ छल करने वाले व विश्वास पात्र बनकर पीठ में खंजर भोकने वाले नीचे के लोगों द्वारा की जा रही हरकतों के।

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