

संजय राजन
सत्ता के बारे में सदियों से कहा जाता रहा है कि वह पद ही क्या, जिसमें मद न हो। पद का ताप बहुत कम लोग बर्दाश्त कर पाते हैं। दरअसल पद और मद में चीनी व चींटी का रिश्ता होता है, जहां चीनी होती है, वहां चींटी स्वतः चलकर आ ही जाती है। बिना मद के पद को बेकार समझते हैं कुछ लोग, पर वे भूल जाते हैं कि हर पद को एक न एक दिन जाना होता है। कोई नहीं रोक सकता, जाकर ही रहेगा, तब वह सुरूर और गुरूर कहां से लाओगे? इसी मद से मदांध व विवेक शून्य होकर और आपे (खोल) के बाहर जाकर कुछ लोग भले-बुरे में फर्क करने के चक्कर में न पड़कर हर पल को एक मतवाले हाथी की तरह भरपूर जीना चाहते हैं।
इतनी व्यवस्था कर लेना चाहते हैं ताकि निकम्मे व जाहिल बच्चों व उनके बच्चों को बिना हाथ-पैर हिलाए व भेजा खर्च किए सात पुश्तों तक बैठे-बैठे खाने को मिलता रहे। लोग यह भी भूल जाते हैं कि जिन्हें तुम्हारी तरक्की की कथा पता होगी, उनके सामने सिर उठाकर तुम्हारे बच्चे चल नहीं पाएंगे। मूर्ख प्राणी! दुनिया में चलोगे तो धूप से तपती रेत व पक्की सड़क, कंकड़ व पथरीले रास्ते के अलावा कीचड़ भी मिलेगा। पैरों को गंदगी व छालों से बचाने के लिए जूते पहनना ही सौ फीसदी सार्थक सिद्ध होगा, क्योंकि किसी के लिए पास कितना भी पैसा हो, पर पूरी दुनिया की सड़कों पर मखमली कालीन (रेड कॉर्पट) नहीं बिछवा सकता।
जंह-जंह चरण पड़े संतन के, तंह-तंह बंटाधार। यह कहावत इतिहास में प्रथम बार जब प्रचलन में आई होगी, तब जरूर ही शिष्यों ने कुछ ऐसा किया होगा कि उनके संत गुरु के मुख से बरबस ही यह वाक्य निकल पड़ा होगा। आज के दौर में होना चाहिए कि जंह जंह चरण पड़े “भ्रष्टन” के, तंह तंह बंटाधार। दरअसल आजादी से पूर्व अधिकांश लोग नंगे, भूखे, दवे, कुचले व अंग्रेजों द्वारा शोषित थे। उसके पहले मुगलों के सताए हुए थे व बाद में जैसे ही दड़बे के दरवाजे खुले, वैसे ही इन काले अंग्रेजों को मौका मिल गया, वे टूट पड़े और जहां जो कुछ भी जिसे मिला, उसे लूट लिया/चूस लिया।
मधुमक्खी जैसे फूलों को चूसकर शहद निकाल लेती है और छत्ता बनाती है, ठीक उसी तर्ज पर हर तबके के लोग आज भी बिना कोई मौका छोड़े संस्था रूपी फूलों को चूसे ले रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि ये लोग जब कुर्सी छोड़ते हैं तो फूल को कंगला करके ही छोड़ते हैं। हर रोज नए-नए छत्ते बनाते चले जा रहे हैं तो हर साल छत की ऊंचाई बढ़ाते व नए-नए कंगूरे भी बनाते जा रहे हैं। इस दौरान संत कवीर दास जी का दोहा भूल जाते हैं कि “वृक्ष कबहुं न फल भखै, नदी न संचे नीर” यानी जिस प्रकार नदी अपना जल नहीं पी सकती है और पेड़ अपना फल नहीं खा पाते हैं। ये सब परमार्थ-परोपकार के लिए होता है। शहद भी मधुमक्खी के काम न आकर दूसरों के ही काम आता है।

इसी प्रकार येन-केन-प्रकारेण कमाया गया धन भी आज नहीं तो कल दूसरों (बेटा-बहू, बेटी-दामाद और मायका ससुराल) के ही काम आता रहा है। सीने पर बांध कर साथ ले जाने की दुनिया में न परंपरा रही है, न ही यह करेंसी यमलोक में चलती है और न ही कफन में जेब होती है। हाल के साल में जिस प्रकार डांस करते, जॉगिंग करते, जिम में पसीना बहाते, भाषण देते, गाना गाते व भोजन करते या यूं कहें कि चलते-फिरते हार्ट अटैक आदि से तेजी से युवक तक दम तोड़ दे रहे हैं तो फिर अधेड़ों की चर्चा ही व्यर्थ है। उसके बाद भी गलत तरीके व गलत कामों से धन पैदा करने से लोग बाज नहीं आ रहे हैं। इससे अगली पीढ़ी का निकम्मा बनना भी तय है।
बुजुर्गों ने कहा भी है कि “पूत सपूत तो का धन संचै, पूत कपूत तो का धन संचे” यानी कि पुत्र-सुपुत्र है तो धन कमा ही लेगा और कितना भी कमाकर रख लो, यदि पुत्र कुपुत्र निकल गया तो उड़ा ही देगा। चीजों के रूप और स्वरूप में समय के साथ परिवर्तन होता ही रहा है, क्योंकि यही प्रकृति का नियम है और इसे ही कहते हैं समय चक्र। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह को यह कहते हुए राजधानी के सैकड़ों लोगों ने सुना और देखा है कि सामाजिक और राजनीतिक जीवन में सक्रिय लोगों पर किसी न किसी प्रकार का आरोप लग ही जाता है। चूंकि भौतिक दौर है और लोग येन-केन प्रकारेण जल्दी से धनवान बनना चाहते हैं तो गलतियों की संभावना भी उतने ही प्रतिशत बढ़ जाती है। सत्ता काजल की कोठरी है। उससे बेदाग निकलने वाले बिरले ही होते हैं।
सौ कदम आगे की बात प्रधानमंत्री ने 2014 में प्रथम बार देश की सत्ता संभालने पर कही थी कि यह दौर बहुत सतर्क और चौकन्ना रहने का है, क्योंकि हर हाथ में कैमरा (मोबाइल फोन) है। ग्लोबल सोशल मीडिया के दौर में संभल कर चलने में ही भलाई है, पर कुछ लोग हैं, जो सत्ता मद में इतना चूर हो जाते हैं कि सार्वजनिक जीवन के लिए पीएम की करीब दशक भर पहले दी गई नसीहत को भी हल्के में लेते हैं या हो सकता है कि वे इसे दकियानूसी सोच मानते हों। सत्ताधारी दल से संबंधित एक राष्ट्रीय संस्था के कई प्रमुख एक सदी से समय-समय पर कहते रहे है कि “देश नहीं झुकने दूंगा”।
एक अंतर्राष्ट्रीय शख्सियत कहते हैं कि ‘मैं देश नहीं बिकने दूंगा’ व ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’। दूसरी ओर, कुछ दो कौड़ी के ऐसे किमियागर बेस्ट सेलर हैं, जो कह रहे हैं कि सब कुछ बेच दूंगा। ये बंदे गंदे धंधे से अतिरिक्त कमाई के लिए मौके बनाने में जितना दिमाग लगाते हैं, उतना अगर पढ़ाई में लगा दिया होता तो आज जनता इन्हें जोंक, दीमक और ड्रेकुला की संज्ञा से न नवाज कर देश के विकास के मजबूत स्तंभ के रूप में देख रही होती और इतिहास में स्वर्णाक्षरों में नाम भी लिखा जाता। भले ही नेता के दिल में धार्मिक, सामाजिक, पौराणिक व आध्यात्मिक भय शासन पैदा करने में नाकाम रहा हो, पर ये होना नहीं चाहिए था। इसके विपरीत चाबुक (बुलडोजर) का खौफ जरूर जारी रहे, इस पर ध्यान देना इस दौर में बहुत जरूरी हो गया है।
पारिवारिक (माता-पिता व बीवी-बच्चे), राजनीतिक (कमाओ-बांटों) व ऐतिहासिक (चोर के हाथ काटने) भय से तो वह पहले से ही कोसों दूर है। कष्ट में फंसने पर ऐसे दुष्ट व भ्रष्ट लोग हथियार की तरह जाति व धर्म का सहारा लेने पर आमादा हो जाते हैं। जैसे इन्होंने अपनी कमाई का कुछ हिस्सा अपने धर्म व जाति वालों को बांट दिया हो। आजादी के बाद से ऐसे हजारों दृष्टांत देखे जा सकते हैं। नेता जी, ये पब्लिक है, इंटरनेट के दौर में जो नहीं जानती थी, वह भी सब जानने लगी है कि कल आप क्या करते थे? कहां रहते थे और कितने बड़े जागीरदार थे? कुछ इतने बड़े वाले होते हैं कि जानते हुए भी कि दुनिया का कोई भी टेलर कफन में जेब नहीं बनाता, फिर भी इसी प्रयास में लगे रहते हैं पूरे कार्यकाल।
कुछ ऐसा ही कारनामा किया है कि दो बार से बरेली के महापौर डॉ. उमेश गौतम ने। साफ करना जरूरी है कि बी. कॉम के बाद मिलान (इटली) के एक विश्वविद्यालय ने डॉक्टर की मानद उपाधि प्रदान की है। बरेली के पूर्व मेयर डॉ. आईएस तोमर के अलावा एक सामाजिक कार्यकर्ता व भाजपा नेता ने नगर निगम की संपत्ति को खुर्द-बुर्द करके हजारों करोड़ की संपत्ति अर्जित करने का आरोप लगाया, जिसकी जांच भी शुरू हो गई है। इसके विपरीत उन्होंने महज 30 करोड़ की संपत्ति का उल्लेख चुनाव के समय दिए गए हलफनामे में किया था। किला थाना क्षेत्र में रहने वाले जिला सहकारी संघ के पूर्व चेयरमैन महेश पांडे ने प्रधानमंत्री, प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक और प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र भेजकर शिकायत की है। पत्र का संज्ञान लेते हुए एडीएम सिटी सौरभ दुवे को जांच अधिकारी बनाया गया था।

उनका आरोप है कि अवैध कमाई और धन बल के बलबूते मेयर उमेश ने शाहजहांपुर रोड किनारे स्थित बेशकीमती जमीन पर कब्जा कर निर्माण कराया है। इसलिए उन्हें क्या जरूरत है किसी पत्रकार का फोन उठाने या जवाब देने की? मानचित्र भी स्वीकृत नहीं कराया, क्योंकि खुद ही कानून हैं और सारे कानून उनकी जेब में हैं। कानून सिर्फ आम जनता के लिए होते हैं। भाजपा नेता महेश की शिकायत पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने बरेली नगर निगम के महापौर डॉ. उमेश की अकूत संपत्ति की जांच शुरू कर दी है। जांच का जिम्मा बरेली के ही अपर जिला मजिस्ट्रेट (नगर) को सौंपा गया है?
एडीएम कार्यालय की ओर से जारी किए गए एक पत्र में इसकी पुष्टि की गई है। यह पत्र 28 जनवरी 2025 को भेजा गया है। हालांकि इस पर भी लोग सवाल खड़े कर रहे हैं, क्योंकि वे सख्त कार्रवाई देखना चाहते हैं। राजनीति में सफलता का एक यह भी मूलमंत्र है कि लोग जो देखना चाहें, उन्हें वही चीज दिखानी होती है, अन्यथा दांव उल्टा पड़ जाने का खतरा हमेशा बना रहता है। लोग कहते हैं कि ईडी के अपने तौर-तरीके हैं, उन्हें ही अपनाना चाहिए था। कभी लो प्रोफाइल रहे आदमी का हाई प्रोफाइल मामला होने के कारण नाम न छापने पर जिले के एक अधिकारी ने बताया कि किसी भी कार्रवाई के पहले संस्था सुनिश्चित होना चाहती है कि आरोपों में दम कितना है?
कहीं ऐसा तो नहीं है कि वे सिर्फ राजनीति से प्रेरित हो। उधर, थाना किला के खजाना कोठी फूलबाग निवासी महेश पांडे ने 15 दिसंबर 2024 को निदेशक, प्रवर्तन निदेशालय भारत सरकार एवं प्रदेश के मुख्य सचिव को भेजे शिकायती पत्र में महापौर द्वारा पद व अधिकारों का दुरुपयोग कर नगर निगम व अन्य सरकारी संपत्तियों को खुर्द-बुर्द कर एकन्न की गई अकूत संपत्ति की जांच की मांग की थी। इसकी जांच जिलाधिकारी के नौ जनवरी 2025 के आदेश से सौंपी गई थी। बता दें कि महेश पांडे ने ईडी को दी गई शिकायत में मेयर की इनवर्टिस यूनिवर्सिटी व नोएडा और बरेली में कई जगहों पर खरीदी गई चल-अचल संपत्ति का ब्यौरा दिया था।
महेश को सूचना भेजकर प्रमाण सहित उपस्थित होने के लिए कहा गया है। ऐसे में उमेश गौतम की मुश्किलें बढ़ती नजर आ रही हैं, क्योंकि प्रथम दृष्टया सारे ही आरोप सही पाए गए हैं एवं सारे प्रमाण भी उनके खिलाफ हैं। चारों ओर से घिरे मेयर ने विभाग को लिखे एक पत्र में खुद माना है कि उनका कब्जा व निर्माण अवैध है। ऐसे में नगर निगम की धारा 25, 80 व 83 उल्लेखनीय हो जाती है। इसमें लिखा है कि कोई भी निर्वाचित सदस्य नगर निगम से लाभ या संपत्ति को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से नुकसान पहुंचाता है तो वह उस पद पर अनर्ह माना जाएगा।

महापौर जब तक पार्टी में हैं और पार्टी सत्ता में, भला तब तक इस कानून को कौन माई का लाल लागू करवा सकता है। स्थानीय प्रशासन इतना पंगु हो गया है कि वह हाईकोर्ट तक का आदेश लागू नहीं करवा पा रहा है। करीब डेढ़ दशक से ध्वस्तीकरण की कार्रवाई रोक रखी है। ऐसे में कैसे और कब तक सिस्टम पर लोगों का भरोसा कायम रहेगा भला? ज्ञात हो कि सर्वोच्च न्यायालय ने केस संख्या-2306-2307/2017 पांडुरंग बनाम केशव आभा पाटिल में निर्णय दिया था कि कोई ऐसा व्यक्ति सरकार की संपत्ति पर कब्जा करता है या हानि पहुंचाता है तो वह उस संवैधानिक पद पर रहने का अधिकारी नहीं है। चूंकि आरोप सिद्ध हुए हैं और आरोपी ने पत्र लिखकर स्वीकार भी किया है कि बड़े भूखंड पर कब्जा करके कारोबार कर रहे हैं।
ऐसे में ऐसे व्यक्ति को नियम तथा सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार पद पर बने रहने का अधिकार नहीं है। परिस्थितियों के दृष्टिगत कब्जे की जमीन पर किए गए निर्माण को ढहाकर नगर निगम को वापस कराई जाएं। डॉ. उमेश को महापौर पद से शीघ्र बर्खास्त कर हटाया जाए। यह दीगर बात है कि हालात उनके माकूल होने के कारण कुछ साफ-साफ होता दिख नहीं रहा है। दूसरे, जिसकी कुर्सी जाती है, वह निर्भया कांड के दोषियों की तरह सुप्रीम कोर्ट से फांसी होने के बाद भी प्रार्थना पत्र, फाइल व कोर्ट-कचहरी में मामले को कई साल तक खींच देगा, तब तक तो कार्यकाल पूरा हो जाएगा।
अब यह पार्टी पर निर्भर करता है कि पुष्ट हो चुके आरोपों के बाद भी टिकट देती है या नहीं। दूसरे, चुनाव आयोग पर भी निर्भर करेगा कि सीट आरक्षण के हिसाब से किस वर्ग के खाते में जाती है। दूसरी ओर, मुख्यमंत्री को भेजे स्पीड पोस्ट में सिविल लाइंस मकरंदपुर सरकार मिशन कंपाउंड खसरा नं. 103 रकबा करीब 60 एकड़ अथवा दो लाख 16 हजार 160 वर्ग मीटर व खसरा सं. 86 रकचा 35 एकड़ पर स्वीकृत मानचित्रों को निरस्त करने व भविष्य में स्वीकृत न करने की मांग की है। शिकायतकर्ता ने ब्यौरे में कहा है कि रामपुर नबाव द्वारा डॉ. क्लैरा स्वैन को वर्ष 1871 में धर्मार्थ चिकित्सालय चलाने के लिए उक्त भूमि दी गई थी।
इसे आपराधिक षड्यंत्र रचकर कूट, कपट व छल का सहारा लेकर धोखाधड़ी से शासन व बरेली विकास प्राधिकरण के अधिकारियों से मानचित्र स्वीकृत कराकर धड़ल्ले से अवैध निर्माण कराया जा रहा है, जबकि यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है, क्योंकि डेलीगेटेड पॉवर कैन नॉट बी डेलीगेटेड अगेन। यानी कि जो संपत्ति क्लेरा स्वैन को दान में मिली थी। उसे मेथडिस्ट चर्च ऑफ इंडिया के पदाधिकारियों द्वारा कूट व कपट का सहारा लेकर और तथ्यों को छिपाकर मानचित्र स्वीकृत कराए गए हैं। महापौर ने करीब 26 करोड़ की स्टांप चोरी कर मिशन अस्पताल को ज्वॉइंट वेंचर के रूप में धोखाधड़ी से अपने पक्ष में लीज करा ली, जो नियमानुसार हो ही नहीं सकती।
शर्तों में साफ लिखा है कि उमेश गौतम प्रश्नगत भूमि पर मेडिकल कॉलेज बनवाएंगे। लंबा समय बीतने के बाद मेडिकल कॉलेज नहीं बन सका है, उल्टे धर्मार्थ मिशन अस्पताल का व्यवसायीकरण जरूर कर दिया गया। अब बीमार व बेसहारा लोगों से मनमानी रकम वसूली जा रही है। डॉ. गौतम के अलावा इज्जतनगर थाना पुलिस द्वारा चिन्हित भू-माफिया रमनदीप सिंह, हनी भाटिया व उनके गिरोह के सदस्य क्षितिज इंटरप्राइजेज के साझेदार सुमित भारद्वाज, हरीश अरोड़ा, राम बाबू सिंह व रवींद्र सक्सेना आदि ने मेथडिस्ट गर्ल्स इंटर कॉलेज के खेल मैदान को आपराधिक षड़यंत्र रचकर मेथडिस्ट चर्च इन इंडिया मुंबई के पदाधिकारी न्यूटर परमार से अपने पक्ष में लीज करवा ली, जो कि नवाब रामपुर (भूमि के मूल स्वामी) द्वारा निर्धारित शर्तों के विपरीत है।
27 जुलाई 2013 को प्रमुख सचिव, नगर विकास को लिखे गए पत्र में नगर आयुक्त ने कहा था कि ग्राम रजऊ परसपुर स्थित इनवर्टिस यूनीवर्सिटी की भूमि राज्य सरकार में निहित होने के कारण उच्च शिक्षा विभाग द्वारा प्रदत्त अनापत्ति प्रमाण पत्र को निरस्त किया जाए। तर्क दिए थे कि नगर निगम द्वारा तहसील फरीदपुर में स्वच्छता सुधार के लिए ट्रेचिंग ग्राउंड स्थापित करने के लिए राज्य सरकार ने तीन नवंबर को 21.20 एकड़ भूमि अधिग्रहीत करने के लिए गजट किया था। पास में एयर स्टेशन होने के कारण एयरफोर्स के लड़ाकू विमानों को चील और गिद्ध प्रजाति की पक्षियों से खतरा पैदा हो रहा था, लिहाजा भारत सरकार ने सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट एंड ड्रेनेज प्रोजेक्ट मंजूर किया था।
इसका संचालन नगर निगम द्वारा 31 मार्च 2013 से किया जा रहा है। इस पर पहले से कुदृष्टि के कारण मेयर ने परियोजना का समय-समय पर अलग-अलग पटलों पर विरोध किया, जिसे पार्षद अथक प्रयासों से विफल करते रहे हैं। ज्ञात हो कि पास में ही मेयर की इनवर्टिस यूनीवर्सिटी है। कहीं बात न बनते देख इनवर्टिस प्रबंधन ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में स्वयं व सहयोगियों के माध्यम से गलत, भ्रामक तथ्यों को आधार बनाते हुए अपील संख्या-86/2013, 99/2013 एवं 100/2013 योजित कर प्लांट के संचालन पर स्टे प्राप्त करने का प्रयास किया, परंतु नगर निगम द्वारा पूर्ण निष्ठा एवं क्षमता से प्रतिरोध किया गया तथा लगभग साढ़े तीन माह तक प्लांट का सफलतापूर्वक संचालन कराया गया।
इसी बीच उमेश गौतम द्वारा 18 जुलाई 2013 को ट्रिब्यूनल से प्लांट के संचालन को रोकने का आदेश प्राप्त कर लिया गया। इसके चार नुकसान हुए, एक भारत सरकार के करोड़ों रुपए कूड़े में चले गए। दो, कूड़ा सड़क पर आ गया। तीन, जन स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न हो गया और चार, एयरफोर्स के बहुत कीमती लड़ाकू विमानों को पक्षियों से खतरा पैदा हो गया। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के उक्त आदेश के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील योजित की गई। दूसरे, इनवर्टिस यूनीवर्सिटी जिस भूमि पर स्थापित है, उसे एडीएम कोर्ट ने राज्य सरकार की संपत्ति घोषित कर दिया था। बाद में मंडलायुक्त ने उक्त भूमि को राज्य सरकार में निहित कर दिया था।
इस पर हाईकोर्ट से अंतरिम स्थगन आदेश प्राप्त किया गया था। संभावना है कि उसी आदेश को दशति हुए और अवधि को छिपाते हुए उच्च शिक्षा विभाग से अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त किया गया है। विवादित संपत्ति पर अनापत्ति प्रमाण पत्र निर्गत होना ही विधि विरुद्ध है। दूसरे, 18 मार्च 2008 के उपरांत बहुत लंबा अर्सा बीत चुका है। ऐसे में स्टे वैकेट कराकर प्रश्नगत संपत्ति को सरकार की अनुरक्षा में न लिए जाना भी विचारणीय प्रश्न है। यह किसी प्राइवेट पार्टी का काम न होकर शासन और प्रशासन का है। आखिर प्रदेश सरकार के पास करोड़ों रुपए प्रतिमाह डकारने वाली सरकारी वकीलों की लंबी-चौड़ी फौज है।
मंडलायुक्त को भेजे शिकायती पत्र में महेश ने कहा है कि इनवर्टिस यूनिवर्सिटी जिस जमीन पर है। उसे अनूसूचित जाति के व्यक्ति से खरीदा गया है, जिसकी अनुमति जिला प्रशासन से नहीं ली गई। उक्त भूमि गाटा संख्या-38 के रकबा 1.947 हे. भूमि को अपर कलेक्टर प्रशासन ने 24 फरवरी 2007 को राज्य सरकार की संपत्ति घोषित की तथा मंडलायुक्त के आदेश 13 फरवरी 2008 के द्वारा उक्त भूमि को सरकार में निहित कर दिया गया है।
इस पर अब भी आरोपी जबरन काबिज है। नगर निगम की सॉलिड मैनेजमेंट प्लांट की भूमि पर भी अवैध कब्जा है। कब्जे की स्थलीय जांच करवाकर अवैध कब्जों का चिन्हीकरण करके अवैध कब्जे की पुष्टि उपजिलाधिकारी फरीदपुर ने 25 जुलाई 2005 को की थी। 18 फरवरी और 23 मई 2006 को डॉ. उमेश ने नगर आयुक्त को पत्र लिखकर अवैध कब्जे की बात स्वीकार की थी। यह दीगर बात है कि कानून के पहाड़ के आगे खुद को ऊंट समझने वाले आदमी को पहाड़ के नीचे लाने के लिए बहुत लोगों को बहुत पापड़ बेलने पड़े थे।
उन्होंने कहा था कि उनके कब्जे में जो 0.590 हे. भूमि है, उस पर तीन मंजिल भवन निर्मित है, कंप्यूटर प्रयोगशालाएं और सेमिनार हॉल बने हुए हैं इसलिए भूमि को सरकारी दर/शासन द्वारा निर्धारित मूल्य पर उनको हस्तांतरित कर दिया जाए। यहां तक स्थिति यूं नहीं पहुंची थी, बल्कि याचिका संख्या 57564 पर हाईकोर्ट के 15 सितंबर 2005 को दिए गए आदेश के अनुपालन के क्रम में जिलाधिकारी द्वारा निगम भूमि की पैमाइश के लिए सर्वे टीम गठित की गई थी। टीम द्वारा भूमि की हदबंदी कर विस्तार से जांच कर आख्या प्रेषित कर उक्त भूमि पर न सिर्फ अवैध कब्जे, बल्कि अवैध निर्माण की भी पुष्टि हुई थी।
नौ दिन चले अढ़ाई कोस की तर्ज पर करीब डेढ़ दशक बाद 30 जून 2019 को पुनः तत्कालीन नगर आयुक्त के पत्र के क्रम में तहसीलदार फरीदपुर द्वारा स्थलीय जांच की गई। उक्त जांच में भी अवैध कब्जा/निर्माण की पुष्टि हुई। शासन के निर्देश पर आयुक्त ने दो नवंबर 2020 को नगर आयुक्त पत्र लिख दिया। सात नबंवर 2020 को पुनः आख्या भेजी गई, जिसमें बार-बार, हर बार व सौ बार अवैध कब्जे की पुष्टि की गई, किंतु निर्माण को हटाने के संबंध में बरेली से लेकर राजधानी स्तर तक कोई निर्देश नहीं दे पा रहा है।

इससे साफ है कि अधिकारी सिर्फ नौकरी बचाने के लिए आओ, फाइल-फाइल खेलें की तर्ज पर कागज काले-पीले कर रहे हैं, नहीं तो किसी कमजोर या अन्य का कब्जा होता तो कब का बुलडोजर दौड़ गया होता। यह दो रंगी नीति ही शासन पर उंगली उठाने का मौका देती है और लोग मुद्दा बनाते हैं। मंडलायुक्त बरेली को लिखे पत्र में कहा है कि इनवर्टिस विश्वविद्यालय के भवन निर्माण में विश्वविद्यालय परिवार के प्रमुख उमेश गौतम द्वारा अनियमितता बरती गई है। नक्शे की अनुमति हासिल किए विना निर्माण के कारण बरेली विकास प्राधिकरण ने नौ फरवरी 2009 व दो साल बाद फिर 12 जनवरी 2011 में ध्वस्तीकरण का आदेश जारी किया गया था, पर इसके बाद बीडीए भूल गया।
वह भी डेढ़ दशक के लिए क्योंकि आज तक कार्रवाई नहीं की गई है। चूंकि कुलाधिपति नगर निगम के महापौर भी हैं इसलिए अनैतिक दबाव डालकर ध्वस्तीकरण नहीं होने दे रहे हैं। उनसे महेश ने निवेदन किया है कि विषय पर जरूरी कार्यवाही कराएं ताकि जनता का विश्वास सिस्टम में बना रहे एवं उसे यह न लगे कि कानून पैसे वालों का सेवक है। मुख्यमंत्री को लिखे एक और पत्र में महेश ने कहा कि इनवर्टिस के स्वामी व मौजूदा महापौर द्वारा न सिर्फ पद और अधिकारों का दुरुपयोग किया गया है, बल्कि संविधान को भी ताक पर रखकर निगम की बेशकीमती भूमि लगभग 7560 गज पर कब्जा करके अवैध निर्माण भी कर रखा है। इसका बाजारू मूल्य सौ करोड़ से अधिक है।
साथ ही कई बार इसे ढहाने का बीडीए आदेश दे चुका है, पर पद, रुतबे, धन बल व राजनीतिक पहुंच का इस्तेमाल करके नोटिस को करीब डेढ़ दशक से दवाया जा रहा है। इसके विपरीत कमोबेश हर हफ्ते महानगर में अवैध निर्माण के खिलाफ का ध्वस्तीकरण की कार्रवाई की जा रही है या नोटिस जारी किए जा रहे हैं। क्या यह कदम सरकार की छवि के लिए ठीक है? तहसील सदर व फरीदपुर की टीम द्वारा न सिर्फ आधा दर्जन बार पैमाइश की जा चुकी है, बल्कि हर बार कब्जे को अवैध बताया गया है, पर राजनीतिक रसूख व हस्तक्षेप के चलते बार-बार प्रकरण ठंडे बस्ते में डाला जा रहा है, जिससे ठंडा बस्ता भी बहुत बोझिल हो गया है।
अतः व्यापक लोकहित के दृष्टिगत प्राधिकरण अध्यक्ष, उपाध्यक्ष व आयुक्त को अपनी व कानून की साख बचाने के लिए प्रश्नगत अवैध निर्माण को ध्वस्त कराने के साथ साथ नगर निगम की जिस भूमि पर अवैध कब्जा है, को तत्काल कब्जामुक्त कराकर राज्य सरकार को सौंपी जाए। एक ढूंढ़ोगे तो हजार मिल जाएंगे। इसके बावजूद शासन की ओर से कुछ खास नहीं किया जा रहा है और दूसरी ओर जनता है, जो वही ‘खास’ देखना चाहती है। यहां कहना होगा कि सरकार को जीरो टॉलरेंस की आंधी चलानी होगी। रोज 10 को पकड़ोगे और रोज पांच पर बुलडोजर चलाओगे तो दिन कम पड़ जाएंगे, बुलडोजर भी कम पड़ जाएंगे, लेकिन यह चेन कभी खत्म नहीं हो पाएगी।
लॉटरी काउंटर से 2000 करोड़ तक का सफर
लोग ढूंढ़ रहे हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस नीति कहां है? यहां तो भ्रष्टाचार के नाले ही नाले बह रहे हैं, उसके पक्ष में डबल जीरो की कौन बात करे? यहां तो जीरो ही जीरो हैं। लोग मजाक में कहते हैं कि रोज एक जीरो पीछे बढ़ता जा रहा है। जीरो की भी कोई लिमिट होगी। एक दिन कहीं जीरो ही न खत्म हो जाएं। हाल के साल में जब नामांकन के समय हलफनामा दाखिल किया था तो अपनी हैसियत 30 करोड़ के आसपास बताई थी, जो अब कई हजार करोड़ की हो चुकी है। आरोपों की कई बार पुष्टि हो चुकी है, लिखित रूप से खुद भी मान चुके हैं और ध्वस्तीकरण का आदेश हुए डेढ़ दशक होने वाला है।
बुलडोजर बरेली का रास्ता भूल गया है और कहा जाता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस व कानून सभी के लिए बराबर है। राजनीति में आने के बाद से लगातार दो बार बरेली के भाजपा के मेयर बने उमेश की तीन दशक में चमत्कारिक तरक्की देखकर शहरवासी हैरान हैं और अपनी किस्मत को कोस रहे होंगे कि आखिर उनसे कहां पर चूक हो गई कि वे रातों-रात तरक्की नहीं कर पाए? पन्न में दावा किया गया है कि उमेश गौतम वर्ष 1992-93 में महज एक छोटे लॉटरी व्यापारी थे और बरेली कोतवाली के सामने लॉटरी का काउंटर लगवाया करते थे। चूंकि कहीं बैठने की जगह नहीं थी तो किनारे कुर्सी डाले बैठे रहा करते थे।
इसी दौरान कहीं जुगाड़ लग गया, जिससे अवैध संपत्ति अर्जित की और उसके बल पर स्थानीय राजनीति में घुसपैठ करते-करते ऐसी पैठ बना ली कि न सिर्फ महापौर बन गए, बल्कि जमीनें कब्जाकर सैकड़ों नहीं, बल्कि हजारों करोड़ के मालिक बन गए। सिर्फ इंवर्टिस यूनिवर्सिटी ही करीब 2000 करोड़ की बताई जाती है, जिसके कुलाधिपति हैं और आजीवन रह सकते हैं। किताबी नहीं, बल्कि प्राकृतिक कानून यही कहता है कि सूबे में पैसा घर-घर हो सकता है, धनपशु भी शहर-शहर हो सकते हैं और कुल शैक्षिक कुल (स्वायत्त, निजी और सरकारी विश्वविद्यालय) सी हो सकते हैं, पर कुलाधिपति घर-घर और शहर-शहर नहीं हो सकते हैं।
कुलाधिपति सिर्फ और सिर्फ गवर्नर को ही कहने की परंपरा जिंदा रहे, यही लोकहित में है। ऐसे में उन्हें विदेश से कॉपी करके अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, फ्रेंच व इतालवी में कोई भयंकर औरा वाला कोई नाम रख लेना चाहिए। जरूरत पर भी यदि कानून मौन रहा तो आज कोई बी.कॉम पास आदमी कुलाधिपति लिखेगा तो परंपरा समझ अनुसरण करते हुए कल कोई अच्छे नंबरों से मैट्रिक फेल आदमी कुलाधिपति लिखने लगेगा। क्षेत्र कोई भी हो, पर शासन का इकबाल हमेशा इतना बुलंद रहना चाहिए कि पानी के सिर के ऊपर जाने और मनमानी की अति के पहले ही कार्रवाई हो जाया करे तो शिकायत व छिद्रांवेषण के मौके जागरूकों को कम मिलेंगे। शासन-प्रशासन के जिंदा रहते आम जनता को उक्त बातों का बुरा क्यों नहीं मानना चाहिए?
मेहनतकशों को इस बात का बुरा क्यों नहीं मानना चाहिए कि मथुरा में स्थित पैतृक गांव में उमेश के पास नाममात्र की ही संपत्ति है। उससे व कुछ अन्य लोगों की मदद से पढ़-लिख कर उमेश के पिता केके गौतम नागरिक पुलिस में दरोगा बन गए थे। उसी दौरान लॉटरी का काम करने लगे थे। यह दीगर बात है कि मेहनत के दम पर पिता बाद में डीएसपी पद से रिटायर हुए। आज आलम यह है कि मेयर, उनके परिजन और सेवकों के नाम तक कई शहरों में नामी और बेनामी मिलाकर कई हजार करोड़ की संपत्ति है।
आरोप है कि उक्त के ही नाम करीब 15 करोड़ के लग्जरी वाहन है, जो बरेली, नोएडा और दिल्ली के पते से पंजीकृत हैं। इसके अलावा सिविल लाइंस में डाकखाने के सामने कई करोड़ की कोठी, नोएडा के सेक्टर-36 में डी-130 मकान व सेक्टर 71 में बी-23 आदि संपत्तियां उमेश व परिजनों के नाम प्रकाश में आई हैं। इनकी कीमत भी करोड़ों में बताई जा रही है। मेयर पर सरकारी धन का बंदरबांट करके कई सौ करोड़ की संपत्ति अर्जित करने का भी आरोप है। पद व अधिकारों का दुरुपयोग कर सरकारी संपत्ति को खुर्द-बुर्द किया, जिसके कारण आय के स्रोतों से कई सौ गुना अधिक की हैसियत हो गई है पड़ोसियों के देखते-देखते ।
पूर्व मेयर ने भी खोल दिया है मोर्चा
मामला सरगर्म देखकर पूर्व मेयर डॉ. आईएस तोमर ने भी नगर आयुक्त को एक शिकायती पत्र लिख मारा। उन्होंने कहा है कि ग्राम रजऊ परसपुर तहसील फरीदपुर स्थित गाटा संख्या 38 रकबा 1.947 हे. और गाटा सं. 42 रकबा 3.225 हे. भूमि की खरीद-फरोख्त अवैध है, जिसका वाद संख्या-03/2006-07 सरकार बनाम मनोज कुमार मसीह अपर कलेक्टर प्रशासन के यहां चला था। 24 फरवरी 2007 के निर्णय में कहा गया था कि क्रमशः आंशिक व पूर्णरूप भाग से विक्रेता नेवाराम पुत्र पुत्तूलाल व जगत पत्नी पुत्तूलाल व क्रेता मनोज कुमार मसीह पुत्र मुकुंदीलाल सदस्य बाहैसियत उत्तराचंल वेलफेयर सोसाइटी निवासी बी-186 सिविल लाइन, बरेली तथा दूसरे केस में विक्रेता सुरेश पाल पुत्र रघुनाथ व क्रेता मनोज कुमार मसीह पुत्र मुकुंदीलाल का नाम निरस्त कर उक्त भूमि राज्य के नाम अंकित की जाए तथा मनोज कुमार मसीह को बेदखल करते हुए राज्य को कब्जा दिलाया जाए।
साथ ही आदेश के अनुपालन की प्रति तहसीलदार फरीदपुर व अवर न्यायालय को पत्रावलियों के साथ भेजी जाए। इस पर मनोज ने न्यायालय कमिश्नर के समक्ष निगरानी सं. 232/2006-07 दायर की गई। सुनवाई के उपरांत 13 फरवरी 2008 को कहा गया कि इस प्रकार विवादित भूमि का हस्तांतरण धारा-157 क के प्रावधानों से बाधित होने के कारण विवादित भूमि धारा-167 (1) के अंतर्गत हस्तांतरित होकर राज्य सरकार में निहित हो चुकी है। अवर न्यायालय द्वारा पत्रावली पर उपलब्ध साध्य को स्वतंत्र रूप से विवेचना कर सकारण एवं विस्तृत आदेश पारित करते हुए निगरानीकर्ता के विवादित भूमि से बेदखल किया गया है। अतः आदेश में हस्तक्षेप का औचित्य नहीं पाया जाता है। निगरानी निरस्त की जाती है। दो जगह से हारने के बाद मनोज ने उच्च न्यायालय में सिविल रिट संख्या-13151/2008 दायर कर स्टे प्राप्त कर लिया।
एक बात लोग नहीं समझ पाते कि छोटे-बड़े हर मामले में स्टे देकर हाई कोर्ट दावा की हवा क्यों निकाल देता है? जरा सा और टाइम देकर चीजें मेरिट पर क्यों नहीं होती हैं? ताज्जुब है कि 2008 में प्राप्त स्टे एक दशक से अधिक समय तक बरकरार रहा। आमतौर पर जो स्टे दिए जाते हैं, वे सावधि होते हैं। याचिका में तहसीलदार द्वारा प्रति शपथ पत्र दाखिल किया गया था, किंतु इनवर्टिस प्रबंधन की मिलीभगत व दबाव के कारण केस को सुनवाई पर नहीं लगने दिया गया ताकि अरबों रुपए की लगभग 60 एकड़ सरकारी भूमि पर अवैध रूप से इनवर्टिस काबिज रहे। 2013 में तत्कालीन नगर आयुक्त ने 27 जुलाई को इनवर्टिस यूनिवर्सिटी की मान्यता निरस्त करने के लिए प्रमुख सचिव नगर विकास को विस्तार से पत्र लिखा था, किंतु शासन स्तर से कोई ठोस कार्रवाई नहीं हो पाई थी। लोकहित को सर्वोपरि रखने के लिए सभी विभागों को हाईकोर्ट में लंचित रिट याचिका की उचित पैरवी करनी चाहिए।
पालने में ही दिख गए थे पांव
बड़े-बुजुर्ग कहते रहे हैं कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। शिकायतकर्ता महेश पांडे की मानें तो बरेली के भी इस केस में ऐसा ही हुआ। मुख्यमंत्री को ही लिखे एक और पत्र में उन्होंने बताया है कि नगर निगम द्वारा अवस्थापना निधि से निगम भवन बनाने के लिए सदन में प्रस्ताव पारित होने एवं शासन से अनुमति के उपरांत सरकारी संस्थाओं से निर्माण तय हुआ था, कोटेशन भी ली गई और समाज कल्याण विभाग की दर न्यूनतम थी, लिहाजा लगभग 1284.87 लाख रुपए में काम दे दिया गया। शासन ने भी 12 अगस्त 2016 को अनुमोदन कर दिया।
निगम ने यूपीपीसीएल से अनुबंध किया, जिसके बाद मिटूट्टी का परीक्षण भी हो गया। इसी बीच नवंबर 2017 में निगम के चुनाव हो गए व डॉ. आईएस तोमर को हराकर डॉ. उमेश गौतम पहली बार मेयर बने। राजनीति के नौसिखिए डॉ. उमेश ने तत्कालीन नगर आयुक्त राजेश श्रीवास्तव से मिलकर पहला काम अनुबंध निरस्त करने का किया। इसे नए आदमी का दुस्साहस ही कहेंगे कि किस तरह उत्तर प्रदेश सरकार के आदेश की अवेहलना करते हुए चहेते ठेकेदार को गाजियाबाद से लाकर वही काम 20 करोड़ में दे दिया। इस तरह मेयर ने निगम के जरिए राजकोष को लगभग आठ करोड़ का नुकसान पहुंचाया। उसके बाद आरोपी की कार्यशैली और उदंड होती चली गई और रोज नए-नए किस्से आम होने लगे थे, जो कि आज भी थमने का नाम नहीं ले रहे हैं।
बताते हैं कि भवन में बहुत ही घटिया सामग्री का इस्तेमाल किया गया। बात मीडिया तक पहुंची तो ठेकेदार पर एक लाख का जुर्माना भी प्रशासन द्वारा लगाया गया था। इसके बावजूद भवन निर्माण पूर्ण नहीं हो सका है, लिहाजा निगम को हस्तांतरित करने का सवाल ही नहीं उठता। एक उच्च स्तरीय कमेटी गठित कर जांच कराई जाए ताकि अमीर-गरीब सबके लिए कानून बराबर है, का भाव किसी तरह जनता की नजर में जीवित बना रहे। साथ ही जनहित में क्यों न घपलों व घोटालों के लिए जिम्मेदार जनप्रतिनिधि से वसूली की जाए?