
कैलाश गहलोत का इस्तीफा दिल्ली में आम आदमी पार्टी के लिए एक बड़ा झटका है, क्योंकि उन्होंने अरविंद केजरीवाल की सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं। दिल्ली के विकास की बजाय ‘आप’ सरकार का सारा समय केंद्र सरकार से झगड़ा करने में बीतने की बात कहकर गहलोत ने आम आदमी पार्टी की एक बड़ी कमजोरी को उजागर किया है, जो ‘आप’ के लिये एक बड़ा राजनीतिक संकट का संकेत है। यह आरोप पार्टी की शासन व्यवस्था और उसके द्वारा किए गए चुनावी वादों को पूरा न करने से संबंधित हैं, जो पार्टी की साख पर सीधे सवाल खड़ा करते हैं। इसके अलावा, गहलोत के इस्तीफे ने पार्टी के अंदर के असंतोष और उसकी अंदरूनी राजनीति को उजागर किया है, जो पहले से ही कई बड़े नेताओं के पार्टी छोड़ने के कारण कमजोर दिख रही थी।
यह सच है कि आम आदमी पार्टी के गठन के समय केजरीवाल और उनके साथी भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन के प्रतीक थे, लेकिन समय के साथ पार्टी में आई राजनीतिक और प्रशासनिक चुनौतियों ने उसे विवादों और आंतरिक संघर्षों से घेर लिया। जैसे-जैसे पार्टी का दायरा बढ़ा और सत्ता में आई, इसके नेतृत्व में कई मुद्दे उभरे, जिनमें आंतरिक मतभेद, नीतिगत विवाद और आरोप-प्रत्यारोप प्रमुख हैं। गहलोत का इस्तीफा इन सारी समस्याओं का एक नये मोर्चे पर खुलासा करता है। नेताओं के पार्टी छोड़ने की घटनाएँ, जैसे कि किरण बेदी, कुमार विश्वास, आशुतोष, आशीष खेतान, शांति भूषण, प्रशांत भूषण, और योगेंद्र यादव, यह साफ संकेत देती हैं कि पार्टी में नेतृत्व और विचारधारा को लेकर गंभीर मतभेद रहे हैं। इससे पार्टी की छवि को भी नुकसान हुआ है और उसके कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच असमंजस की स्थिति पैदा हुई है।
अरविंद केजरीवाल का नेतृत्व भी अब आलोचनाओं का सामना कर रहा है। कभी “आम आदमी” के संघर्ष के प्रतीक रहे केजरीवाल अब अपनी नीतियों और उनके कार्यान्वयन में विफलता को लेकर आलोचनाओं का शिकार हो रहे हैं। यह सब इस बात का संकेत है कि पार्टी को अब अपनी दिशा और नेतृत्व के मामले में गंभीर आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है।अगर आम आदमी पार्टी को अपने अस्तित्व और प्रभाव को बनाए रखना है, तो उसे अपने आंतरिक मुद्दों को सुलझाने के साथ-साथ अपने राजनीतिक मूल्यों को पुनः परिभाषित करने की जरूरत होगी। इसके अलावा, उसे अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं के साथ बेहतर संवाद और समझ विकसित करनी होगी, ताकि वह इस संकट से बाहर निकल सके।
कैलाश गहलोत ने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल और दिल्ली की सीएम आतिशी को इस्तीफा भेजा है। दिल्ली की सीएम आतिशी ने गहलोत का इस्तीफा स्वीकार कर लिया है। गहलोत ने अपने पद और पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देते हुए एक लम्बा पत्र केजरीवाल को भेजा है। उन्होंने इस्तीफे में यमुना की सफाई और शीशमहल निर्माण का मुद्दा उठाया है। गहलोत ने पत्र में आरोप लगाते हुए लिखा है कि जिस ईमानदार राजनीति के चलते वह आम आदमी पार्टी में आए थे, वैसा अब नहीं हो रहा है। उन्होंने पार्टी के संयोजक व पूर्व सीएम अरविंद केजरीवाल के सरकारी आवास को शीशमहल करार देते हुए कई आरोप भी लगाए हैं। ऐतिहासिक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जन्मी इस पार्टी का यह हश्र एवं दूरगति राजनीतिक महत्वाकांक्षा का परिणाम है। आम आदमी पार्टी खुद को ईमानदारी के उच्चतम मानकों पर रखने का दावा भले ही करती रही हो, लेकिन उसने सत्ता का दुरुपयोग करते हुए राजनीतिक एवं नैतिक मूल्यों को ध्वस्त ही किया है। आप का उदय एक ताज़ी हवा का झोंका था लेकिन आज वह दूषित राजनीति का पर्याय बन गया है।
‘आप’ टकराव की राजनीति में व्यस्त रही, अच्छे गवर्नेंस और बेहतर राजनीति का दामन उसके हाथ से लगातार छूटता रहा। दिल्ली में पार्टी ने असंख्य मुद्दे उठाये लेकिन वह इन सबको आखरी मंज़िल तक नहीं पहुंचा पायी। यह भविष्य ही बताएगा कि कैलाश गहलोत का त्यागपत्र आम आदमी पार्टी को राजनीतिक रूप से महंगा पड़ेगा या नहीं, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि उन्होंने अपने इस्तीफे में जिस तरह ‘आप’ की गलत नीति एवं केजरीवाल की अति-महत्वाकांक्षाओं का जिक्र किया, वह अरविंद केजरीवाल के साथ-साथ पूरी आम आदमी पार्टी की साख को करारा आघात देने वाला है। यह एक तथ्य है कि आम आदमी पार्टी आज तक इस प्रश्न का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे सकी कि आखिर अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री रहते अपने सरकारी आवास की साज-सज्जा पर 45 करोड़ रुपये खर्च करने की क्या जरूरत थी? कैलाश गहलोत ने अपने पत्र में यह भी आरोप लगाया है कि ‘आप’ अपनी रीति-नीति से भटक गई है।
केजरीवाल और उनके सहयोगी इससे सहमत नहीं होने वाले, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘आप’ की भ्रष्टाचार विरोधी राजनीतिक दल की छवि का बहुत अधिक क्षरण हुआ है। ‘आप’ ने नई तरह की एवं मूल्यों की राजनीति करने के जो तमाम दावे किए थे, वे दावे यदि खोखले नजर आने लगे हैं तो इसके लिए अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगी अन्य किसी को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। एक बड़ा सवाल है कि ‘आप’ की इस दुर्दशा के चलते क्या वह दिल्ली पर अपनी मजबूत पकड़ को क्या कायम रख पायेगी? क्या दिल्ली में भाजपा या अन्य दलों के लिये अब सत्ता तक पहुंचने की संभावनाएं बढ़ गयी है?