
राजतंत्र से लेकर लोकतंत्र की यात्रा ऐसे अनगिनत दृष्टांतों से भरी पड़ी है, जब पद त्याग कर पिता ने उत्तराधिकारी तय करते हुए उसे आगे किया है और जहा-जहा नहीं किया गया, वहां-वहा लाठी और गोली तक की नौबत आई है। कई लोगों को गद्दी पर बैठने की इतनी जल्दी थी कि पितृहंता तक का तमगा ले गिरे। अतीत में कई ने पिता को जेल में डाल दिया तो कई ने साइको घोषित कर भी गद्दी हथियाई है। उक्त फार्मूले किसी क्षेत्र विशेष की बात न होकर समाज के कमोबेश सभी क्षेत्रों पर लागू हुए है। नजीर चाहे बढ़िया हो या घटिया, उसे कहा परंपरा ही जाएगा तो यह आज भी किसी न किसी रूप में जिंदा है।
रिटायरमेंट के माह भर पहले या माह भर बाद हुई पिता की मौत पर किसी न किसी को प्राय कहते सुना जा सकता है कि होनी को कौन टाल सकता है, पर यही जरा पहले हो जाता तो बेटे को नौकरी दे जाते या फिर यह कि जाने वाले को कौन रोक पाया है आज तक, पर जाते-जाते बेटे को काम पर लगा गए? हालाँकि ताजा मामले में हम जो बात करने जा रहे हैं, वह मृतक आश्रित में अनुकंपा नियुक्ति की नहीं है, पर है अनुकंपा नियुक्ति की ही। न पिता उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग के अध्यक्ष होते और न ही बेटे को गलत प्रपत्रों के आधार पर अपनी कलम से नौकरी दे पाते। फ्रंट डोर से बैक डोर जैसी भर्ती का खुद में अनूठा, अद्भुत व अद्वितीय उदाहरण है यह। रेवडी बांटने वाली कहावत शायद ऐसे ही कुछ कारनामों के कारण सदियों से जिदा है।
बात है लखनऊ यूनिवर्सिटी की, जहा यूजीसी मानदडों को ताक पर रखकर विमल कुमार जायसवाल की अप्लायड इकोनोमिक्स के लेक्चरर (एसोसिएट प्रोफेसर) पद पर पिता की ही कलम से पिता के करोड़पति होने के तथ्यों को छिपाते हुए भर्ती किया गया था। फैक्ट तो खोजे नहीं मिला, पर संभव है कि पिता ने ही इंटरव्यू भी लिया हो। तीन साल से कम समय में दूसरों को सुपर सीड करते हुए प्रोफेसर भी बन गए। धांधली से नियुक्ति के सनसनीखेज मामले में यह भी तथ्य है कि विमल के पिता सियाराम जायसवाल भी लखनऊ यूनिवर्सिटी में उसी वाणिज्य विभाग में विभागाध्यक्ष थे, जो कि बाद में उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग के चेयरमैन बने थे।
योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री रहते हुए एक से एक कमाल मामलों का खुलासा हो रहा है। कोई फर्जी दस्तावेजों से शिक्षक की नौकरी कर रहा है कई साल से तो कोई यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर पद पर। प्राथमिक शिक्षा में तो बरेली में हब हो गई। पाकिस्तानी महिला पहचान छिपाकर नौ साल से नौकरी कर रही थी। इस दौरान वह 50 लाख से अधिक का वेतन उठा चुकी है। पीछे यूपी में तो कुछ भी होता रहा है। चयन आयोगों में मनमानी के किस्से पहले से आम होते रहे हैं इसीलिए सीबीआई जांच चल रही है कई साल से। कौन भूला है एक डेढ़ दशक पहले के उस दौर को, जब बीडीओ से होकर एसडीएम तक कुछ भी बना दिया जाता था?
उसी दौर में हत्या के आरोप में एक युवा दोस्त के साथ प्रयागराज की जेल में बंद होता है. वहां पर मुलाकात होती है लोक सेवा आयोग के एक सदस्य से। वह जुगाड से पीसीएस बनने की गुप्त तरकीब बताता है, जिसे बाद में पूरा प्रदेश जानने लगता है। आज वह व उसके जैसे कई लोग लोक सेवा आयोग से चयनित होकर शिक्षा अधिकारी बन सरकार के सीने पर चढ़ व सीना ठोककर नौकरी कर रहे हैं। करोड़ों की हैसियत हो चली है. जांच चल रही है। कई सस्पेंड भी हुए है। इतना ही नहीं, कई जिलों में रहने के क्रम में घर के कई लोगों, यथा- भाई, भतीजे, बहन व रिश्तेदारों, मित्रों व धनपशुओं को प्राइमरी में शिक्षक बना दिया था. जिनमें से कई बर्खास्त कर दिए गए हैं और कई की जांच चल रही है।
दूसरे केस में पॉलीटेक्निक पास एक युवा जेई पीडब्ल्यूडी का सीधे इंटरव्यू देने गया और देखा कि बोर्ड परिचित का नहीं फंसा तो बड़े बाबू को सेट करके बुखार की एप्लीकेपन लगा दी। परिचित के ही बोर्ड में नाम डलवाने के बाद अगले सप्ताह इंटरव्यू देने गया और हो गया। आज प्रमोट हो चुका है। करोड़ों की हैसियत है और नौकरी के सवा दो दशक में से करीब दो दशक से बांदा में ही जमा हुआ है। छोटे भाई को भी उसी रास्ते से विभाग में ही जेई बनवा लिया है। उक्त सभी केस में बस मन में मनबल की प्रबल इच्छा चाहिए थी और काम हो गया? गोस्वामी तुलसी दास जी की एक चौपाई याद आ रही है, पर जिक्र नहीं करूगा, क्योंकि वह सकारात्मक संदर्भ के लिए है और यहां बात हो रही है समाज के दो नंबरी लोगों की।
सीएम ने अभियान चलाकर बेसिक शिक्षा विभाग से तो फर्जी शिक्षकों का बोरिया बिस्तर बाधना पुरू कर दिया है, पर देखना होगा कि अप्रत्यक्ष रूप से सही क्या उच्च शिक्षा में अभियान चल पाएगा? आश्रय साफ है कि लोक सेवा आयोग की तरह अन्य आयोगों में फर्जी और धाधली से बहुत नियुक्ति की गई है। क्या पूरी सफाई हो पाएगी और इसमे कितने दिन लगेंगे? यह कह पाना मुश्किल है क्योकि पता ही नहीं है कि हजारों बालों के बीच में कितने परजीवी जुए छिपे है, जो एक ड्रेकुला की तरह जनता के टैक्स से भरे जा रहे खजाने को चूस रहे है। एक नौकरी पर अभ्यर्थियों का औसत कुछ भी हो सकता है। सौ से लेकर हजार एवं 10 हजार भी। मारा-मारी इतनी है कि चपरासी के लिए बड़े-बड़े डिग्रीधारी आवेदन कर रहे हैं तो कई पीएचडी वालों को क्लास थ्री व फोर के आवेदन करते हाल-फिलहाल देखा गया है।
सहायक प्रोफेसर या प्रवक्ता जैसे पद की जब नौकरी निकलती है तो कंपटीशन और टफ हो जाता है क्योंकि सभी पीएचडी, यूजीसी नेट व जेआरएफ होते हैं। ऐसे ही योग्य लोगों को किनारे कर नियमों से खेल करते हुए गरीबी के फर्जी दस्तावेजों के बल पर आक्षण का लाभ लेकर नौकरी पाई थी विमल जायसवाल ने। दरअसल वह पिता के वेतनमान व संपत्ति के स्वामित्य के कारण नान क्रीमीलेयर की परिधि से परे थे, फिर भी उक्त कैटेगरी में दया कर पद पाने में सफल रहे। अब जबकि खुलासा हो गया है तो यहीं बात काफा बन गई है और हाईकोर्ट के चक्कर लगा रहे है। उधर, लविवि के पूर्व छात्र व गोसाईगंज के विधायक अभय सिंह ने स्पीकर को पत्र लिखकर नियम 51 के तहत मामले पर विभागीय मंत्री से जवाब मांगा है।

उन्होंने सवाल किया कि तीन साल सहायक प्रोफेसर पद पर सेवा दिए बिना कैसे प्रोफेसर बन सकता है कोई? दूसरे, नियुक्ति के समय (2005) विमल के नाम वाली सपत्ति का मूल्यांकन चार लाख था तो मात्र इसी कारण से नॉन क्रीमीलेयर की परिधि से परे थे, जबकि उस दिन तक बेरोजगार होने के कारण पूर्व एचओडी व पूर्व अध्यक्ष पिता की करोड़ों की हैसियत तो उसमें जुड़ी ही नहीं है। उनकी नियुक्ति ओबीसी नॉन क्रीमी लेयर के आधार पर किसके दबाव में की गई और किसके दबाव पर अल्पसमय में ही तरक्की पाकर प्रोफेसर बने? बाद में किन प्रशासनिक व गैर प्रशासनिक पदों पर रहकर क्या-क्या लाभ हासिल किया और विभिन्न शिकायतों के बाद जांच रिपोर्ट में क्या क्या कहा गया, सारी रिपोर्ट पटल पर प्रस्तुत की जाएं? उधर, पीठ पीछे कई लोगों ने कहा कि कई लोगों की बलि लेकर यह काम किया गया था।
भर्ती आयोग के अध्यक्ष के नाते पिता को यह करने से बचना चाहिए था, पर पुत्र मोह ने धृतराष्ट्र बना दिया। नियम विरुद्ध काम करने से उनके सपनों पर पानी फिर गया, जो नियमित होने के चक्कर में वर्षों से पढ़ा रहे थे और ठीक-ठाक अनुभव भी हो गया था। शिकायत के बाद लोकायुक्त ने नोटिस भेजकर दस्तावेजों के साथ 20 फरवरी 2025 को बुलाया है। उक्त प्रकरण प्रदेश में चर्चा के केंद्र में है। प्रो. सियाराम के दूसरे बेटे भी भीमराव अंबेडकर इंस्टीट्यूट में सेवाएं दे रहे हैं।
इन्हीं सब कारणों से लोग पैराशूट नियुक्ति की भी संज्ञा देने में संकोच नहीं कर रहे हैं। लखनऊ यूनिवर्सिटी के ही एक पूर्व प्रोफेसर ने सीधे कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह दिया कि स्वार्थ के लिए सिद्धांतों की बलि देने से जीवन भर के पुण्य नष्ट हो जाते हैं। शिक्षा में पारदर्शिता सुचिता से ही आ सकेंगी। शासन की ओर से जारी पत्र में कहा गया है कि प्रो. विमल को गलत जानकारी के बलबूते नॉन क्रीमी लेयर संवर्ग में नियुक्ति दी गई थी। तीन दिसबर 2024 को उनकी शिकायत की गई तो शासन ने लविवि के कुलपति प्रो आलोक कुमार राय की अध्यक्षता में जांच कमेटी गठित की है।
उच्च शिक्षा विभाग के विशेष सचिव गिरिजेश कुमार त्यागी की ओर से आठ जनवरी को जारी आदेश में कहा गया था कि जांच 15 दिन में पूरी कर 23 जनवरी तक शासन को रिपोर्ट पेश करें। विभाग के ही अनुसचिव संजय कुमार द्विवेदी ने बताया कि अन्य तीन सदस्य है- उच्च शिक्षा विभाग के संयुक्त सचिव प्रो. डीपी शाही, लखनऊ के क्षेत्रीय उच्च शिक्षा अधिकारी और चौ. चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ के कुलसचिव। अध्यक्ष के छुट्टी से लौटते ही समिति की बैठक भी हुई। नियुक्ति से जुड़े दस्तावेज रखे गए और अगली बैठक में बयान दर्ज कराने के लिए पत्र भी भेजा गया था, लेकिन इसी दौरान आरोपी ने हाईकोर्ट का रुख किया, जहां कुछ राहत मिली है. पर नियुक्ति में धांधली की खबर आम हो चुकी है व विधानसभा स्पीकर के साथ मुख्यमंत्री और कुलाधिपति के पास पहुंच चुकी है।
रिट की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने कहा कि विश्वविद्यालय ऑटोनॉमस बॉडी है, लिहाजा सरकार को कार्रवाई का अधिकार नहीं है। शिक्षकों पर कार्रवाई का अधिकार विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद को है, जबकि वीसी ने न कोई जांच की और न ही मामले को कार्य परिषद में रखा। कार्रवाई तो कुछ हुई ही नहीं है, सिर्फ समिति ही गठित की गई थी तो सवाल यह है कि क्या जाच समिति भी गठित करने का अधिकार नहीं है विभाग के जरिए शासन को और जांच समिति के गठन का व कार्रवाई का अधिकार गवर्नर को है या उन्हें भी नहीं? विश्वविद्यालय के स्तर पर जांच का दरवाजा खुला हुआ है तो फिलवक्त गेंद गवर्नर के पाले में है।
सीएम, स्पीकर व लोकायुक्त तक पहुंचा मामला
मामले का खुलासा तब हुआ, जब एडवोकेट रोहित कांत ने लोकायुक्त में शिकायत की। इसके बाद विधायक अभय सिंह ने विधानसभा में भी शिकायत की थी। पूर्व आईपीएस व आजाद अधिकार सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमिताभ ठाकुर ने कुलपति द्वारा कोई कार्रवाई नहीं करने पर कुलाधिपति से जांच की मांग की है। राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम की धारा 12 सहित अन्य प्रावधानों में भेजे गए प्रत्यावेदन में उन्होंने कहा है कि प्रोफेसर बनने के बाद अनुचित ढंग से सपत्ति का अर्जन किए जाने के गंभीर आरोप है। उनके मुताबिक उन पर पूर्व में केंद्रीय अंबेडकर विश्वविद्यालय लखनऊ की एक जांच में कई लोगों को धमकाने के भी आरोप है। वीसी से कई शिकायतों के बाद भी कमी कोई कार्रवाई नहीं की गई। इसी दौरान एमएलए ने मुख्यमंत्री को भी पत्र लिखकर कमेटी के अध्यक्ष को बदलने की मांग की है। शिकायतकर्ता भी एलयू वीसी को समिति का अध्यक्ष बनाने से खूप नहीं थे और तथ्यों के प्रभावित होने की आशंका जताई है। सभी आरोपों पर प्रो विमल ने कहा था कि उन्हें कोई जानकारी नहीं है। कोई नोटिस अब तक नहीं मिला है।
आठ लाख सालाना कमाई वाला गरीब
लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर, उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष का बेटा व राजधानी में प्लॉट का मालिक गरीबों के हक पर डाका डालकर क्रीमी लेयर रूपी बड़े गड्ढे का लाभ उठाकर पिता की अध्यक्षता वाले आयोग के ज़रिए सहायक प्रोफेसर बनता है। इतना ही नहीं डर-छिपकर नौकरी के बजाय दो दधक तक नौकरी भी ठोककर करता है। उन पर कमाई का कोई भी मौका न छोड़ने, परीक्षा केंद्रों के निर्धारण व शिक्षकों की नियुक्तियों में भी अनियमितता करने, अंकों में हेर-फेर व शोधार्थियों के शोपण आदि का भी आरोप लगाया गया है।
आरक्षण के बड़े पैरोकारों से जब कोई बात करेगा तो वह बहुत बोलेगा, पर क्रीमी लेयर की बात करते ही बगलें झांकने लगेगा या विषय को परिवर्तित करने लगेगा। हालत उस सांप और छछूदर की तरह हो जाएगी, जैसे भारत में और आजादी मांगने वाले किसी मौलवी से चीन में मुस्लिमों की आजादी की बात कर दो। गरीबों व बेरोजगार वंचितों को गरीब व बेरोजगार बनाए रखने के लिए ही क्रीमी लेयर का प्रावधान पातिर और सक्षम लोगों ने बड़े ही पातिराना तरीके से किया था।
समय-समय पर इसकी सीमा बढ़ाते हुए केंद्र सरकारों ने आठ लाख सालाना तक पहुंचा दी गई है। यह गरीबों के साथ सरासर नाइंसाफी है और धोखा है। मतलब यह है कि जो व्यक्ति आठ रुपए तक कमा रहा है, उसके बच्चे को आरक्षण का लाभ मिलेगा। पढ़े-लिखों के लिए सवाल है कि यदि वह आठ लाख में बच्चे को ठीक से पढ़ा नहीं पा रहा है तो 80 फीसदी भारत तो आठ लाख के नीचे वाला है, फिर वह कैसे पढ़ाकर दूसरों के समकक्ष अपने बेटे को खडा कर सकेगा तो फिर आरक्षण का हकदार कौन हुआ और किसे नहीं मिलना चाहिए? निम्न के बजाय निम्न मध्यम वर्ग को राहत पहुंचाने में जुटी सरकार इसके विपरीत प्रचारित करती है कि ओबीसी समुदाय के अंतिम समूह तक पहुंचने और बेरोजगारी को कम करने में मदद करने के लिए इसे लागू किया गया है।
दरअसल क्रीमी लेयर के ऊपर वालों को अगड़ा वर्ग माना जाता है। सामान्य और एससी-एसटी के बीच वालों को सरकार द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। ओबीसी की क्रीमी लेयर और गैर-क्रीमी लेयर दो महत्वपूर्ण कारक है, जिनका उपयोग पिछड़े वर्गों में अगड़े पिछड़े में अंतर करने के लिए किया जाता है। क्रीमी लेयर और नॉन-क्रीमी लेयर के तहत मर्ती प्रक्रिया में खेल की प्राय आपंका रहती है। कीमी लेयर में आय सीमा आठ लाख से अधिक रखी गई है और गैर-क्रीमी लेयर में आठ से कम। उदाहरण मिलता है कि गैर क्रीमी लेयर को आरक्षण कोटे के माध्यम से आईआईटी या आईआईएम में प्रवेश मिलता है, जबकि क्रीमी लेयर को इन प्रतिष्ठित संस्थानों में आरक्षण का लाभ नहीं मिलता है, उन्हें सामान्य के समकक्ष माना जाता है।