हर साल 16 नवंबर को मनाया जाने वाला अंतरराष्ट्रीय सहनशीलता दिवस यह संकल्प व्यक्त करता है कि हमें असहिष्णुता, नफरत, घृणा और द्वेष की भावनाओं से ऊपर उठकर एक दूसरे के प्रति सहिष्णु और समावेशी होना चाहिए। यह दिवस विशेष रूप से हमें यह याद दिलाता है कि सहनशीलता ही वह आधार है, जो एक सशक्त और शांतिपूर्ण समाज की नींव रखती है।असहिष्णुता और घृणास्पद भाषण न केवल समाज में तनाव, संघर्ष और हिंसा को बढ़ाते हैं, बल्कि यह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। असहिष्णुता के कारण साम्प्रदायिक हिंसा, उन्माद और युद्ध जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, जो किसी भी राष्ट्र के विकास और शांति के मार्ग में रुकावट डालती हैं। वहीं, सहिष्णुता समाज में एकजुटता और समझ को बढ़ावा देती है, और यह बहुसांस्कृतिक, बहुजातीय और बहुधार्मिक समाजों को मजबूत बनाती है। असहिष्णुता की मनोवैज्ञानिक विवेचना यह दर्शाती है कि यह मुख्यतः अनजान कारकों एवं स्थितियों के प्रति संदेह से भरे रवैये से उपजती है। ऐसी मनोवैज्ञानिक स्थिति किसी भी समाज के लिये स्वस्थ मनोदशा का प्रतीक नहीं हो सकती। साथ ही, परस्पर सद्भाव एवं सम्मान के स्थान पर प्रतियोगिता तथा द्वेष से संचालित समाज अंततः बिखराव की तरफ बढ़ने को अभिशप्त होता है।
फलस्वरूप राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को अक्षुण्ण रखने के लिये भी असहिष्णुता के स्तर को नियंत्रण में रखना बहुत आवश्यक है। सहनशीलता का शाब्दिक अर्थ है शरीर और मन की अनुकूलता और प्रतिकूलता को सहन करना। मानव व्यक्तित्व के विकास और उन्नयन का मुख्य आधार तत्व सहिष्णुता है। स्वयं के विरूद्ध किसी भी आलोचना को स्वीकार नहीं करना मोटे रूप में असहिष्णुता है। बताया जाता है कि सहिष्णुता मनुष्य को दयालु और सहनशील बनाती है वहीं असहिष्णुता मनुष्य को दम्भी या अहंकारी बनाती है। अहंकार अंधकार का मार्ग है जो मनुष्य और समाज का सर्वनाश कर देती है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई-झगड़ा आम हो गया है। इतना ही नहीं लोग रिश्ते-नाते भूलकर भी जान लेने और देने पर उतारू हो रहे हैं।
सहनशीलता का जिंदगी में बहुत महत्त्व है। जिसने जीवन में सहन करना सीख लिया वह जिंदगी की हर जंग जीत सकता है। सहिष्णुता जीवन शक्ति का पर्याय है। विश्व के देशों में सहनशीलता का निरंतर क्षरण हो रहा है। शासक एक दूसरे के विरुद्ध ऐसे बयान जारी कर रहे हैं जिससे विश्व में कटुता और असहिष्णुता का बाजार गर्म हो रहा है। इसी से युद्ध हो रहे हैं। रूस-यूक्रेन हो या हमास-इजरायल लम्बे समय से युद्ध से झूलस रहे हैं। इजरायल और हमास के बीच पिछले एक साल से लगातार युद्ध चल रहा है. जिसमें अब तक हजारों लोगों की जाने जा चुकी हैं। वहीं रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध से समूचे विश्व की अर्थ-व्यवस्था प्रभावित है। बात विश्व की ही नहीं, राष्ट्र एवं समाज की भी है, हर ओर छोटी-छोटी बातों पर उत्तेतना, आक्रोश, हिंसा, नफरत, द्वेष के परिदृश्य व्याप्त है। विश्व सहनशीलता दिवस मनाने के पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि मानव समुदाय एक दूसरे का सम्मान करें और उन भावनाओं को पुष्ट करें जिससे किसी भी स्थिति में सहिष्णुता को हानि नहीं पहुंचे। ईसा मसीह ने अपने अनुयायियों से कहा, ‘हिंसा का प्रतिकार कभी हिंसा से नहीं करना, बल्कि सहिष्णुता से करना और अगर कोई तुम्हारे एक अंग पर प्रहार करे तो दूसरा अंग भी उसके आगे कर देना।’ आततायियों द्वारा सलीब पर चढ़ाए जाते हुए भी ईसा मसीह ने कहा, ‘हे ईश्वर, इन्हें क्षमा कर देना क्योंकि ये नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं।’
प्राचीन काल और मध्य युग में अहिंसा और सहिष्णुता की जो बातें मनु, बुद्ध, महावीर और नानक ने कही उसी की नई इबारत गांधीजी ने लिखी। किसी भी उद्देश्य के लिए किसी भी पक्ष द्वारा हिंसक मार्ग के अनुसरण को उन्होंने यह कह कर नकारा कि सात्विक दृष्टि से जब सब एक ही परमात्मा के अंश है, आस्था एक ही है तो फिर विद्वेष, प्रतिहिंसा और प्रतियोगिता क्यों? जिस समाज के पास वेदवाणी और गुरुवाणी से लेकर गांधी तक अहिंसावादी विचारों की धरोहर हो, वहां इतनी असहिष्णुता और इतनी हिंसा क्यों? एक बहुत झीनी, नाजुक और पतली-सी दीवार है सहिष्णुता, जिसके पीछे हिंसा, घृणा, वैर विरोध और प्रतिरोध जैसे विकार घात लगाए बैठे हैं। पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक या आर्थिक में से कोई भी कारण सहिष्णुता की नाजुक दीवार को गिराने के लिए काफी हो सकता है। किसी भी युग में किसी भी देश में जब-जब सहिष्णुता की दीवार में कोई सुराख करने की कोशिश हुई है, तब-तब आसुरी एवं हिंसक शक्तियों ने सामाजिक एकता को कमजोर किया है और विनाश का तांडव रचा है।
सहिष्णुता तभी कायम रह सकती है जब संवाद एवं सौहार्द कायम रहे। सहिष्णुता इमारत है तो संवाद आधार। लेकिन प्रतिस्पर्धा और उपभोक्तावाद के जाल में फंस चुके इस विश्व में यह संवाद लगातार टूटता जा रहा है। दूसरों के प्रति असहिष्णुता और वैर भाव देखने वाला व्यक्ति समाज का अहित बाद में और अपना अहित पहले करता है। कारण यह है कि मन में मानसिक शांति और आसुरी तत्व दोनों एक साथ रह ही नहीं सकते। हिंसात्मक विचार और विकार मन से शांति को उखाड़ कर ही अपना स्थान और सामान्य बनाते आए हैं। सहिष्णुता एक उत्प्रेरक है अनेक अनुवर्ती क्रियाओं की। जिस समाज में सहिष्णुता है, वहां क्षमा है। जहां क्षमा है वहां सौहार्द है। जहां सौहार्द है वहां सहयोग और समन्वय है। जहां समन्वय है, वहां शांति है। जहां शांति है, वहां मानव का, समाज का, राष्ट्र और विश्व का विकास है। इसी युग में दुनिया के कई शांतिप्रिय राष्ट्रों की मिसाल हमारे सामने है, जिन्होंने मारामारी, हिंसा और तनातनी से दूर रहकर सामाजिक और आर्थिक विकास की कई बुलंदियों को छुआ है और वे लगातार आगे बढ़ रहे हैं। उन्होंने सहिष्णुता के मार्ग का ही अनुसरण किया है।
असहिष्णुता शांति एवं सह-जीवन के लिये ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य के लिये भी घातक है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि चिंता ‘चिता’ समान और क्रोध ‘विनाश’ की पहली सीढ़ी होता है। जल्दी उत्तेजित होने वाले जहां अन्य लोगों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। वहीं, खुद की सेहत से भी खिलवाड़ कर रहे हैं। हाई ब्लड प्रेशर और हृदय रोग उन्हें जकड़ रहे हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, सही शिक्षा के अभाव में नई पीढ़ी में मानसिक सहनशीलता कम हो रही है। वहीं सामाजिक परिवेश के आकलन के बिना बनाए गए कानून भी आग में घी का काम कर रहे हैं। पढ़ाई व संस्कारों के लिए स्कूलों में डांटना-मारना उत्पीड़न कहा जा रहा है। ऐसे में जहां शिक्षकों को अपमान झेलना पड़ता है। वहीं, युवाओं के हौसले बुलंद हैं। इस समस्या से बचने के लिए सिर्फ शरीर ही नहीं बल्कि दिमाग को भी मजबूत करना पड़ेगा। इस अंतरराष्ट्रीय सहनशीलता दिवस पर हर व्यक्ति को संकल्प लेना चाहिए कि वो स्वयं सहनशील बनेगा तथा अपने बच्चों को सहनशील बनाएगा। क्योंकि सहनशील व्यक्ति अपने आसपास के वातावरण में शांति और सौहार्द्र कायम रखता है। यह हमारे जीवन के सकारात्मक पहलुओं को उजागर करता है। ऐसे लोग हर स्वभाव के लोगों के साथ तालमेल रखते हैं। आधुनिक युग में रिश्तों में दरार उत्पन्न होने और हिंसा में वृद्धि होने के कारकों में सहनशीलता का अभाव ही है। सहनशीलता हमारे जीवन का मूल मंत्र है। सहिष्णुता ही लोकतंत्र का प्राण है और यही वसुधैव कुटुम्बकम, सर्वे भवन्तु सुखिनः एवं सर्वधर्म सद्भाव का आधार है। इसी से मानवता का अभ्युदय संभव है।
आज के वैश्विक युग में, जहां वैश्वीकरण और अंतर्राष्ट्रीय वित्त व्यवस्था का महत्व बढ़ रहा है, सहिष्णुता की आवश्यकता और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। एक सहिष्णु समाज ही अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और आपसी सहयोग को बढ़ावा दे सकता है, जो वैश्विक अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाता है। इस प्रकार, सहिष्णुता न केवल व्यक्तिगत स्तर पर बल्कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी समाज के विकास और समृद्धि के लिए आवश्यक है। अंतरराष्ट्रीय सहनशीलता दिवस की शुरुआत 1996 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा एक औपचारिक प्रस्ताव के माध्यम से की गई थी। इससे पहले 1995 में महात्मा गांधी की 125वीं जयंती पर संयुक्त राष्ट्र ने सहनशीलता वर्ष मनाने का निर्णय लिया था। इस पहल का उद्देश्य लोगों में एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता और समझदारी की भावना को बढ़ावा देना था।
यह दिवस इस बात का प्रतीक है कि हमें अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में सहिष्णुता को बढ़ावा देना चाहिए। यह न केवल सामाजिक सौहार्द के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह देश की अर्थव्यवस्था, राजनीतिक स्थिरता और अंतर्राष्ट्रीय छवि को भी प्रभावित करता है। सहानुभूति और सहिष्णुता समाज में एक दूसरे के विचारों, धर्मों, संस्कृतियों और पृष्ठभूमियों को सम्मान देने की संस्कृति को प्रोत्साहित करती है। इस दिन हम सभी से यह अपील करते हैं कि हम अपने जीवन में सहिष्णुता को बढ़ावा दें, ताकि समाज में शांति और सद्भावना का वातावरण बने।