राजकोष के लुटेरे (पार्ट-2)

टी. धर्मेंद्र प्रताप सिंह

बीते सात साल की बात करें तो कम से कम सात ऐसे बिंदु हैं, जिनका जमकर फायदा ब्यूरोक्रेसी द्वारा उठाया जा रहा है। 21वीं सदी में तो ऐसे पानी भी बहाने पर रोक है, जैसे उत्तर प्रदेश में शेख चिल्ली की तरह ऊलूल-जुलूल प्रोजेक्ट पेश कर पैसे बहाए जा रहे हैं। इतना ही नहीं, कैबिनेट से पास भी कराए जा रहे हैं। हालात देखकर ऐसे लगने लगा है, जैसे प्राथमिकताएं जाहिर करके सूबे के मुखिया ने कोई गलती कर दी हो। माना कि एक्सप्रेस-वे सहित कई बिंदु उनकी प्राथमिकता में रहे हैं, लेकिन इसका यह कदापि मतलब नहीं कि बिना सिर-पैर की योजनाएं मंजूर करवाकर राजकोष को लूट लिया जाए। राजकोष के मनमाने इस्तेमाल व लूट की छूट किसी को नहीं दी जा सकती, क्योंकि वह जनता जनार्दन का है।

तो संविद सरकारों के दौर में होता था, जहां अगला माह और हफ्ता छोड़िए, अगला दिन तक अनिश्चित होता था। सुरक्षित कल के वातावरण के बावजूद यहां तो बड़का बाबू की अगुवाई में कल के बाद परसों वाली पीढ़ी को भी सुरक्षित बनाने की कवायद हो रही है। मसूरी-देहरादून की घाटी से लेकर रंगून के पास वाले ढाका की गलियों तक की चोरी व लूट देखने के बाद भी। ऐसे में सवाल पूछना लाजिमी है कि कथावाचक की तरह इतनी हड़बड़ी क्यों है भाई? एक प्रसंग है कि कई दिन कथा के हो चुके थे और चढ़ावे के चक्कर में आगे बढ़ने का नाम ही नहीं ले रही थी कि कल भगवान का यह प्रसंग है तो घरों से यह लेकर आएं। कल जन्म है तो यह लेकर आएं और कल विवाह है तो कलेवा के लिए यह लेकर आएं।

मोहल्ले की महिलाएं यह सब करने के लिए आतुर थीं तो अपेक्षाकृत कम आमदनी वाले सज्जन सीधे आयोजक के ही पास पहुंच गए और मुंह फुलाकर विरोध दर्ज कराया कि यह सब क्या ड्रामा चल रहा है कई दिन से? बात कथावाचक तक पहुंची और कथा भी धीरे से अंतिम दिन में तो उन्होंने दोनों हाथों से बटोरने के लिए बचे हुए जितने भी प्रसंग थे, सब सुना डाले आखिरी दिन। ज्ञात हो कि पौराणिक ग्रंथों में कई जगह प्रसंग यह भी मिलता है कि देवताओं के एक दिन के बराबर होता है मानव का एक साल। उस कथावाचक जैसा ही हाल है इस किमियागर का भी। करीब 15000 करोड़ खर्च करके चंद साल पहले बनाए गए लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे को छह से बढ़ाकर आठ लेन करने का सन्नाटे को चीरता व नया सनसनाता हुआ झन्नाटेदार शिगूफा प्रदेश के सबसे बड़े किमियागर व शिल्पकार ने छोड़ा है, वह भी मात्र 2000 करोड़ से।

हैरत हुई काबिल विपक्ष के मुंह से इस पर भी एक भी शब्द न सुनकर। खुद को धरती का एकमात्र ज्ञानी समझना, खुद को अंधेरे में रखने जैसा ही होता है। राम जानें उनके मन में चल रही बात बाहर वाले कैसे जान जाते हैं और वह कितना ऊंचा उड़ सकते हैं, बहुत ही कम दिनों में बहुत ज्यादा लोग जानने लगे हैं? इतना ज्ञान लाते कहां से हो बंधु, क्योंकि इतना तो मेटा, याहू, गूगल, आस्क, यू-ट्यूब, एक्सप्लोरर, मोजिला फायरफॉक्स, चैट जीपीटी और माइक्रोसॉफ्ट बिंग आदि सर्च इंजनों के भी पास नहीं है? क्या एलियन (अन्यत्र जीवन) की संभावना वाले मंगल ग्रह का कोई कनेक्शन ले रखा है गुरू जी आपने? कैबिनेट में तो घाट घाट का पानी पी चुके तपे-तपाए व पके-पकाए लोग बैठे हैं, कैसे उनसे पास करा लेते हो इस तरह की बेवकूफ बनाने वाली योजनाएं?

इस पर एक रिटायर  ब्यूरोक्रेट कहते हैं कि ब्यूरोक्रेट रहता है औसतन 35 साल, जबकि इतने साल में कैबिनेट में 100 से अधिक चेहरे आते-जाते रहते हैं इसलिए कैबिनेट तो करीब-करीब उनकी जेब में ही रहती है, क्योंकि कैबिनेट को चलायमान रखने के लिए आईएएस प्राणवायु की तरह होते हैं। एक-दूसरे के पूरक व मिले होने के कारण एक तो कभी कोई मामला फंसता नहीं है और यदि गलती से कभी कुछ फंस भी गया तो और भी तरीके होते हैं उसे हल करने के। दूसरे, शातिर लोगों का ध्यान नए ठेके उठाने पर होता है, न कि पुराने को समयबद्ध व चरणबद्ध तरीके से पूर्ण कराने पर। इसी कारण बड़ी खोपड़ी का बड़ा दिमाग हमेशा नई कार्ययोजना प्रस्तुत करने में ही लगाते हैं बड़का बाबू।

दीगर बात है कि चार नई सिरफिरी योजनाएं बेशक पेश करें, पर पुरानी का भी हाल-चाल लेने की पढ़ाई भी पढ़ ली होती तो प्रदेश और प्रदेशवासियों का ज्यादा भला कर सकते थे आप। पुरानी योजनाओं की कभी-कभी समीक्षा करना इसलिए भी जरूरी होता है कि कहीं किसी कारण से प्रदेश के मुखिया की छवि बिगड़ तो नहीं रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि उनका वचन मिथ्या साबित हो रहा हो। भूल गए हो तो याद दिला दूं कि मुख्यमंत्री की प्राथमिकता में आगरा एक्सप्रेस-वे कभी नहीं रहा, अलबत्ता गंगा एक्सप्रेस-वे था और है। शिलान्यास के समय उन्होंने कहा था कि जनवरी 2025 के महाकुंभ में इससे ही मेरठ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के श्रद्धालु संगम स्नान के लिए जाएंगे, पर आपके राज में क्या हुआ? उनकी बात को सच साबित करने में थोड़ा सा दिमाग और जोर लगाते तो वह भी खुश होते व जनता भी।

कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि पुरानी में जिनको दिमाग लगाना था, लगा गए। अब उसमें ज्यादा समय खर्च करने से कोई खास लाभ नहीं होने वाला इसीलिए नए शिगूफे पेश किए जाते हैं। निम्न दो बिंदुओं को दो-दो मिनट दे देते तो प्रधानमंत्री की भी इज्जत में चार चांद लगा सकते थे आप अपने नन्हें-नन्हें हाथों से। हजारों करोड़ खर्च करने के बाद भी आज तक अमृत जल योजना का अमृत हजार लोगों के भी घर नहीं पहुंच सका है। कई हजार करोड़ से बनाई गई प्रदेश भर की सड़कें अलग से खोद डाली गईं, जो ऊबड़-खाबड़ पड़ी हैं। हजारों करोड़ से करीब दर्जन भर शहरों को स्मार्ट बनाना था, उसकी समीक्षा कर लेते कि कितना स्मार्ट हो सके हैं हम, क्योंकि पैसा हजम होते ही तमाशा खत्म हो चुका है?

बड़े बाबू ने उतरते साल में आगरा एक्सप्रेस-वे का दौरा किया था 2000 करोड़ गलाने के नजरिए से, वैसे तो दिल्ली, आगरा व नोएडा जाने के क्रम में निर्बाध सुरक्षित यात्रा के साथ पहले 50 बार देख ही चुके हैं, लेकिन सोचने की बात यह है कि क्या जनता और उसके सिरमौर को बिल्कुल ही बौका मानकर चल रहा है यह आदमी? बड़े-बुजुर्ग तो यही कह गए हैं कि ज्यादा उड़ने वाले ही मुंह के बल गिरते हैं। दूसरों के कंधों पर बंदूक रखकर फायरिंग में माहिर इस ‘शॉर्प शूटर’ ने एसपी अमित आनंद से भी जिले की सीमा तक की मनमाफिक सर्वे रिपोर्ट मंगा ली थी। वह पाप ही क्या, जिसमें चार लोगों को शामिल न कर लिया जाए? कहा भी जाता है कि दो नंबर के धंधों में ही सर्वाधिक ईमानदारी होती है। चूंकि पूरे प्रदेश में पीआईएल के लिए किसी के पास पैसे हैं नहीं तो कमोबेश रोज (काम के दिनों में) ही किसी न किसी बात पर स्वतः संज्ञान लेने वाले बड़े बाबा ही इस उड़ते जहाज की रफ्तार को काबू करने के लिए अब कुछ कर सकते हैं, नहीं तो जेट की रफ्तार जैसी जिस जल्दी में है, उससे तो यही लगता है कि अलादीन का चिराग लेकर बाबा का कथित विश्वासपात्र बड़का बाबू शेख चिल्ली की तरह जिन्न से एक ही रात में आगरा तक कहीं नई  सड़क न बनवा डाले।

इस बीच शासन ने 1939 करोड़ मंजूर कर दिए हैं और प्रदेश का डरे हुए विपक्ष में मौत सा मौन है। निजी कंपनी के जरिए नए नवेले एक्सप्रेस-वे का नवीनीकरण कराया जाएगा। साथ ही ज्यादा टोल वसूला जाएगा। संक्षेप में बता दूं कि कार लेकर एक्सप्रेस-वे पर पहुंचा बंदा कम से कम दर्जन भर चीजों पर विभिन्न प्रकार के टैक्स पहले ही दे चुका होता है। अगर नेकर व बनियान पर जोड़ दूं तो दो दर्जन बार। जैसे वाहन बीमा, रोड टैक्स, टायर, पेट्रोल पर कर, सेस व जीएसटी आदि। अब सिर्फ कपड़े उत्तारने ही बाकी हैं, वह भी बीच सड़क उत्तरवाने की पेशबंदी बड़का बाबू ने कर दी है। यूपीडा को जिम्मेदारी देते समय घटिया तर्क दिया गया है कि प्रोजेक्ट में यात्रियों की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा जाएगा।

साफ है कि इससे पूर्व जितने हाईवे व एक्सप्रेस-वे बने हैं, उनमें ध्यान नहीं रखा गया था। क्या बड़े बाबू गारंटी लेंगे कि अब कोई हादसा नहीं होगा? तकलीफों की सूची मांगने की तकलीफ उनसे करो, जिनका अक्सर तकलीफों के साथ याराना, उठना-बैठना या आना-जाना हो। यह कौन सी बात हुई कि लाव-लश्कर के साथ आगरा की ओर कुछ कदम गए और फैसला सुना दिया। हैरत की बात है कि मौके पर मौजूद स्वयंभू बड़े-बड़े आलिम-फाजिल ने हां में सिर हिलाया। किसी एक में यह कहने का नैतिक बल नहीं था कि इसकी कोई जरूरत नहीं है अगले दो-तीन दशक तक। अहं ब्रह्मास्मि हो रहे हो बिल्कुल। दिमाग इधर भी कम नहीं है, लगा दूंगा तो आप भी नहीं जान पाओगे। बस मंच नहीं है। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा, जिनके दिमाग अच्छे हैं, उनके पास मंच नहीं हैं और जिनके पास मंच ऊंचे, बड़े व अच्छे हैं, उनके दिमागों में अच्छाई का अमृत कम होता है तो बुराई का बवंडर ज्यादा।

केवल ठेका उठाने में ही रुचि थी तो मन ही मन में अपनी गोमती को टेम्स घोषित कर उदगम (पीलीभीत) से लेकर गंगा जी से मिलन (गाजीपुर) तक पक्का बंधा बनवाकर और दोनों तटों पर फोर-फोर लेन हाईवे बनवा देते तो 2000 करोड़ क्या, दो लाख करोड़ (क्रूज, पार्क, मेले, झूले व माल परिवहन आदि मिलाकर) आराम से एडजस्ट हो जाते? दोनों किनारे के गांवों में रहने वाले लाखों लोग भी हमेशा-हमेशा के लिए सुरक्षित होने के साथ खुश हो जाते। गाय भी तो मुख्यमंत्री की प्राथमिकता में शामिल है। गोवंश की संख्या प्रदेश में 12 से 15 लाख बताई जाती है।

इसमें कितने के पास सहारा है व कितने बेसहारा हैं, कितने के पास जाड़े में ओढ़ने-बिछाने के लिए कुछ है और कितने के पास चारा है? किसी को भी ठीक-ठीक पता नहीं हैं, पर इतना सबको पता है कि जितने बेसहारा हैं, सबकी हालत पतली है, जाड़े में और भी पतली हो जाती है। सभी के लिए जाड़े में सौ-दो सौ करोड़ से एक-एक जूट का कोट बनवा देते तो कम से कम पशुओं की दुआएं ही वैतरणी पार कर देतीं क्योंकि उक्त सिरफिरी हरकतों के कारण इंसान तो देने से रहा। अरबों खर्च करने के बाद गोशालाओं में जिन्हें बंद किया गया है, वे निर्बल व जर्जर काया हो गई हैं तो कई करोड़ से सबको विटामिन व कैल्सियम की एक-एक शीशी पिलवा देते तो बड़े आराम से 2000 करोड़ एडजस्ट हो जाते।

आज भी सूबे की अधिकांश सड़कों पर हजारों गोवंश टहल रहे हैं, जो रात क्या, दिन में भी दो पहिया सवारों के लिए जानलेवा साबित हो रहे हैं? उनके लिए कुछ और कर देते तो भी सैकड़ों करोड़ एडजस्ट हो जाते बड़े आराम से। बेमौसम एक्सप्रेस-वे पर कूदने से पहले उस रात की अगली रात को ही चुल्लू भर पानी मंगवा लिया होता डूबने के लिए, जिस रात तीन युवा पुल के आगे संपर्क मार्ग बीती बारिश में ही बहने के कारण असमय ही जान गंवा बैठे थे  इसी प्रदेश में और राजधानी से महज 250-300 किमी की दूरी पर। वह जुरिडक्शन किसका था, जिम्मेदारी किसकी थी, उसमें कार्रवाई क्या की गई है अब तक और क्यों नहीं क्रिमिनल धाराओं में केस दर्ज हो सकता है?

कितनों को सजा मिली और कितनों से जबरन इस्तीफा लिया गया? पहले भी ऐसी ही बेवकूफी कानपुर-लखनऊ एक्सप्रेव के नाम पर 4700 करोड़ रुपए से हो चुकी है एलीवेटेड रोड के नाम पर। निंदनीय यह है कि जब पूरे ट्रैफिक को निकालने के लिए ओरिजिनेटिंग प्वॉइंट गंगा जी पर पुल (जाजमऊ) फोर लेन ही है तो फिर 12 लेन (दोनों मिलाकर) रोड का क्या मतलब या तो दिल्ली-इटावा-झांसी-भोपाल-मुंबई के ट्रैफिक के लिए नया पुल बनाया होता। पूरा ट्रैफिक उसी पुराने संकरे पुल से निकलकर पांच-सात किमी लखनऊ की ओर बढ़ता है, फिर गोल चक्कर मारकर अपनी ही रोड को मुंह चिढ़ाते हुए सिर पर से गुजरता है बदरका व रायबरेली की ओर चला जाता है 20-22 किमी, फिर उन्नाव का पुरवा मौरावां (30-32 किमी) आदि टहलाते हुए सई नदी को पार करके बनी बंथरा में आकर फिर पुराने हाईवे के सिर पर सवारी करते हुए हवाई अड्डे की ओर आता है।

इस तकनीक की व्याख्या सिर्फ और सिर्फ किमियागर ही कर सकता है। पुरानी सड़क से शुरू होकर पुरानी में ही मिलाना था तो इसे पूर्वी उन्नाव के चार-छह ब्लॉक तक घुमाने, टहलाने व बीसों किमी का अतिरिक्त चक्कर लगवाने की क्या जरूरत थी? दो साल से हाईवे का ट्रैफिक रो रहा है अलग से और न जाने कितनों को जीवन भर का दर्द दे गया? उस पर भी तुर्रा सिंगापुर और दुबई जैसे लुक का। इससे बेहतर था कि दो के बजाय चार साल से लेते, वैकल्पिक रास्तों का इस्तेमाल कर लेते, पर सिंगापुर का लुक तो तब आता, तब गंगा जी पर दूसरा फोर लेन पुल बनता या रामादेवी (कानपुर) से पूरा 75 किमी एलीवेटेड फोर लेन पुराने एनएच-27 के डिवाइडर पर ही बनाया जाता।

हैवी ट्रैफिक नीचे फोर लेन पर हो जाता और लाइट ऊपर की फोर लेन पर या जिसमें भी सहूलियत होती। महज आधे पैसे में इतना अच्छा बनता कि वाकई आधी दुनिया के लोग केस स्टडी के लिए आते। ज्ञात हो कि दो दशक बाद अब भी कई फ्लाईओवर सोहरामऊ व बंथरा में बनने बाकी थे, जबकि उन्नाव में एक चार-पांच साल पहले बन सका है तो दूसरा सिर्फ चार-पांच माह पहले। पुराने कानपुर-लखनऊ हाईवे के समानांतर पूर्व (बक्सर) में और पश्चिम (बिठूर) में दो-दो लेन के दो स्टेट हाईवे हैं। दोनों जगह गंगा जी पर अपेक्षाकृत नए पुल भी हैं। अगर उन दोनों रोड को कम पैसे से विकसित कर दिया जाता तो एनएच-27 पर लोड अपने आप कम हो जाता या इसे ही सिक्स लेन कर देते। पहले और भी गंदे काम हो चुके हैं।

करीब 20000 पेड़ों की कुर्बानी पर करीब 2000 करोड़ की लागत से बनाए गए प्रयागराज जाने वाले सिक्स लेन उन्नाव-लालगंज हाईवे शुरू हुए अभी एक साल भी नहीं हुआ है और अगले एक साल में ठीक बगल से गंगा एक्सप्रेस (56000 करोड़) वे शुरू हो जाएगा। दोनों ही तीर्थराज प्रयाग जा रहे हैं। तीसरा दो-चार किमी आगे गंगा जी के उस पार कानपुर से फतेहपुर होते हुए जा रहा है। ऐसा लगता है कि पूरे देश को ही प्रयागराज भेजने की योजना कई साल पहले ही बना ली गई थी। दो सड़कों के बीच में कहीं-कहीं पर दूरी सिर्फ एक किमी ही है।

इस पर खड़े होकर उस रोड पर घूम रहे कुत्ते गिने जा सकते हैं और उस पर से इस रोड की बकरियां। कोई बताने वाला नहीं है कि किस किताब में लिखा है कि दो चौड़ी सड़कों का मर्जर नहीं हो सकता या पहली के डिवाइडर पर पिलर देकर एलीवेटेड रोड नहीं बनाई जा सकती। आखिर बनी बंथरा (लखनऊ) से लेकर अमौसी एयरपोर्ट तक तो बनी ही है तो उन्नाव पार करते ही दोनों महासड़कों का मर्जर क्यों नहीं किया गया? ब्यूरोक्रेसी को शायद यह प्रस्ताव इसलिए नहीं पसंद आया होगा, क्योंकि जमीन अधिग्रहण अनिवार्य अंग है, उसके बिना राजकोष के पैसे बचाने का संकल्प अधूरा रह जाता। इससे तो यही लगता है कि हर सरकारी साख पर उल्लू बैठा है।

हाईब्रिड ब्रेन ब्यूरोक्रेसी

शेखचिल्ली की ही तरह योजनाएं बनानी हैं आपको तो प्रदेश के सभी 75 जिलों को एक-दूसरे से जोड़ने वाली सड़कों को 75000 करोड़ की लागत से दो से चार लेन की करवा देते। हजारों करोड़ से शहर पर दुनिया का सबसे बड़ा स्काई वाक प्लेटफार्म भी बनवाया जा सकता था। इतना ही नहीं, सांस्कृतिक रूप से पूरे बुंदेलखंड को एकीकृत करके झांसी-महोबा के बीच बड़ा सा हवाई अड्डा बनवाकर इस प्राकृतिक व पठारी इलाके में ओपन एयर फिल्म शूटिंग स्टूडियो बनवाया जा सकता था।

ताजे को पुराना घोषित कर व तोड़कर नया बनाने की इस परंपरा को उन लोगों ने करीब से देखा है, जो अक्सर विधान भवन या सचिवालय के गलियारों में काम के लिए या काम की तलाश में चक्कर लगाते रहते हैं कि बीते साल एक कृपा पात्र साहब के ऑफिस में लगे विंडो एसी (अगले माह कथित नीलामी) व राजस्थानी मार्बल को तोड़कर इस साल स्प्लिट एसी और इटैलियन मार्बल लगाया गया ताकि पूरे बजट को ठिकाने लगाया जा सके व एक भी पैसा लौटकर सरकारी खजाने में जाने न पाए। इस नियम को सख्ती के साथ क्यों नहीं लागू किया जाता है कि इतने साल बाद ही पर्टिकुलर फ्लैट या ऑफिस का रेनोवेशन कराया जा सकेगा या कार, सोफा, फर्नीचर व एसी को रिप्लेस किया जा सकेगा?

बेवकूफ बनाकर बजट ठिकाने लगाने की भी कुछ तो हद होगी। क्यों न बांग्लादेश की तरह ऐसे लोगों से इस्तीफा लिखवा लिया जाए, नतीजे नहीं देने के आरोप में क्यों न वेतन से वसूली कर ली जाए या भारत सरकार की तरह क्यों न जबरन रिटायर कर दिया जाए? इस पर भी नजर रखने की जरूरत है, नहीं तो कुछ तो इतने आमादा हैं कि निवेशक को फैक्ट्री लगाने के लिए पैसे भी सरकारी खजाने से दे देंगे। कौन सा जेब से देना है? उक्त योजनाएं कोरोना नहीं हैं, जो छूते ही कच्चा चबा जाएंगी, लिहाजा हर योजना की समीक्षा भी होनी चाहिए व उन योजनाओं व उनके पोषकों के पेट व पीठ पर लात मारनी चाहिए, जो सफेद हाथी का भी बाप साबित हो रही हैं।

ऐसे कम होंगी दुर्घटनाएं

कमी दूर करने के उपाय के साथ हादसों के कारण और निवारण भी बता देता हूं। हादसे की हाईवे पर और वजह होती है और एक्सप्रेस-वे पर और। एक बार स्पीड पकड़ने के बाद व आगे-पीछे कम ट्रैफिक होने के कारण स्टियरिंग, क्लच, ब्रेक एवं गियर में करने के लिए कुछ रह ही नहीं जाता है, जब कुछ करने को ही नहीं होगा, सिर्फ बैठे रहना पड़ेगा तो नींद आना स्वाभाविक है। नतीजतन हादसे हो जाते हैं। इन्हें रोकने के लिए कैमरे हर पांच किमी पर लगाए जाएं। इससे जहां आमदनी बढ़ेगी, वहीं लोग ओवर स्पीड की दशा में पहले से सचेत हो सकेंगे। अगर इसके लिए पैसे खजाने में कम हों तो हर दो के बीच में एक डमी कैमरा भी लगाया जा सकता है और उसके प्रचार पर भी कुछ रुपए खर्च किए जा सकते हैं।

नींद भगाने के लिए रात में स्पीड लिमिट घटाकर 80 की जाए। आधा सेंटीमीटर ऊंची सफेद पेंट की पट्टियां हर किमी पर बनाई जाएं। इनसे गुजरते समय गाड़ी के साथ अपने भी अस्थि पंजर हिल जाएंगे, जिससे नींद भाग जाएगी। हर 10 किमी पर लंबे से ट्रक ले बाय बनाए जाएं और वहां पर सिर्फ एक बंदे को सौ वर्ग फीट से कम जगह किराए पर आवंटित की जाए, जहां पर केवल चाय व पानी का इंतजाम हो आम पब्लिक के लिए। खास के लिए तो पहले से ही महंगे फूड प्लाजा बने हैं कमोबेश हर जिले की सीमा में। डिजिटल दौर में आगाह करने के लिए एनएचएआई की टोइंग वैन के जरिए या स्थायी तौर पर म्यूजिक, वार्निंग या शॉवर सिस्टम का भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

इसके विपरीत हाईवे पर भारी ट्रैफिक होता है, कोई दाएं से निकलता है, कोई बाएं से निकलता है, कोई हॉर्न देता है तो कोई गाली देकर भाग जाता है तो गलत ड्राइविंग पर कहीं आप 50 लोगों को गाली देते हैं इसलिए नींद आने का सवाल ही नहीं उठता और हादसे कम होते हैं। अगर उक्त उपायों में से कुछ भी समझ में न आए तो एक सपत्नीक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल गठित कर यूरोप व अमेरिका के स्टडी टूर पर भेज दो, उसकी रिपोर्ट लागू कर दो, पर एट लेन के शिगूफे की अभी कोई जरूरत (कम ट्रैफिक के कारण) नहीं है आजादी के 100वें साल तक क्योंकि सिक्स लेन से इसी देश-प्रदेश के दर्जनों महानगरों के बीच काम चल रहा है, वहां भी वरिष्ठ आईएएस बैठे हैं, नजीर हाथ लगने के बाद उनके भी बेलगाम होने का डर है।

हैरानी इस बात से है कि कैबिनेट ने हादसे कम होने के हवा-हवाई दावे के आधार पर इतना बड़ा प्रोजेक्ट कैसे पास कर दिया? घटिया तर्कों की बानगी पर एक नजर क्यों नहीं डाली? किसी की भी बात पर इतना भरोसा करने के बजाय एक बार अपनी निजी आंखों से कुछ भी देखना जरूरी क्यों नहीं समझा? भारी वाहनों (ओवरलोडिंग का कानून लागू है) की लेन धंस गई है, जिससे होकर गुजरने पर छोटे वाहन दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं। यह कोरा झूठ है। हैवी वाहन लेन दोबारा बनाई जाएगी, जबकि जिसका जिस लेन पर मन होता है, वहां चल रहा है। कुछ भी फिक्स नहीं है।

वाहनों की गति नियंत्रित करने के लिए स्पीड गवर्नर लगेंगे, अभी लगा दो, किसने आपका हाथ पकड़ा है? स्वतः चालान के लिए स्पीड लेजर गन लगेंगे, सिक्स लेन पर ही तुरंत लगाने में कोई कानूनी या संवैधानिक रोक नहीं है। शराब पीकर गाड़ी चलाने वालों के डीएल निरस्त होंगे, आज रात से ही शुरू करें, किसने रोका है? ईवी के लिए चार्जिंग स्टेशन बनेंगे, जरूर बनें सिक्स लेन पर भी स्वागत है। अगले साल दूसरा किमियागर आएगा, वह भी गलत परंपरा का पालन करते हुए इसे ही 10 लेन करवाने लगेगा या किसी दूसरे सिक्स लेन प्रोजेक्ट को एट लेन करने का प्रस्ताव पास करा लेगा रिटायरमेंट के ठीक पहले। नए प्रोजेक्ट पर एक हाथ से भी ताली बजाने के बजाय रोना आ रहा है कि कितने गलत हाथों में खेल रहा है हमारा प्रदेश ?

इसके विपरीत यदि 2000 करोड़ से दो के बजाय 4000 पिलर इसी एक्सप्रेस-वे के डिवाइडर पर बनाकर बुलेट ट्रेन चलाने की बात होती तो पूरा प्रदेश दोनों हाथों से ताली बजाता। अगर यह किमियागर तेज धूप, तेज बारिश, ओलावृष्टि, थकान से बाइक सवारों को बचाने या राहत देने के लिए महज दो करोड़ से दो-दो या 10-10 किमी पर दो-दो सौ वर्ग फीट के टिन या एजबेस्टस शेड बनवा देता आगरा एक्सप्रेस-वे के किनारे, स्तनपान या अन्य किसी समस्या के समाधान के लिए कुछ करवा देता तो सारे पाप धुल जाते। इसके बजाय उन उक्त समस्याओं को दूर करने पर दो पैसे खर्च कर दिए जाते, जिनके कारण हादसे हो रहे हैं तो ज्यादा अच्छा होता। यह प्रोजेक्ट तो बिना सिर व पैर का लगता है। जैसे- सिरकटी रोड या पैरकटा हाईवे।

यह किसी कॉमेडी फिल्म के लिए अच्छा टाइटिल हो सकता है, लेकिन प्रदेश के लिए कतई नहीं? इसके एक-चौथाई पैसे से सर्विस लेन पूरी यहां से वहां तक बना दी जाए तो 300 किमी के लाखों लोकल लोगों व किसानों को निश्चित रूप से ज्यादा फायदा होगा। धन की कमी हो तो लाभान्वित होने वाले चार राज्यों के लोगों से चंदा जुटाकर यदि आगरा-एक्सप्रेस-वे पर चढ़ने या उतरने वाले ट्रैफिक को किसान पथ, शहीद पथ या पूर्वांचल व कानपुर हाईवे व एक्सप्रेस-वे से चार पैसे से जोड़ दिया जाता तो चार राज्यों के करीब चार करोड़ लोगों को फायदा होता। पैसे का दुरुपयोग रोको, बचो और बचाओ।

आग से न खेलो, क्योंकि टैक्स पेयर कई बार पहले कह चुके हैं कि कमाए हम और खाएं और। यह सब और नहीं चलेगा। वक्त है सुधर जाओ और अफलातूनी हरकतें व तुगलकी फरमान पिता व अपने पैसे से करो। शैतानी खोपड़ी को अब विराम दो, अगर पब्लिक के मतलब की न रह गई हो तो पूर्ण विश्राम लो, पर भगवान के वास्ते हमको हमारे हाल पर छोड़ दो। कहीं अगर पब्लिक की खोपड़ी घूम गई तो मुश्किल होगी। हाल के साल व दशक में सूबे में ट्रेंड देखा गया है कि अपने खेतों या मनमानी जगहों से घुमाते हुए एक्सप्रेस-वे बनाने का।

योजना जब पाइप लाइन में होती है, तभी फाइल सूंघने के बाद अरबों की बेनामी संपत्ति खरीद ली जाती है या अपनों को खरीदवा दी जाती है, फिर शासन की आंख में धूल झोंकते हुए मनमाने दर पर मुआवजा दिला दिया जाता है। दस-बीस किमी दूर ले जाकर एक्सप्रेस-वे में मनमाने मोड़ देकर अपनों को नाजायज लाभ पहुंचाया जाता है तो परायों को नुकसान। सरकार जाने के बाद 2017 में किसी ने पूछा कि इतना बड़ा और ऐतिहासिक काम करने के बाद भी सरकार क्यों गई तो मजाकिया लहजे में आधी लाइन का जवाब था कि एक्सप्रेस-वे में अपशकुन जैसा बहुत बड़ा इंजीनियरिंग फाल्ट था, बोले क्या?

यही कि न बदायूं से होकर निकला और न आजमगढ़ से, सीधे कन्नौज, इटावा (सैफई जसवंत नगर) व मैनपुरी पहुंच गया, काहे का एक्सप्रेस-वे, तो सख्त लहजे में बाकी आधी लाइन थी कि ब्यूरोक्रेसी खा गई? माना कि लूट की एक भी घटना नहीं हुई है एक्सप्रेस-वे पर, पर आज भी सन्नाटे और कम ट्रैफिक के कारण जेब में टोल प्लाजा भर के पैसे न होने के बावजूद यह डर हमेशा बना रहता है कि कहीं कोई सात साल पुरानी गुड़िया (फोन), 14 साल पुरानी फटफटिया और 21 साल पुरानी बुढ़िया न लूट ले। यह डर इसलिए ज्यादा महसूस होता है कि कई लुटेरे जेब में पैसा सोच से कम प्राप्त होने पर मारते कम हैं और घसीटते ज्यादा हैं।

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