छिटक रहे पड़ोसी देश

आदर्श चौहान

ये खुद से ज्यादा देश को प्यार करते हैं और देश को किसी भी प्रकार से नुकसान पहुंचाने वाले को अपना व देश का साझा शत्रु समझते हैं। भारत की दक्षिणपंथी सरकारों ने नारा दिया कि नेबर फर्स्ट, जैसी कि सनातन परंपरा भी रही है कि आग लगने पर सबसे पहले मदद के लिए पड़ोसी ही आते हैं और रिश्तेदार बाद में या अगले दिन।

दुनिया भर के दक्षिणपंथियों (देशों) को कट्टरपंथियों से दूर रहने व दूरी बनाकर चलने के लिए जाना जाता है। विश्व के संदर्भ में भारत-रूस संबंधों को छोड़ दें तो वामपंथियों का दक्षिणपंथियों से धुर विरोध होने के कारण, वे उन्हें छोड़ दुनिया में किसी का भी साथ देते रहे हैं। भले वे कट्टरपंथी ही क्यों न हों? भारत के संदर्भ में इसे 100 साल में हजार बार देखा गया है। दक्षिणपंथियों का फंडा व एजेंडा पूरी तरह साफ है, नेशन फर्स्ट। किसी का नारा कुछ भी हो सकता है। किसी का यह भी हो सकता है कि जान है तो जहान है। कोई उल्टी खोपड़ी वाला यह भी कह सकता है कि हम हैं तो देश है। 70-80 के दशक में जैसे एक कांग्रेस नेता ने सारी हदें पार करते हुए चरण वंदना का नायाब नमूना प्रस्तुत किया था यह कहकर कि इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया। अतीत में भी राष्ट्रमाता और राष्ट्रपिता की लंबी परंपरा रही है भारत, म्यांमार, इंडोनेशिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश आदि तक, पर कई कदम आगे बढ़कर दक्षिणपंथियों का नारा है देश है तो हम हैं।

ये खुद से ज्यादा देश को प्यार करते हैं और देश को किसी भी प्रकार से नुकसान पहुंचाने वाले को अपना व देश का साझा शत्रु समझते हैं। भारत की दक्षिणपंथी सरकारों ने नारा दिया कि नेबर फर्स्ट, जैसी कि सनातन परंपरा भी रही है कि आग लगने पर सबसे पहले मदद के लिए पड़ोसी ही आते हैं और रिश्तेदार बाद में या अगले दिन। यह तो नहीं बताएंगे कि 1996 में केंद्र में सरकार किसकी थी, पर जब भारत ने पाकिस्तान को मोस्ट फेवर्ड नेशन (एमएफएन) का दर्जा दिया था तो दुनिया ने इसे चाहे जैसे देखा हो, पर असंख्य लोगों ने दिवा स्वप्न की तरह ही लिया था तो उस समय कुछ केवल हंसकर नो कमेंट कह देते थे, जो कि खुद में काफी था पूरी कहानी बयां करने के लिए? भारत विरोध जिसके मूल में हो, 1947-48 से लेकर 1999 तक जिससे आमने-सामने चार-चार युद्ध(परोक्ष युद्ध तो रोज ही लड़ते हैं हम) हो चुके हों और पूरी सियासत ही

भारत का समूल नाश कर देने, कश्मीर छीनने व परमाणु बम मार देने की गीदड़ भभकी पर टिकी हो सात दशक से अधिक समय से, उससे ऐसा व्यवहार हास्यास्पद ही था। यह भी कम हास्यास्पद नहीं है कि यूएसए ने रूस को भी यही दर्जा दिया था, जो कि यूक्रेन पर हमले के बाद अमेरिका ने वापस ले लिया है। इससे चंद हफ्ते पहले ही कनाडा ने भी वापस ले लिया था। उधर, पाकिस्तान ने 2012 में भारत को एमएफएन का दर्जा देने का ऐलान किया, पर बाद में जनता व वोट बैंक के ज्ञात भय के कारण अपनी बात से मुकर गया, पर न जाने किस अज्ञात भय से भारत उसके दर्जे को 2019 में तब तक खींचता रहा, जब तक पुलवामा अटैक में 40 सीआरपीएफ जवान नहीं शहीद हो गए। यहां उल्लेखनीय है कि हाल ही में नेस्ले विवाद का फैसला सुप्रीम कोर्ट द्वारा देने के बाद स्विटजरलैंट ने भारत से यह दर्जा वापस ले लिया है।

अब यहां की कंपनियों को वहां 10 फीसदी टैक्स ज्यादा देना पड़ेगा। दक्षिणपंथी प्रायः आदर्श को ताक पर रखकर व्यावहारिक बात करते हैं। इसी वजह से शठे शाठ्यम समाचरेत की नीति पर चलने से सर्वाधिक खुश देश के सैनिक हैं। इसके विपरीत 75 से अधिक की उम्र में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस में बैठकर पाकिस्तान गए थे। यह खुद में अनूठा उदाहरण था। हालांकि देश को बदले में कारगिल का जख्म मिला था। नेशन के साथ नेबर फर्स्ट का दूसरा दृष्टांत भी किसी रूप में कमतर नहीं है, जब 2015 में बिना पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अफगानिस्तान से लौटने के क्रम में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी अचानक पाकिस्तान जा पहुंचे थे। उस समय भारत-पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया हैरान रह गई थी।

पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की मां के पैर छूकर इस तरह न सिर्फ इतिहास रच दिया था, बल्कि दुनिया के सामने एक नजीर भी पेश की थी। ढाई घंटे के दौरान पोती के निकाह में शामिल होकर कुछ ही घंटे में नई दिल्ली पहुंच गए थे। पाक पीएम लाहौर हवाई अड्डे उन्हें खुद लेने गए थे और बाद में दोनों नेता एक हीहेलीकॉप्टर से विवाह स्थल रायविंड पहुंचे थे। याद रहे कम ही भारतीय प्रधानमंत्री अफगानिस्तान गए हैं। नेबर फर्स्ट का नायाब नमूना उन्होंने इससे साल भर पहले शपथ ग्रहण समारोह में भी पेश किया था, जब उन्होंने तकरीबन सभी पड़ोसियों को न्योता भेजकर बुलाया था। बाद में नवाज की मां के निधन के बाद पाक के पूर्व पीएम को चिट्ठी भी लिखी थी। यह दीगर बात है कि 1999 के पहले भी ऐसा नहीं रहा, जब पड़ोसियों को किनारे कर दिया गया हो।

उस समय तो रोज पाक युद्ध विराम का उल्लंघन करता था और हर साल हम वार्ता भी करते रहते थे, हॉकी व क्रिकेट मैच भी खेलने वहां जाते थे। दूसरी ओर भारतीय मीडिया सिर्फ गिनता रहता था कि 11 माह में 300 बार पाकिस्तानी सेना ने युद्ध विराम का उल्लंघन किया। हमारी सेना को फायर तक करने की इजाजत नहीं थी। यह खुद में लचर नेतृत्व का उदाहरण हो सकता है। नेबर फर्स्ट का एक और उदाहरण तब देखने को मिला, जब दुनिया की किसी भी तोप से न डरते हुए भारत ने कई लोगों को शरण दी और कभी कदम पीछे नहीं हटाए।

तिब्बत पर जब चीन ने कब्जा किया तो वहां के सबसे बड़े बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा की अगुवाई में 1959 में हजारों लोगों ने भारत का रुख किया था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने न सिर्फ शरण दी, बल्कि जम्मू व पठानकोट से करीब सौ किमी की दूरी पर कांगड़ा जिले में धर्मशाला नाम से नया शहर सौंप दिया था। उससे थोड़ा ऊपर चोटी पर मैक्लियोडगंज नामक जगह को राजधानी घोषित किया गया, जहां आज भी उनका ही राज चलता है। देशी-विदेशी लोग तो सिर्फ वहां पर्यटक बनकर जाते हैं।

बाद में 1962 में यही बात चीन से युद्ध की बड़ी वजह बनी थी और हमें बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। ध्यातव्य है कि इराक, अफगानिस्तान और यूक्रेन सहित दुनिया के कई देशों में अमेरिका ने हमेशा मनमानी की है, पर उसके व यूएनओ सहित किसी भी दादा या दारोगा को सबसे पहले सबसे पुराने मसले तिब्बत, फिर म्यामांर और अब बांग्लादेश को सुलझाना चाहिए था इसीलिए कहा जाता है कि गरीब की लुगाई, दुनिया भर की भौजाई। हमेशाकमजोर को ही सताने का अमेरिका का इतिहास रहा है, कभी चीन, ईरान व उत्तर कोरिया जैसे बिगड़ैल मुल्कों का वह कुछ नहीं कर पाया।

उल्लेखनीय है कि एक बार वियतनाम युद्ध में बुरी तरह पिट भी चुका है, पर उस युद्ध से अगर इराक ने कुछ सीख लिया होता तो भारत का एक मित्र का ऐसे अंत नहीं होता। एक सर्वे में कहा गया था कि पाकिस्तान में 1947 में कुल चार करोड़ जनसंख्या में से 20 से 23 फीसदी अल्पसंख्यक थे यानी करीब एक करोड़, जो कि बढ़ने के बजाय अब 50 लाख से अधिक बचे हैं, जबकि दूसरी ओर बहुसंख्यक 24 करोड़ हो गए इसी काल खंड में। बांग्लादेश की आबादी 1971 में करीब सात करोड़ थी, जिसमें से करीब 20-25 फीसदी अल्पसंख्यक थे यानी कि करीब 1.5 करोड़। अब आबादी 17.5 करोड़ है, जिसमें आठ प्रतिशत के आस-पास अल्पसंख्यक बचे हैं।

यानी कि उनकी संख्या 53 साल बाद भी स्थिर है। इतिहास में जितनी बार भी वहां डिस्टर्बेस होता है, लाखों अल्पसंख्यक भारत में घुस आते हैं। एक करोड़ के आसपास तो पाकिस्तानी सेना का अत्याचार झेलते-झेलते 1971 में ही भाग आए थे, लेकिन उसके बाद बीते दशकों में जो एक करोड़ के करीब बहुसंख्यकों के वहां से भागने का ट्रेंड रहा है, वे सही मानसिकता के साथ भारत नहीं आए हैं। उसके पीछे गजवा-ए-हिंद की सोची-समझी साजिश काम कर रही है। उत्तर प्रदेश की अधिकांश मस्जिदों में मौलवी रोहिंग्या या बांग्लादेशी हैं, जिनके पास भारत में बने फर्जी आधार कार्ड हैं। राहत, राशन व डॉलर डिप्लोमेसी के बाद भारत ने हाल के कोरोना काल में वैक्सीन डिप्लोमेसी शुरू की थी और दुनिया के कई देशों को मुफ्त में वैक्सीन, सिरिंज, मास्क तथा पीपी किट आदि उपलब्ध करवाकर मुसीबत में मदद की थी।

इससे दुनिया में भारत का कद बहुत ऊंचा हो गया था। अब ध्यान गुटीय डिप्लोमेसी पर देना चाहिए, जब भी किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर किसी देश के समर्थन व वोट की जरूरत हो तो दो-चार सौ करोड़ की मदद कर देनी चाहिए, न कि हर साल सैकड़ों करोड़ दिए जाएं। जन और धन दो तरह की हानि से बचने के लिए यह समय की मांग जैसा है। दृष्टांतके लिए 2024-25 में नेपाल को 700 करोड़, भूटान को 2070, श्रीलंका 250, मालदीव 600 व अफगानिस्तान 200। 2017 में मोदी म्यामांर गए थे और कई समझौतों के तहत करोड़ों की मदद कर आए थे। याद होगा कि अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई हर साल भारत आते थे और करीब दो से तीन बिलियन डॉलर की सहायता प्राप्त करने में सफल रहे थे। मोदी-शेख हसीना के बीच 2016 में 22 समझौते हुए थे, जिसके तहत भारत ने 32140 करोड़ का कर्ज देने पर हामी भरी थी।

दुर्भाग्य की बात है कि परमाणु ऊर्जा के शांति पूर्ण उपयोग पर भी सहमति बनी थी। कभी किसी ने ऐसा समझौता पाकिस्तान से भी चोरी-छिपे किया था, जिसका नतीजा यह रहा है कि उसके मिसाइल कार्यक्रम पर ही बीते हफ्ते अमेरिका को रोक लगानी पड़ी है। इसके अलावा हजारों करोड़ के दान से कई बड़े प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है। कहा जा सकता है कि करजई के बाद अफगानिस्तान, हसीना के बाद बांग्लादेश, राजतंत्र के बाद नेपाल, 1991 के बाद श्रीलंका और मुइज्जू के बाद मालदीव में भारत के अरबों रुपए डूब चुके हैं या व्यर्थ चले गए क्योंकि दुम टेढ़ी की टेढ़ी ही रही। ज्ञात हो कि अफगानिस्तान में संसद ही नहीं, बल्कि दर्जनों पुल, बांध, कंधार में नेशनल एग्रीकल्चर, साइंस एंड टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी, राजधानी काबुल की आंतरिक परिवहन व्यवस्था को सुधारने के लिए 1000 बसें, सैकड़ों किमी लंबी सड़कें, हवाई अड्डे, अन्य संस्थाएं, दवाएं, दुनिया भर की सुविधाएं और 2011 में सूखा पड़ने की स्थिति में ढाई लाख टन गेहूं भी भारत ने उपलब्ध कराया था।

भारत का पूरा खर्चा तब करीब ढाई-तीन बिलियन डॉलर बताया गया था। अफगानिस्तान वाली ही प्रक्रिया हिंदुओं के साथ रोजाना पाकिस्तान में दोहराई जा रही है तो हाल के महीनों से बांग्लादेश में रोज ही दोहराई जा रही हैं। 40 से अधिक का अधेड़ 14 साल की बच्ची को उठा ले जा रहा है। घर, दुकान व मंदिर तेल छिड़क कर फूंक दे रहा है, तोड़ दे रहा है। पूरी दुनिया में किसी भी कथित सभ्य देश ने इस पर उंगली नहीं उठाई, जबकि वे खुद परेशान हैं आतताइयों से। इन हालात से दुखी होकर जब तसलीमा नसरीनलज्जा लिख देती हैं तो हत्या के फतवे के कारण प्रधानमंत्री शेख हसीना की ही तरह उन्हें भी भारत आकर शरण लेनी पड़ती है।

दुनिया में 57 मुस्लिम देश हैं, पर उक्त द्वय ने उनकी तुलना में भारत को ही शरण के लिए तरजीह दी। 1975 में जब सेना के जनरल जियाउल हक ने शेख मुजीबुर्रहमान का तख्ता पलट कर हत्या करवा दी थी, तब भी हसीना शरण लेने भारत ही आई थीं। इतना ही नहीं, पाक को ले लें तो इतिहास में जब-जब हमारी फौजें लाहौर तक पहुंची हैं, तब-तब जीती हुई जमीन पाक को मुफ्त में वापस कर दी और उसके बदले में युद्धबंदी तक नहीं मांगे, जो कि सैनिकों के साथ बहुत बड़ी नाइंसाफी है। देश की बात के साथ कहना होगा कि उक्त तीन पड़ोसी बहुसंख्यकों के हिसाब से चल सकते हैं, दुनिया का हर देश बहुसंख्यकों के हिसाब से चल सकता है, पर पता नहीं हमारे संविधान में ऐसा क्या लिख दिया गया है कि इतने टुकड़े बांटकर देने के बाद भी हमारा देश बहुसंख्यकों के हिसाब से नहीं चल सकता, बल्कि अपने ही देश में हम दोयम दर्जे के नागरिक जैसी स्थिति झेल सकते हैं?

इतना सब कुछ करके भी वहां के लोगों के दिलों में भारत के प्रति रंच मात्र भी लगाव नहीं पैदा कर सके हैं। उक्त आंकड़ा बताता है कि हमारे लोगों की जहां पर जैसी स्थिति होगी, उस पर उतनी ही ज्यादा दया दृष्टि व दान-दक्षिणा भारत का रहेगा। होना भी यही चाहिए। इसे सत्ता परिवर्तन, सत्ताधीश के रुख रवैये, भाषा, खुशी व संतुष्टि के पैमाने के रूप में देखना चाहिए। भारत पूरे ईमान और इत्मीनान के साथ दुश्मन का भी जरूरत पड़ने पर न सिर्फ साथ देता है, बल्कि मानवता के आधार पर मदद भी करता है। उदाहरण के लिए चाहे पाकिस्तान को एमएफएन का दर्जा हो, चाहे लाखों डॉलर की अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, मालदीव व नेपाल को राहत सामग्री एवं इंफ्रास्ट्रक्चर में मदद हो। यह हाल है उल्टी आंत के खाने वाले कुछ पड़ोसियों का।

अहम सवाल है कि रूस के जैसी दोस्ती भारत भारी-भरकम धनराशि खर्च करके पड़ोस में खड़ी करना चाह रहा है दशकों से, जबकि अब इंसान के रंग हजार हो चुके हैं क्योंकि राष्ट्रइंसानों से ही बनते हैं। कलयुग है भाई ! खाओ किसी का और गाओ किसी का। लाखों डॉलर खर्च करके सिर्फ दो-चार साल ही संबंध ठीक चलते हैं और जैसे ही चुनाव या तख्ता पलट के जरिए सत्ता परिवर्तन होता है। खाया-पीया बराबर और हरामखोरी शुरू। सोचना होगा कि सिर्फ दो से पांच साल तक हां में हां मिलाने के लिए दो-चार सौ करोड़ देने की क्या जरूरत ? क्यों न शठों के साथ शठता का व्यवहार किया जाए और किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर वोट लेने के पहले ही दो-चार सौ करोड़ का दान भेज दिया जाए? पाकिस्तान भागने के पहले अल्लामा इकबाल ने लिखा था कि सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा… हिंदी हैं हम वतन हैं हिंदोस्तां हमारा।

इसी नज्म का अंतिम अंतरा है, “यूनान ओ मिग्न ओ रूमा (रोम) सब मिट गए जहां से, अब तक मगर है बाकी नाम-ओ-निशां हमारा। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जमां हमारा।” इस बात का जिक्र देशवासी तो कम, पर कुछ नेता आज भी सीना ठोककर ज्यादा करते हैं और इसीलिए करते हैं क्योंकि कोई उनसे पूछता नहीं है कि आखिर वह किस हस्ती की बात कर रहे हैं? सोने की चिड़िया लूटकर अंग्रेजों ने टिन का कटोरा हाथ में थमा दिया। आतंकवाद जीने नहीं दे रहा है। अंग्रेजों द्वारा दिए गए जख्मों से तो धीरे-धीरे काफी हद तक मुक्ति मिल गई है, पर मुगलों ने जो जख्म दिए थे, वे अगली पीढ़ी के लिए भी नासूर बने रहेंगे। कौन भूला होगा कि 90 के दशक में संविद सरकारों के दौर में सोने को गिरवी रखकर कर्ज लेना पड़ा था देश चलाने के लिए, फिर भी पड़ोसी देशों की जरूरत व मुसीबत के समय हमेशा साथ खड़ा रहा है भारत?

पड़ोसी के नाते हम हिंदी-चीनी भाई-भाई व पंचशील का गाना गाते रहे और चीन ने 1962 में हमला कर सैकड़ों वर्ग किमी जमीन हड़प ली तो अंग्रेजों, महात्मागांधी, पं. नेहरू व मो. अली जिन्ना के कारण पाकिस्तान व बांग्लादेश को बांटकर देनी पड़ी। चूंकि अफगानिस्तान में अंग्रेजों के लूटने के लिए पत्थर व गुरबत के सिवा कुछ नहीं था, सो एक संधि के माध्यम से उसे भारत से 18 अगस्त 1919 को ही अलग कर आजाद कर दिया था। इस मामले में भारत से कहीं ज्यादा भाग्यशाली रहा अफगानिस्तान, पर चरमपंथियों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ती गई, वैसे-वैसे मार-काट व उनके टिन के कटोरे का आकार और विकराल होता गया। बीते दशक में सूखा पड़ने पर भारत ने पाकिस्तान से खराब संबंधों के बावजूद भारतीय ट्रकों का लंबा काफिला पाक के रास्ते ढाई लाख टन गेहूं, कंबल व दवाएं लेकर अफगानिस्तान भेजा था।

हालांकि ईसा पूर्व 305 से 303 तक हुए युद्ध में सेल्युकस निकेटर को हराने के बाद सम्राट चंद्रगुप्त की सोच इससे लाख गुना अच्छी थी और उन्होंने लंबे समय तक वहां शासन किया। उनका राज्य ईरान के बड़े हिस्से तक फैला था। सेल्युकस ने अपनी पुत्री हेलेना का हाथ सम्राट को सौंप दिया। रिटर्न गिफ्ट में सम्राट ने 500 हाथी दिए तो उसके दूत मेगास्थनीज को दरबार में स्थान। द्वापर युग में महाभारत के दुर्योधन की मां गांधारी वहीं की थीं तो इतिहास में बड़ी संख्या में वहां के हिंदू राजाओं का जिक्र है। जैसे- कल्लार, सामंत देव, अष्ट पाल, जय पाल, आनंद पाल, भीम पाल और त्रिलोचन पाल आदि। सैकड़ों साल पहले तक तो वहां सब कुछ सनातन ही था व 50 साल पहले तक भी सवा दो लाख से अधिक हिंदू व सिख रहते थे, पर अब सिर्फ 50 हिंदू रहते हैं व 650 सिख।

बाकी मारे गए, कंवर्ट होकर मुसलमान बन गए, बालिकाओं-महिलाओं के यौन शोशण व दुर्व्यवहार के कारण भारत आ गए या अमेरिका और यूरोप के देशों में भाग गए। बीते दशकों में बामियान में भगवान बुद्ध की प्रतिमा को तालीबानी धर्मांधों ने तोप से उड़ा दिया था। हामिद करजई जब तक वहां के राष्ट्रपति रहे, कहा जा सकता है कि तब तक सब ठीक चल रहा था। दिसंबर 2015 में जिस संसद भवन का नरेंद्र मोदी ने उद्घाटन किया था, वह भारत के ही पैसे से बनी थी। इस भवन के एक ब्लॉक का नाम भी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम परथा। अब तालीबान का शासन आने के बाद है कि नहीं, पता नहीं। मोदी ने तब भाषण में बहुत बड़ी बात कही थी कि आपका दुःख हमारे लिए पीड़ा है, आपके सपने हमारे कर्तव्य हैं, आपकी मजबूती ही हमारे लिए भरोसा है, आपकी हिम्मत हमारे लिए प्रेरणादायी है व आपकी दोस्ती हमारे लिए सम्मान की बात है।

हमारे लिए इतनी बड़ी बात तो पं. नेहरू के गुटनिरपेक्ष मित्रों इंडोनेशिया के सुकार्यों, मिस्र के कर्नल नासिर, यूगोस्लाविया के टीटो, घाना के क्वामे नकूमा और 80-90 के दशक में तत्कालीन सोवियत संघ के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव ने भी नहीं कही। श्रीलंका भी चीन की शह पाकर भारत विरोधी बयानबाजी करने लगा था, जो कि बर्बाद होने के बाद अब फिर पुराने रास्ते पर आ गया है। इसी श्रीलंका से दोस्ती की कीमत पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को जान देकर चुकानी पड़ी थी। उससे पहले परेड के निरीक्षण के दौरान अपमान झेला था। पीस कीपिंग फोर्स भेजी थी, सैकड़ों जवान उग्रवादियों के हाथों मारे गए थे। राजतंत्र के ढहने व चीन के प्रभाव के कारण वापमंथ की गिरफ्त में आने के बाद नेपाल भी बकवास करने लगा है, जबकि लाखों लोगों को भारत सेना में नौकरी के साथ न सिर्फ रोजी-रोटी दे रहा है, बल्कि आदि काल से रोटी-बेटी का संबंध रहा है।

हर मुसीबत में सदा से साथ खड़ा रहा है। कितनी बार भूकंप आदि में करोड़ों रुपए की राहत सामग्री सैकड़ों ट्रकों से भेजी गई है। इसके बाद भी चीन के फेंके गए जूठे टुकड़े पाकर नक्शे से छेड़छाड़ कर हिस्सों को अपना बताने लगा है। भूटान में लूटने के लिए बहुत कुछ नहीं था तो संधि करके कुछ अनुदान देकर अपने मतलब की पचासों किमी जमीन अंग्रेजों ने लेली थी, पर आजादी के बाद 1949 में भारत ने उसी की सम्मान करते हुए पूरी जमीन वापस कर दी थी, वरना वह भी हमारी होती। म्यांमार का भी हाल ऐसा ही है। एक दौर में भारत वहां तक था। अपार खनिज संपदा के कारण पचासों साल अंग्रेजों ने वहां राज किया। इतिहास से जितनी छेड़छाड़ अंग्रेजों ने की है, उससे कहीं ज्यादा दुनिया का भूगोल बदलने का अपराध उन्होंने किया है। माना कि तिब्बत कभी प्राचीन भारत का हिस्सा नहीं रहा, पर चीनद्वारा कब्जा करने के बाद बड़ी संख्या में तिब्बती भागकर भारत आ गए थे।

आज उनकी बड़ी आबादी भारत में ही रहकर गुजारा कर रही है। मालदीव पर भी अंग्रेजों ने कब्जा कर रखा था और भारत से ही शासन करते थे। इसे अंग्रेजों ने 1965 में आजाद किया था तो किसी दबाव में 1999 में हांगकांग चीन को दे गए थे, जब कि ताईवान जैसे अन्य छोटे देशों की तरह उसे भी आजाद देश घोषित करना चाहिए था। नेहरू चाहते तो वह सब कुछ ले लेते, जो भी अंग्रेजों के कब्जे में था, पर भारत का रुझान कभी इस दिशा में रहा ही नहीं। लक्षद्वीप के दक्षिण में स्थित इस द्वीपीय देश पर भारत ने अतीत में पानी की तरह पैसा बहाया ताकि कहीं यह दुश्मन दुनिया के हाथों में न खेलने लगे, पर इस बार के सत्ता परिवर्तन में चीन समर्थित मुइज्जू के जीतने के बाद भारत को नुकसान हुआ है। हालांकि विवाद में तीन मंत्रियों की सियासी बलि के बाद अब वह भी श्रीलंका व नेपाल की तरह पुराने रास्ते पर धीरे-धीरे आ रहा है।

ज्ञात हो कि राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम का तख्ता पलट रोकने के लिए उनके कहने पर भारत ने सेना भेजकर मदद भी की थी। यह हमारा दुर्भाग्य था कि टुकड़ों में बंटे होने के कारण इसका लाभ विदेशी आक्रांताओं ने भरपूर उठाया और जमकर लूटा। यदि हमारे पास राष्ट्र के तौर पर कुछ नहीं था तो छल-कपट व प्रपंच, अन्यथा 1949 के पिद्दी भर के चीन को पं. नेहरू कैसे बनवा देते संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य। बाहर की पड़ताल के बाद अंदर नजर डालें तो पाएंगे कि कश्मीर, केरल व संभल खाली हो चुका है तो बंगाल व बिहार और उत्तर प्रदेश के कई गांव व नगर खाली हो रहे हैं।

हालात इतने बुरे हो चुके हैं कि मंदिर में घंटा व शंख बजाएंगे, हनुमान चालीसा गाएंगे, सुंदर कांड का पाठ करेंगे, दीवाली पर पटाखे जलाएंगे और नवरात्रि में भजन बजाएंगे तो जवाब देना पड़ेगा या फिर विरोध और खून-खराबा झेलना पड़ेगा। हम हाथी थे और अब कटते, छंटते और बंटते-बंटते धीरे-धीरे भैंस के बराबर रह गए हैं, यानी कि बृहत्तर भारत से सिर्फ भारत बचे हैं, फिर भी यह कहना कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।बेशर्मी की हद है और खुद को अंधेरे में रखने जैसा है। सवाल है कि हस्ती मिटना आखिर किसे कहते हैं?

पड़ोसियों से संबंध : दोस्ती से कटुता की ओर

हम तो दुनिया के हर तरह से सबसे विशाल और सबसे सक्षम देश रहे हैं हजारों साल से। बार-बार, चार बार काटने, छांटने व बांटने के बाद जितना बड़ा भारत अब बचा है, पीछे 80 से 160 साल में करीब-करीब इतना ही पड़ोसी हथिया चुके हैं, वरना था क्या नहीं हमारे पास? दुनिया पर एकछत्र राज करने के लिए जो कुछ भी जरूरी होता है, वह सब हमारे पास हजारों साल से था, पर किसी को सताने, दबाने या राज करने की गलत नीयत नहीं थी। सनातन अकेला व अलबेला है, जो सदियों से वसुधैव कुटुंबकम् की बात करता रहा है और आज भी करते हैं।

दुनिया के पहले शिल्पी भगवान विश्वकर्मा, महर्षि दधीचि, महर्षि अगस्त्य, देवगुरु बृहस्पति, राजा हरिश्चंद्र, ऋषि वशिष्ठ, ऋषि विश्वामित्र, भगवान राम, महर्षि परशुराम, महाज्ञानी रावण, गुरु गोरखनाथ, महर्षि वेद व्यास, भगवान श्रीकृष्ण, गर्ग मुनि, गुरु द्रोणाचार्य, अर्जुन, ऋषि कण्व, कपिल मुनि, विमानशास्त्री ऋषि भारद्वाज, ऋषि पतंजलि, ऋषि शौनक, वाल्मीकि, शकुंतला, गौतम बुद्ध, महावीर जैन, महर्षि कणाद प्राचीन भारतीय परमाणु विज्ञानी, नक्षत्र विज्ञानी, चंद्र व सूर्यग्रहण की सटीक गणना एवं गुरुत्वाकर्षण बताने वाले दुनिया के पहले ऋषि भाष्कराचार्य, शुल्ब सूत्र (पाइथागोरस प्रमेय) के प्रथम ज्ञाता त्रिकोणमितिज्ञ बौधायन, गणितज्ञ, ज्योतिर्विद्, खगोलशात्री, शून्य और दशमलव की खोज करने वाले आर्यभट्ट व वाराह मिहिर, शल्य चिकित्सक सुश्रुत, रसायनशास्त्री नागार्जुन, आयुर्वेदाचार्य चरक व वांग्बट (प्राकृतिक विज्ञानी), दार्शनिक ऋषि मनु, राजनीति, अर्थनीति व कूटनीति के ज्ञाता आचार्य चाणक्य, सम्राट हर्षवर्धन, चंद्रगुप्त, अशोक और नालंदा व तक्षशिला औरपुष्पक विमान आदि सब कुछ तो था।

अब आइए, लगे हाथ नए भारत की बात कर लें। पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, गुरु नानक, गुरु गोबिंद सिंह, रामकृष्ण परमहंस, दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, रानी झांसी, रानी गिडालू, मंगल पांडेय, ऊधम सिंह, वीर सावरकर, होमी जहांगीर भाभा व विक्रम साराभाई, कमाल के मिसाइल मैन कलाम, वैज्ञानिक हरगोबिंद खुराना व जेसी बोस, रवींद्रनाथ टैगोर, चंद्र शेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी, डॉक्टर अम्बेडकर, टाटा, बाटा, बिरला, मोदी व सिंहानिया आदि के होने के बावजूद हम शोषित बने रहे, पर दुनिया में कभी किसी का शोषण नहीं किया और न ही पहले हमला। इतने महान और समृद्ध इतिहास के बाद हमारे ही बच्चे (काटे, छांटे व बांटे गए) जब बकवास करते हैं तो तरस उनकी बुद्धि पर आता है।

चीन का तिब्बत पर कब्जा, म्यांमार का सूपड़ा, मालदीव व नेपाल का लफड़ा, श्रीलंका का कूड़ा और पाकिस्तान का कचरा देखकर अफगानिस्तान एवं बांग्लादेश को अभी से सतर्क हो जाना चाहिए। अगर समय से नहीं चेते भारत के पड़ोसी देश तो दोयम दर्जे की चीजों का डंपिंग ग्राउंड बना देगा चीन। उसका और उसकी चीजों का हाल है, चल जाए तो कम नहीं, खो जाए तो कोई गम नहीं। भले ही अफलातूनी विज्ञान में वह समय से एक कदम आगे हो, पर अमेरिका ने उसके कई तथ्य उजागर किए हैं। जैसे सीमा पर मिसाइल तक उसने डमी तैनात कर रखे हैं। वह मानव नहीं है। वह ड्रैगन है। वह भारत नहीं है, जो दुश्मन से भी भावनात्मक रूप से पेश आता है व शव का भी सम्मान करता है। पहले किसी पर कभी हमला न करने का अपना इतिहास रहा है।

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