
आदर्श चौहान
थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि बांग्लादेश की प्रधानमंत्री ने मुक्ति संग्राम के योद्धाओं के आश्रितों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देकर गलत कर दिया था। बताना होगा कि ऐसा उनकी कैबिनेट ने हाईकोर्ट के फैसले के बाद किया था। उन्होंने, सरकार ने कुछ गलत कर दिया था तो उनके खिलाफ आक्रोश स्वाभाविक तौर पर हो सकता है, लेकिन ये क्या… सुप्रीम कोर्ट गलत, आम आदमी गलत, शांति पसंद गलत, व्यापारी गलत, मंदिर भी गलत, सरकारी भवन व प्रतिष्ठान गलत और स्थानीय अल्पसंख्यक भी गलत। पूरी दुनिया गलत और यदि कोई सही तो केवल भीड, जिसमें आधे से अधिक ऐसे लोग थे, जिनकी समाज छोड़िए, घर तक में कोई वैल्यू नहीं होती है आमतौर पर।
शायद ही कोई पिता अपने 18 से 28 साल के बेटे से घर चलाने के मामले में सलाह लेता हो और अगर बिन मांगी सलाह इस वक्त लोग देते भी होंगे तो शायद ही किसी पिता ने कभी उस पर अमल किया हो। उल्टे चार ताने और मार देता है बेरोजगारी को लेकर कि इतने बड़े हो गए हो, कुछ करो, दो पैसे कमाओ। मतलब साफ है कि खुद को खुद के ही हाथों सही का प्रमाण पत्र देना ही आंदोलन का सार है। राष्ट्रीय संपत्ति को तोड़ना, फोड़ना और जलाना। मतलब जो कुछ शेख हसीना, बेगम खालिदा जिया, जनरल इरशाद और उनके पिता शेख मुजीबुर्रहमान ने बनवाया, चलवाया और खड़ा किया, उस हर चीज को तोड़ दो, आग लगा दो, जलाकर राख कर दो। अरे मूर्खी जिसे तुम जला रहे हो, वह सब तुम्हारे ही पैसे से तो बना है। सिर्फ मंदिर छोड़कर। पूरे प्रकरण में वस्तुतः सबसे बड़ी गलती तो कार्यपालिका की है कि उसने सैलाब के पानी को नाक तक आने दिया। देखने में आ रहा है कि यह सब यूं ही नहीं हो गया। इसमें कई पक्ष बराबर के हिस्सेदार रहे हैं और सेना की भी शह रही है। बांग्लादेश जैसे देश, जिसका कोई स्थायी और परंपरागत शत्रु नहीं है दुनिया भर में इसलिये उसे बैरक की सेना कहे जाने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए। ऐसे में उसे कार्यपालिका ही कहा जाना उचित रहेगा।
बांग्लादेश की सेना और बेरोजगार युवाओं के बारे में खाली दिमाग शैतान का घर मुहावरा बिल्कुल सटीक बैठता है। वैसे भी इतिहास गवाह रहा है कि एक अदद नौकरी के लिए एक दशक मेहनत करने से युवाओं के लिए कहीं ज्यादा आसान होता है हो-हल्ला, हंगामा, घेराव, हड़ताल और आंदोलन करना। अलबत्ता यहां के मामले में तो यही कहा जा सकता है कि मौका भी था और कई दशक से दस्तूर भी, बांग्लादेश और एक नामचीन बड़े वैज्ञानिक की पत्नी शेख हसीना के अमेरिका में रह रहे बेटे की खुद की आयु अभी 55 की भी नहीं है। इसके बावजूद कई बार सैन्य शासन देख चुके हैं। किसी भी देश की सारी चीजें औरपूरा तंत्र न कभी किसी एक के हिसाब से चला है और न ही चलेगा। यही लोकतंत्र की खूबसूरती भी है कि विपक्ष हमेशा के लिए मौजूद रहता है। आठों पहर यानी कि कमोबेश हर समय अक्ल देने और नुक्ताचीनी के लिए। अवामी लीग की प्रमुख शेख हसीना की प्रधानमंत्री के तौर पर लगातार चौथी जीत और कुल पांचवीं से 60 प्रतिषत से ज्यादा लोग निराश हताश थे क्योंकि मुख्य विपक्षी दल बीएनपी ने जनवरी 24 में हुए आम चुनाव का बहिष्कार किया था और जमात-ए-इस्लामी पर लगभग उसी समय लगाए गए प्रतिबंध ने भी आग में घी का काम किया।
इस चुनाव में सिर्फ 40 प्रतिशत ही वोट पड़े थे। ऐसे में मतदाता नए पन के लिए भी मतदान कर सकते थे। आंकड़े बताते हैं कि उन्होंने किया भी, लेकिन टुकडों में बंटे विपक्ष का लोकतंत्र में हमेशा लाभ सत्ताधारी पार्टी को ही मिलता है। इसी दौरान युवकों की झोली में बैठे बैठाए आरक्षण के रूप में एक मुद्दा आ गिरा। सत्ताधारी पार्टी के नेताओं ने वोट के लालच में कई बयान जारी कर दिए, जिससे हालात बिगड़ते ही चले गए। दूसरी ओर आंदोलनकारियों की भीड़ में छात्रों के साथ अधेड़ भी शामिल हो गए। इस तरह आंदोलन जेल में बंद बेगम खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमात के हाथों में खेलने लगा। यदि यूं कहा जाए कि वे जमात के ही लोग थे। गलत न होगा। लोकतंत्र में ढेर सारी खूबियां होती हैं, लेकिन इसके साथ सबसे बड़ी विडंबना भी जुडी हुई है कि सत्ताधारी सियासी दल के साथ 25 से 40 प्रतिशत ही लोग होते हैं और बाकी हमेशा खिलाफ।
यही बाकी लोग छात्रों द्वारा गर्म किए गए तवे पर सियासी रोटियां सेकने में जुट गए, जिसके कारण इतिहास ने खुद को दोहराने में देर नहीं की, जबकि हसीना सरकार पर कोई बहुत गंभीर आरोप नहीं थे, पर अगले चुनाव तक का इंतजार करने में कई नेताओं को जमींदोज और सुपुर्द-ए-खाक होने का निश्चित रूप से डर था। खेल-खेल में हुए तख्तापलट को एक शब्द में हसीना के बेटे सजीब वाजेद जॉय ने भीडतंत्र की संज्ञा दी, ठीक ही दी। उन्होंने हाल में कहा है कि यह लोकतंत्र नहीं है। यद्यपि इसे भेडतंत्र कहना ज्यादा उचित होगा। दरअसल भेड़ का समाजशास्त्र कहता है कि एक भेड़ जिधर चल पड़ती है, बाकी भेड़ भीड़ बनकर उसी के पीछे-पीछे चल पड़ती हैं। भले ही आगे कुआं हो या खाई। इस बात से अनजान और अतिउत्सुक लोग इस आशय के वीडियो भी नेट पर सर्च कर सकते हैं। बिल्कुल वैसी ही हालत बांग्लादेश की सड़कों पर देखने को मिली। हैरत की बात है कि नंगे भूखे गरीब या किसी भी तबके के लोग अपनों की ही दुकानें और शोरूम लूट रहे हैं।
पता ही नहीं चल रहा है कि कथित आंदोलनकारी अराजक भीड़ आखिर है किसके खिलाफ देखने से तो ऐसा लग रहा है कि किसी दूसरे देश के नंगे भूखे भेड़िए बांग्लादेश को जीतने के बाद अब उसे लूट रहे हैं। बताना जरूरी है कि प्रदर्शनकारी और ढाका यूनिवर्सिटी के छात्र बीते कुछ दिनों से 1971 के मुक्ति युद्ध में लड़ने वाले सैनिकों के बच्चों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का विरोध कर रहे थे। 1971 में पाकिस्तान से इस भूखंड, जिसे पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था, को मुक्त कराने वालों को यहां मुक्ति योद्धा कहा जाता है। देश में एक-तिहाई सरकारीनौकरियां इनके बच्चों के लिए आरक्षित हैं। इसी के खिलाफ हाईकोर्ट के फैसले के बाद से छात्र बीते कुछ दिनों से रैलीं निकाल रहे थे। वे मानते थे कि आरक्षण की ये व्यवस्था भेदभावपूर्ण है, जिसकी जगह पर मेरिट के आधार पर नौकरी दी जानी चाहिए। प्रधानमंत्री शेख हसीना के बीते बुधवार को उनके राष्ट्र के नाम संबोधन पर पूरे देश की निगाहें लगी थीं। लोग इंतजार कर रहे थे कि सरकार मौजूदा परिस्थितियों में किस राह पर आगे बढ़ेगी। साथ ही उत्सुकता भी थी कि आरक्षण विरोधी आंदोलनकारी प्रधानमंत्री के भाषण पर क्या प्रतिक्रिया जताएंगे।
प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमंत्री के भाषण को खारिज करने में ज्यादा देरी नहीं की। उन्हें तो इसे खारिज करना ही था क्योंकि वे फ्रंटफुट पर थे। इसके बाद आरक्षण-विरोधी आंदोलनकारियों ने पूर्ण बंद का आह्वान किया और रात से ही देश के विभिन्न इलाकों में हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए। एक ओर आरक्षण का विरोध करने वाले सड़कों पर उतरे तो दूसरी ओर सत्तारूढ़ पार्टी अवामी लीग के विभिन्न संगठन भी सड़कों पर उतर आए। उसके बाद राजधानी ढाका समेत विभिन्न इलाकों से मौत की खबरें आने लगीं। हालांकि हसीना ने आंदोलनकारियों से धैर्य रखने का आग्रह किया था और न्यायिक प्रक्रिया पर भरोसा रखने की भी अपील की थी। कानून मंत्री अनीस उल हक का बयान आने में बहुत देर हो गई। उन्होंने कहा था कि आरक्षण में सुधार के मुद्दे पर सरकार में सैद्धांतिक रूप से सहमति बन गई है। सरकार सुधार के मुद्दे पर आंदोलनकारियों के साथ किसी भी समय बातचीत के लिए तैयार है।
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन आरक्षण मुद्दे की सुनवाई को तय समय से पहले कराने की पहल की है। अगले ही दिन भारी हिंसा और आगजनी के बाद उन्हें यहां तक कहना पड़ा कि ये काफी दुखद है और मेरा अब भी मानना है कि यह काम आरक्षण विरोधियों का नहीं है। उन्होंने कहा कि विरोध प्रदर्शनों में विपक्षी ताकतें भी शामिल हो गई हैं, जिन्होंने हिंसा भडकाने के काम किया और बांग्लादेश के विकास के प्रतीकों को नुकसान पहुंचाया। सरकार आरक्षण विरोधियों के साथ बातचीत का इंतजार कर रही है। वे लोग जब भी बातचीत पर सहमत हों, हम उसी समय इसके लिए तैयार हैं। कानून मंत्री ने कहा कि सीधे संपर्क करने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। हमने मीडिया के जरिए उन तक संदेश पहुंचाया है। हमने तो सार्वजनिक रूप से यह बात कह दी है। इस बीच, आंदोलनकारियों ने सरकार की बातचीत की अपील खारिज कर दी।
हास्यास्पद तरीके से कानून मंत्री का दावा था कि पुलिस ने 18 जुलाई को जरा भी बल प्रयोग नहीं किया था। विध्वंसक गतिविधियां होने की स्थिति में उसे रोकना सुरक्षा बलों का कर्तव्य है। कानून मंत्री ने कहा कि मैं मृतकों के इस आंकड़े से सहमत नहीं हो पा रहा हूं। पुलिस ने गोली नहीं चलाई थी। उसकी गोली से किसी की भी मौत नहीं हुई है। कानून मंत्री ने कहा कि एक समूह आरक्षण का विरोध कर रहा है। दूसरा समर्थन तो कर ही सकता है। क्या ऐसा नाजायज है। यह लोकतांत्रिक देश है। राजनीतिक पर्यवेक्षक मोहिउद्दीन अहमद का कहना था कि मौजूदा परिस्थिति में एक सरकार का मुखिया अपने शासन के समर्थन में जैसी सफाई दे सकता था,हसीना ने ठीक वैसी ही दी, लेकिन मूल समस्या यह है कि उन्होंने कुछ भी नहीं कहा।
सरकार की ओर से शैक्षणिक संस्थानों को बंद करने और विश्वविद्यालयों के आवासीय छात्रावासों को खाली कराने के बाद भी हकीकत में आंदोलन की तस्वीर नहीं बदली। ढाका कैंटोनमेंट के पास स्थित ईसीबी परिसर में छात्रों ने कुछ वाहनों में तोड़फोड़ करने के बाद आग लगा दी। पर्यवेक्षक गुरू मान रहे थे कि विरोध प्रदर्शन इस स्तर तक पहुंच गया है कि बिना बातचीत के महज बल प्रयोग से समस्या का समाधान संभव नहीं है। आरक्षण सुधार आंदोलन के प्रमुख संयोजक नाहिद इस्लाम ने फेसबुक पर कहा था कि सरकार ने शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लेकर बातचीत की गुंजाइश नहीं छोड़ी है। अगर सुरक्षा बलों को सड़कों से नहीं हटाया गया, हॉल, कैंपस और शैक्षणिक संस्थान नहीं खोले गए और अगर अब भी गोलीबारी जारी रही तो सरकार को इसकी पूरी जिम्मेदारी लेनी होगी। उनका कहना था कि महज आरक्षण व्यवस्था में सुधार से कोई नतीजा नहीं निकलेगा। पहले कभी सरकार ने न्यायपालिका का इस्तेमाल करते हुए मांग पर ध्यान नहीं दिया। सुरक्षा बलों और पार्टी के काडर की सहायता से आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया इसलिए अब बातचीत और न्यायिक जांच समिति के नाम पर कोई नाटक स्वीकार नहीं करेंगे। एक अन्य संयोजक आसिफ महमूद ने फेसबुक पोस्ट में पूछा था कि एक के बाद एक हत्या के जरिए सरकार क्या संदेश देना चाहती है?
इस अत्याचार का माकूल जवाब दिया जाएगा। एक निजी विश्वविद्यालय के छात्र नेता अलीम खान ने कहा कि प्रधानमंत्री का भाषण हम लोगों को स्वीकार नहीं, क्योंकि आरक्षण रद्द करने के बारे में उन्होंने कुछ नहीं कहा। एक ओर शांति और संयम की बात करती हैं और दूसरी ओर पुलिस और बीजीबी (बार्डर गार्ड बांग्लादेश) छात्र लीग के सदस्यों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया हुआ था। यह सरकार का दोहरा मापदंड था। राजनीतिक विश्लेषक और जगन्नाथ विश्वविद्यालय की पहली महिला कुलपति प्रोफेसर सादिका हलीम को लगता है कि प्रधानमंत्री ने भाषण में वह सब कहा, जो संभव था क्योंकि अदालती केस के बारे में कोई सीधी टिप्पणी करना संभव नहीं था। सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन मसले पर राष्ट्र प्रमुख के तौर पर आरक्षण रद्द करने का ऐलान भी संभव नहीं था। सरकार की मुखिया के तौर पर उन्होंने साफ संकेत दिया था कि अदालत का फैसला छात्रों के खिलाफ नहीं जाएगा।
हलीम का कहना था कि शुरुआत में आंदोलन केवल छात्रों तक ही सीमित था। जैसे-जैसे यह आगे बढ़ने लगा, कई अन्य लोग भी इसमें शामिल हो गए। उसके बाद आंदोलन का स्वरूप बदलने लगा। कहना ना होगा कि आंदोलन इतने शातिर हाथों में चला गया था कि बाड्डा-नतून बाजार सड़क के पास ही राजनयिक इलाका है। वहां अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, तुर्की और कनाडा आदि देशों के दूतावास हैं और हिंसा के लिए इसी इलाके का चयन किया गया, जबकि राजनयिक क्षेत्र की सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करने के लिए पुलिस ने पूरे इलाके की सख्त घेराबंदी कर रखी थी। एक पत्रकार का दावा था कि आंदोलनकारियों में मदरसों के छात्र भी शामिल थे और बीएनपी जमात आदि के कार्यकर्ताभी। सेना की शह इसलिए पुख्ता हो गई क्योंकि दुनिया भर में एक फोटो काफी वायरल हुआ, जिसमें सैकडों उन्मादी छात्रों की भीड के बीच में सिर्फ एक सैनिक है और उसे एक छात्र ने अपने कंधे पर बिठा रखा है।
बाद में परिवहन मजदूर भी प्रदर्शनकारियों की भीड़ में शामिल हो गए थे। सरकार ने हिंसक प्रदर्शन पर काबू पाने के लिए कई कदम उठाए। इसके तहत पूरे देश में इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई, जिससे लोगों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ा। इंटरनेट आधारित विभिन्न सेवाओं पर प्रतिकूल असर पड़ा। ऑनलाइन वित्तीय लेन-देन लगभग बंद रहे। खासकर मोबाइल फोन के जरिए होने वाले लेन-देन पर बहुत असर पड़ा। मनी ट्रांसफर, मैसेंजर, व्हाट्सएप, ईमेल और इंटरनेट आधारित दूसरे एप का इस्तेमाल बंद रहा। मीडिया संस्थानों को भी कामकाज में भारी दिक्कत रही। हालांकि बड़े बदलाव के बाद इन सब बातों का बहुत मतलब नहीं रह जाता है। दूसरे पाकिस्तान की तरह वहां का भी इतिहास भी रहा है कि सेना का, जो खुद को बहुत दिन तक सत्ता से दूर नहीं रख पाती है। या यूं कह लीजिए कि ये बुरी लत बांग्लादेष को पाकिस्तान से ही लगी है।
ढाका मेट्रोपोलिटन पुलिस ने विभिन्न इलाकों में होने वाली हिंसा को ध्यान में रखते हुए शहर में हर तरह की सभा और रैली पर पाबंदी लगा दी, लेकिन उसके बावजूद सत्तारूढ अवामी लीग के महासचिव और सडक परिवहन मंत्री ओबैदुल कादर ने ढाका के बंगबंधु एवेन्यू में आतंकवाद विरोधी रैली का एलान कर दिया। अब इसे क्या कहा जाए। कहा भी जाता है कि खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है तो देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी बीएनपी ने भी कहा कि वह भी ढाका में रैली करेगी। इसके बाद बीएनपी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष रुहुल कबीर रिजवी को गिरफ्तार कर लिया गया, जिससे गुस्सा और बढ़ गया। बांग्लादेश में सरकारी नौकरियों में आरक्षण के विरोध में जारी छात्रों के आंदोलन के बीच सुप्रीम कोर्ट ने अधिकतर सरकारी नौकरियों में आरक्षण समाप्त करने का फैसला कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि देश में 93 प्रतिशत सरकारी नौकरियों में भर्तियां योग्यता के आधार पर की जाएं। साथ ही 1971 स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल रहे सेनानियों के परिजनों को सिर्फ 5 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए। बाकी दो प्रतिशत नौकरियों को विकलांगों, ट्रांसजेंडर और नस्लीय अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित रखा है। जुलाई की शुरुआत में देश में हजारों छात्र देश के अलग-अलग हिस्सों में कोटा व्यवस्था के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे। अगर यह फैसला जुलाई लास्ट तक आ गया होता तो बांग्लादेश में न और हिंसा होती, न ही अराजकता फैलती और न ही आगजनी में हजारों करोड की संपत्ति जलाई और तोडी जाती। प्रदर्शनकारियों का गंभीर आरोप यह भी था कि देश में लागू मौजूदा कोटा व्यवस्था सत्ताधारी आवामी लीग के करीबी लोगों को फायदा पहुंचाती है। अब तक बड़े पैमाने पर हिंसा में 200 ले अधिक लोग मारे जा चुके हैं। हालांकि स्थानीय मीडिया के मुताबिक मरने वालों की तादाद इससे कहीं अधिक हो सकती हैं।
परिषद के मुखिया और प्रधानमंत्री बांग्लादेश ग्रामीण बैंक की स्थापना व माइक्रो फाइनेंस की अवधारणा पेश करने के कारण नोबेल पुरस्कार विजेता 84 साल के अर्थशास्त्रीमोहम्मद यूनुस ने अल्पसंख्यक हिंदुओं से माफी मांग ली है और मंदिर में मत्था भी टेक चुके हैं। वह सबको साथ लेकर चलने वाली उदार छवि प्रस्तुत करने में लगे हैं। उधर, पुराने राष्ट्रपति मो. शहाबुद्दीन से छात्रों को कोई आपत्ति नहीं है तो वह अपने बंग भवन के दरबार हाल में चुपचाप शपथ दिलाने का काम कर रहे हैं। छात्र सीधे अपनी पसंद की सूची सलाहकार परिषद को सौंप देते हैं। बिना खास हेर-फेर के साथ उसे राष्ट्रपति को भेज दिया जाता है और उसे शपथ दिला दी जाती है बिना कोई परीक्षा पास किए या योग्यता की पुष्टि के, क्योंकि जो योग्यता पर सवाल उठाएगा, वह छात्रों के निशाने पर आ जाएगा। छात्रों के कहने पर किन्हीं रेफात अहमद को मुख्य न्यायाधीश की शपथ दिला दी गई। ऐसा पत्रकारों के साथ भी हो चुका है। 41 पत्रकारों पर शेख हसीना सरकार के समर्थन का आरोप लगाकर कार्रवाई की जा रही है। कोई कितना भी योग्य हो, पर जिसकी लाठी, उसकी भैंस वाली कहावत से चल रहा है बांग्लादेश ।
हाईकोर्ट के एक फैसले से आया भूचाल
गौरतलब है कि बांग्लादेश सरकार ने 2018 में इस विवादित कोटा व्यवस्था को समाप्त कर दिया था, लेकिन पिछले महीने हाई कोर्ट ने इसे फिर से बहाल कर दिया, जिसके बाद से ये प्रदर्शन शुरू हुए। उधर, फैसले के बाद बांग्लादेश के कानून मंत्री अनीसुल हक ने कहा कि सरकार अदालत के फैसले को लागू करेगी। उन्होंने कहा कि हमें लगता है कि ये फैसला बहुत ही समझदारी भरा है। जल्द से जल्द सरकार अधिसूचना जारी करेगी। हालांकि अदालत ने अपने आदेश में यह भी कहा है कि अगर सरकार चाहे तो जरूरी होने पर इस नई कोटा व्यवस्था में सुधार कर सकती है। अदालत में छात्रों का प्रतिनिधित्व कर रहे अधिवक्ता शाह मंजरुल हक ने अदालत के फैसले के बाद बताया कि सुप्रीम कोर्ट की अपील बेंच ने संविधान के अनुच्छेद 104 के अनुसार, इस कोटा व्यवस्था के लिए अंतिम समाधान दे दिया है।
आम लोगों के लिए 93 प्रतिशत कोटा रहेगा, पांच प्रतिशत स्वतंत्रता सेनानियों और उनके परिजनों के लिए और एक प्रतिशत नस्लीय अल्पसंख्यकों और बाकी एक प्रतिशत विकलागों और ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए। एक समाचार एजेंसी के मुताबिक, छात्रों के एक समूह ने कहा है कि मांगों के पूरा होने का आदेश जारी न होने तक प्रदर्शन जारी रहेंगे। स्टूडेंट्स अगेंस्ट डिसक्रिमिनेशन संगठन के एक प्रवक्ता ने कहा कि हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हैं, लेकिन हम तब तक प्रदर्शन वापस नहीं लेंगे, जब तक सरकार हमारी मांगों को पूरा करते हुए आदेश ना पारित करे। आदेश आने के समय अदालत के बाहर सड़कों पर सन्नाटा पसरा था।
राजधानी ढाका के अधिकतर हिस्सों में सेना तैनात है। सुप्रीम कोर्ट के गेट के बाहर भी टैंक खड़े थे। अदालत के फैसले से पहले प्रशासन ने कर्फ्यू सख्ती से लगा दिया था। अवकाश घोषित है। सरकार के प्रतिनिधिमंडल ने छात्रों से बात भी की। हालांकि इसबीच छात्र नेता नाहिद इस्लाम के परिजनों ने उन्हें नजरबंद किए जाने के आरोप लगाये थे।नाहिद सरकार के मंत्रियों के साथ छात्र नेताओं की बैठक में शामिल नहीं हुए थे। जानकार मानते हैं कि यह आंदोलन सिर्फ आरक्षण विरोध तक सीमित नहीं रह गया था। यह युवा समाज में बढ़ रही नाराजगी की अभिव्यक्ति था। हालांकि आंदोलन का नेतृत्व करने वाले छात्र पहले कहते रहे हैं कि उनका आंदोलन सिर्फ आरक्षण सुधार के मुद्दे तक ही सीमित है।
इसके साथ किसी अन्य मुद्दे का कोई संबंध नहीं है, लेकिन इसे सही मानना गलत होगा। याद होगा कि करीब चार सप्ताह पहले शुरू ये आंदोलन शुरुआत में शांतिपूर्ण था, लेकिन अचानक हिंसक हो उठा। सत्तारूढ पार्टी के छात्र संगठन ने इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं किया। हैरत की बात है कि तख्तापलट के बाद दो हफ्ते बाद भी किसी न किसी रूप में हिंसा जारी है। कुछ पता ही नहीं चल रहा है, कौन किसका दुश्मन है और कौन किसे मार रहा है और क्यों। कहीं नेताओं और अधिकारियों के घरों पर हमले हो रहे हैं तो बहुतायत में हिंदुओं के घरों और मंदिरों पर। तोड़-फोड़ व आगजनी के साथ लूट-फूंक हो रही है। हजारों लोगों ने भारत की सीमा पर नदी किनारे और जंगलों में डेरा डाल रखा है। हिंदुओं के नरसंहार के वीडियो भी सामने आ रहे हैं, जिनकी दृष्टांत पत्रिका पुष्टि नहीं करता। 16 सदस्यीय सलाहकार परिषद अंतरिम सरकार के रूप में देश पर शासन कर रही है, जिसमें दो बांग्ला हिंदुओं सुप्रोदीप चकमा और डॉ. बिधान रंजन राय पोद्दार को भी मुखौटे के रूप में शामिल किया गया है।