सब गोलमाल

संजय राजन

हास्यास्पद सा लग रहा है कि जितना बड़ा संस्थान नहीं, उससे ज्यादा बड़ा स्टाफ। इतने लोगों को बैठाने, हवा खिलाने, पानी पिलाने और पढ़ाने पर शासन को कितनी मोटी रकम खर्च करनी पड़ती होगी? लाखटके का सवाल है कि संस्थान है या धर्मशाला, जो कमाई से ज्यादा खर्चे कर रही है। सभी अंशकालीन अतिथि व्याख्याता के भुगतान में शासन द्वारानिर्धारित सीमा न पार होने का बेहद ही शातिराना तरीके व बारीक बाबूगिरी से ख्याल रखा गया है।

एक जीव, जो बाबू है, उसके हाथ में जादू है, क्योंकि वह कलम से दिन को रात साबित कर सकता है और रात को दिन। यानी कि स्याह को सफेद कर सकता है और सफेद को स्याह, फिर सरकार कोई भी हो या विभाग कोई भी। सिर्फ वही शाश्वत सत्य है, बाकी सब नश्वर है और आता-जाता रहता है। वह फाइलों का जादूगर भी है तो आंकड़ों का बाजीगर भी। वह आठ आंखें, 10 सिर और 12 हाथ रखता है। भले ही आम आदमी को ये दिखते न हों। वह कई काली कलाओं, आठ प्रहर व 10 दिशाओं का ज्ञाता होता है। हमारे प्रदेश में बड़े से बड़े विभागीय अधिकारी भी उसके आगे पानी भरते नजर आते हैं, क्योंकि उसके बिना किसी भी अधिकारी का काम नहीं चल सकता। तीन दशक से अधिक अर्से से जमे होने के कारण पहले ही वह न जाने कितने अधिकारियों के साथ काम कर चुका होता है?

ऐसे में वह घाट घाट का पानी पीए हुए होता है इसलिए वह अपने संपर्क में आए सभी लोगों को पानी पिला-पिला (दौड़ा-दौड़ा) कर जूते घिसवा देता है। कोई अधिकारी सर्विस बुक में गोदा-गोदी करके एक बार ही उसका कुछ बिगाड़ सकता है, पर काले जादू का यह सिद्ध हस्त चाहे तो रोजाना अपने अधिकारी को नाकाम व निकम्मा साबित कर सकता है। भले ही देश की सबसे बड़ी परीक्षा पास करके कोई अधिकारी बना हो, पर यह बाबू ही जब उंगली पकड़ कर किसी विभाग की वैतरणी पार कराएगा, तब अधिकारी पार हो पाएगा और पास कहा जाएगा, नहीं तो फेल। यही वजह है कि कोई अंधा जब अपनों को रेवड़ी बांटने चलता है तो उसे बाबू की जरूरत जरूर पड़ती है।

दरअसल यह बाबू ही है, जो यह बात अच्छे से जानता है कि अधिकारी की गहराई क्या है और उसकी किस विषय पर कितनी पकड़ है? ऐसा ही एक मामला पकड़ में आया है इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड रूरल टेक्नोलॉजी प्रयागराज का, जहां पर 83 बाहरी लोगों से पढ़ाई करवाई जा रही है। हास्यास्पद सा लग रहा है कि जितना बड़ा संस्थान नहीं, उससे ज्यादा बड़ा स्टाफ। इतने लोगों को बैठाने, हवा खिलाने, पानी पिलाने और पढ़ाने पर शासन को कितनी मोटी रकम खर्च करनी पड़ती होगी? लाखटके का सवाल है कि संस्थान है या धर्मशाला, जो कमाई से ज्यादा खर्चे कर रही है। सभी अंशकालीन अतिथि व्याख्याता के भुगतान में शासन द्वारानिर्धारित सीमा न पार होने का बेहद ही शातिराना तरीके व बारीक बाबूगिरी से ख्याल रखा गया है।

कहीं कलम फंसने न पाए इसीलिए सभी 83 लोगों को सीमा से हजार-दो हजार कम के ही पेमेंट के पेपर तैयार किए गए हैं। अगर इतने बाहरी लोग पढ़ा रहे हैं तो साफ है कि स्थायी स्टाफ में सिर्फ चपरासी और डायरेक्टर ही होंगे। बाकी सब रिटायर हो गए होंगे या सभी को गुनगुनी धूप में ऊंघने या गप्पें लड़ाने का लाइसेंस देकरआनंद लेने के खुला छोड़ दिया गया होगा। कम से कम जनवरी 2024 का बिल तो यही दर्शा रहा है। इस माह सभी 83 लोगों को 10 प्रतिशत टीडीएस काटकर 11 लाख 71 हजार से अधिक का भुगतान किया गया है।इसके अलावा मैनेटमेंट डिप्लोमा डिवीजन के बाहरी शिक्षकों को अक्टूबर 2023 में सवा लाख से अधिक का भुगतान किया गया तो जनवरी-24 में इंजीनियरिंग डिग्री डिवीजन को करीब साढ़े तीन लाख रुपए। इस तरह 12 माह में यह राशि डेढ़ करोड़ से अधिक बन रही है, जो कि साफ-साफ खेल की ओर इशारा कर रही है। इन बातों का खुलासा एक आरटीआई में हुआ है।

इसमें सभी को जरूरत से ज्यादा क्वालीफाइड बताया गया है,जिससे चौंकाने वाली बात निकल कर आई है कि अगर इतने बीटेक एमटेक व पीएचडी बेरोजगार घूम रहे हैं या सिर्फ एक संस्थान से जुड़े हैं तो फिर पूरे यूपीटीयू (एकेटीयू) से तो कई हजार होंगे यानी कि इनमें से बहुतायत में बेरोजगार होंगे। बाकी कुछ ही रिटायर होने के बाद अनुबंध के आधार पर पढ़ाने आ रहे होंगे। ऐसे में बेरोजगारों के द्वारा और बच्चे को क्यों पढ़वाए जा रहे हैं? इस तरह बीटेक बेरोजगारों की फौज और क्यों लंबी की जा रही है? गरीब द्वारा पसीने की कमाई से बचाई गई पाई-पाई से हर सेमेस्टर में मोटी फीस लेने के बजाय साफ-साफ बता क्यों नहीं देते कि सड़क किनारे रेहड़ी-ठेला लो, ज्यादा सुखी रहोगे और सुकून में भी? चिंता की बात है कि हमारी इंजीनियरिंग की पढ़ाई किस दिशा में जा रही है? प्रदेश के बहुत पुराने स्थापित व प्रतिष्ठित संस्थानों में यह क्या चल रहा है? विभाग व शासन का ऐसा कोई भी कृत्य न केवल विद्यार्थियों के सपने से खेल है, बल्कि उनके माता-पिता के जज्बातों से भी बड़ा खेल है।

बताना समीचीन होगा कि ये वे संस्थान हैं, जहां कमोबेश कम आमदनी वालों या यूं कहें कि लोवर मिडिल क्लास के ही बच्चे पढ़ते हैं। मिडिल और अपर क्लास के बच्चे भला क्यों जाएंगे किसी ऐसे संस्थान में, जिसके नाम में ही रूरल लगा हो? कहीं ऐसे ही कुछ गलत कृत्यों के कारण परीक्षा से पहले आत्महत्या करने वालों की संख्या हर साल प्रदेश में तो नहीं बढ़ रही है? परीक्षा की तैयारी तो ठीक से तब हो, जब कोई तैयारी कराने वाला हो। आखिर में कोई रास्ता बचता न देखकर माता-पिता की भावनाओं के ज्वार, कम पगार (आमदनी) व ऊंची पतवार (उम्मीदों) के कारण आत्महत्या ही सूझती हो। तकनीकी शिक्षा की ऐसी दुर्दशा चिंतित करती है कि हम क्या परोस रहे हैं और कैसी पौध तैयार कर रहे हैं, दुनिया के समकक्ष खड़े होने व उसके साथ कदमताल मिलाने के लिए? शिक्षा जैसे गंभीर विषय पर यह मखौल क्यों चल रहा है?

कहीं यह नई पीढ़ी के साथ बड़ा मजाक तो नहीं? आखिर कब और कौन लेगा इस लापरवाही व घालमेल की जिम्मेदारी ? अंशकालीन अतिथि व्याख्याता के बारे में बताते हैं कि जो जितना करीबी होता है, उसे उतना ही ज्यादा पढ़ाने का मौका दिया जाता है और अधिकतम सीमा तक पेमेंट कराया जाता है।भाई-भतीजावाद बहुत हावी की खबर तो अर्से से आम है ही। अतीत में जब रिश्तेदारों व सगे-संबंधियों से संविदा पर भर्ती की बात उठी तो अब ताजा सूची देखकर लगता है कि सियासी दलों की सोशल इंजीनियरिंग की तरह एक जातीय गुलदस्ता (बुके) तैयार किया गया है, जिसमें हर जाति का प्रतिनिधित्व है, पर भुगतान सूची से कहानी काफी कुछ साफ हो जाती है। ऐसा लगता है कि जैसे किसी इंस्टीट्यूट से पूरी की पूरी लिस्ट उठाकर छाप दी गई है।

आरटीआई में इनके खातों में जाने वाले पेमेंट का ब्यौरा मांगा गया तो संस्थान के बाबू ने लिखा है कि यह सूचना जनसूचना अधिनियम 2005 के तहत नहीं दी जा सकती है। शासन की मंशा गलत नहीं है। कमी तो उसके क्रियान्वयन व अनुपालन में है, जहां मनमानी की जा रही है हर स्तर पर। शिक्षकों की कमी की स्थिति में शासनादेश कहता है कि प्रदेश के सभी अभियंत्रण संस्थाओं में अंशकालीन अतिथि व्याख्याताओं व संविदा के आधार पर सेवानिवृत्त शिक्षकों के चयन के लिए स्क्रीनिंग समिति गठित की जाए, जिसकी संस्तुति के आधार पर नियुक्ति की कार्यवाही की जाए। संस्थान के निदेशक या विश्वविद्यालय के वरिष्ठतम प्रोफेसर इसके अध्यक्ष होंगे तो संबंधित विषय के अन्य शासकीय संस्थानों के दो शिक्षक उपाध्यक्ष, जो प्रोफेसर या एसोसिएट प्रोफेसर स्तर से कम नहों।

अनुसूचित जाति/जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक वर्ग के प्रतिनिधित्व के लिए संस्थान के निदेशक द्वारा नामित तीन सदस्य होंगे।संस्थान के संबंधित विषय के विभागाध्यक्ष को सदस्य / सचिव नामित करने की बात कही गई थी। गौरतलब है कि शासन की बंदिश है कि बीटेक वाले अंशकालीन अतिथि व्याख्याता को अधिकतम 15000 रुपए प्रतिमाह ही भुगतान किया जा सकता है तो एमटेक या उसके समतुल्य को 20000। इसी प्रकार डिप्लोमा में पढ़ाने वालों को अलग। इसे तात्कालिक प्रभाव से बढ़ाकर अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद नई दिल्ली द्वारा निर्धारित अर्हता धारी उपरोक्त प्रक्रिया से चयनित अतिथि व्याख्याता के लिए अधिकतम 30,000 रुपये प्रतिमाह निर्धारित कर दिया गया है।

ध्यातव्य है कि सेवानिवृत्त शिक्षकों की भर्ती जहां विद्यार्थियों के हित में है तो उनके स्थान पर मनमाने तरीके से बेरोजगारों को पढ़ाने का मौका व बाद में अनुभव प्रमाण पत्र देना भले ही समाज के हित में हो, पर फैसला तो बच्चों व उनके पिता द्वारा किए जा रहे भुगतान के आधार पर ही होना चाहिए। इसके विपरीत अपनों को रेवड़ी बांटने के लिए कुछ लोग किसी भी हद तक गिरने के लिए तैयार रहते हैं और उनका जीवन कानूनों के लूप होल्स ढूंढ़ने में ही कट जाता है। कम प्रसार संख्या वाले अखबारों में विज्ञापन निकाला जाता है और अपनों को सूचना पहले ही फोन से दे दी जाती है। भर्ती के बाद विशेषज्ञता विषय के अलावा दूसरे विषय भी पढ़वा लेते हैं।

सूची में एक बात और भी निकल कर आई है कि अधिकांश लोग सुल्तानपुर व प्रतापगढ़ क्षेत्र के ही मूल निवासी हैं। सूत्रों ने बताया कि 83 अलग-अलग शक्ल वाले लोगों को कभी किसी ने इंस्टीट्यूट में नहीं देखा और न ही नियुक्ति पत्र जारी किए गए हैं। कुछ लोगों को थमाए भी गए हैं तो उनमें टर्म्स एंड कंडीशंस का उल्लेख नहीं है, जिसके कारण उसे शून्य ही माना जाएगा। ऐसे नियुक्ति पत्र को तो कोई भी ले जाकर कोर्ट में चैलेंज कर दे इसीलिए पीछे शर्तों वाले नुियक्ति पत्र जारी किए जाते रहे हैं ताकि कोर्ट जाने का मसला ही न रहे। दृष्टांत के तौर पर इंजीनियरिंग डिग्री डिवीजन को लिया जाए तो अक्टूबर 2024 में जिन 17 गेस्ट लेक्चरर ने बच्चों को पढ़ाया, चौंकाता है कि उनमें से छह लोग पीएचडी किए हुए थे।

विभागीय लोगों को इसी में धांधली की आशंका है, क्योंकि 83 और 17 तो कुल 100 तो ये हो गए। इसके अलावा नौ लोग मैनेजमेंट डिप्लोमा डिवीजन के। इतना स्टाफ तो किसी विश्वविद्यालय में होता नहीं है, जहां छात्र संख्या हजारों में होती है। हालात में सुधार न होते देखकर छात्रहित में अंततः कुछ लोगों ने सूचना आयोग का रुख किया तो मामले में वहां भी भ्रामक सूचनाओं के रूप में बाबूगिरी की बारीकी व आंकड़ों की बाजीगरी ही दिखाई गई। सारी की सारी सूचनाएं इतनी रटी-रटाई दी गई हैं, जो सूचना कम लीपापोती ज्यादा नजर आ रही हैं। सूत्र बताते हैं कि जहां 109 में सारे कभी इंस्टीट्यूट नहीं आए, जिससे साफ है कि कुछ लोगों को फेक पेमेंट किया जा रहा है, जो लौटकर गलत जेबों में जा रहा है। दूसरे, यह भी बताया गया है कि पेमेंट दिया कम जा रहा है और दूर वालों से हस्ताक्षर ज्यादा पर लिए जा रहे हैं।

सिर्फ पास वालों को ही पूरा पेमेंट किया जा रहा है, वह भी कम कक्षाएं लेने के बाद ज्यादा दिखाई जा रही हैं इसीलिए आरटीआई के तहत बैंक डिटेल देने से मना कर दिया गया। इससे सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम टेक्निकल यूनिवर्सिटी के तहत आने वाली संस्थाओं में, जिसे पहले यूपीटीयू कहा जाता था, कैसा खेल किया जा रहा है विद्यार्थियों के भविष्य के साथ और पूर्व राष्ट्रपति के नाम पर छल? ज्ञात हो कि उक्त विश्वविद्यालय की स्थापना महान मंशा के साथ साल 2000 में उत्तर प्रदेश सरकार ने की थी ताकि कम फीस देकर प्रदेश के गरीब बच्चे भी इंजीनियर बन सकें। अब का तो पता नहीं, पर तब यह एशिया का सबसे बड़ा तकनीकी विश्वविद्यालय था।

इसके अंतर्गत निजी व शासकीय मिलाकर करीब 500 महाविद्यालय आते हैं। अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों के नाम हैं, कानपुर का हर कोर्ट बटलर प्रोद्यौगिकी संस्थान व वस्त्र प्रौद्योगिकी संस्थान, झांसी का बुंदेलखंड अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, सुल्तानपुर का कमला नेहरू प्रौद्योगिकी संस्थान, लखनऊ का इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनिरिंग एंड टेक्नोलॉजी व वास्तुकला संकाय एकेटीयू, राजकीय इंजीनियरिंग कॉलेज बांदा, बिजनौर, अंबेडकर नगर, आजमगढ़, कन्नौज, मैनपुरी व सोनभद्र और गोरखपुर का मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय ।

यह हाल है 70 साल से संचालित संस्थान का

इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड रूरल टेक्नोलॉजी का यह परिसर 26.5 एकड़ में फैला है और वर्ष 1955 से इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी के नाम से संचालित है। इससे पहले सिविल इंजीनियरिंग स्कूल नामक सोसायटी द्वारा शुरू किया गया था। बाद में सरकार ने वर्ष1962 में इलाहाबाद पॉलिटेक्निक नामक एक पंजीकृत सोसायटी का गठन करके इसे अधीन कर लिया। संस्थान की बहुमुखी गतिविधियों औरउपलब्धियों की समीक्षा करने के बाद राज्य सरकार ने 1982 में नाम बदलकर इलाहाबाद पॉलिटेक्निक से इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड रूरल टेक्नोलॉजी (आईईआरटी) कर दिया था। आईईआरटी का इंजीनियरिंग डिग्री डिवीजन 2001 में स्थापित किया गया। यह यूपीटीयू सेसंबद्ध था, जिसे बाद में डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम तकनीकी विश्वविद्यालय(एकेटीयू) कर दिया गया। संस्थान को राज्य सरकार द्वारा शैक्षणिक स्वायत्तता प्रदान की गई थी। बस फिर क्या था, इसके बाद तो इसी बात का फायदा उठाते हुए जैसे पंख लग गए और यह निदेशकों के हाथों ऊंची उड़ान उड़ने लगा था।

आईईआरटी में इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में प्रवेश परीक्षा की मेरिट सूची के माध्यम से प्रवेश दिया जाता है। किताबों की बात करें तो यही लिखा है कि संस्थान छात्रों को उच्च प्रौद्योगिकी आधारित शिक्षा प्रदान करता है तो संतुलित व परिपक्व इंसान के रूप में विकसित करने के लिए अनुकूल वातावरण भी। यहां का बुनियादी ढांचा उत्कृष्ट है।संस्थान में हवादार कक्षाएं, प्रयोगशाला, कैंटीन व तीन लड़कियों व दो लड़कों के छात्रावास की सुविधा हैं तो डिजिटल लाइब्रेरी भी। रिचनेस का अंदाजा लगाएं, केंद्रीय पुस्तकालय में 4207 शीर्षक और 21204 खंड हैं। संस्थान में निम्न पाठ्यक्रम नीचे दिए गए हैं। बीटेक कंप्यूटर विज्ञान, इलेक्ट्रॉनिक्स, सिविल, ईसीई व मैकेनिकल इंजीनियरिंग के अलावा मैनेजमेंट के भी कोर्स कराए जाते हैं।

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