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न्याय के देवता 16 साल तक नहीं देते कष्ट

ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों का विशेष महत्व बताया गया है और इनको दो भागों में विभक्त किया गया है। वहीं द्वितीय अशुभ ग्रह की श्रेणी में आते हैं। शुभ ग्रहों में बुध, चंद्र, गुरु और शुक्र हैं। तो वहीं अशुभ ग्रहों में राहु, केतु, मंगल और शनि हैं। ज्योतिष में सूर्य देव को भी अशुभ ग्रह की श्रेणी में रखा जाता है। हालांकि सूर्य आत्मा के कारक हैं। वहीं राहु-केतु के साथ युति होने पर सूर्य का शुभ प्रभाव व्यक्ति पर नहीं पड़ता है। वहीं शनिदेव के साथ रहने पर शनिदेव का प्रभाव बढ़ जाता है। जब किसी जातक की कुंडली में सूर्य, मंगल और शनि के मजबूत होने पर व्यक्ति के जीवन में किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं होती है।

ज्योतिष की मानें तो शनिदेव को न्याय का देवता माना जाता है। शनिदेव को यह वरदान भगवान शिव से मिला है। शनि देव हर राशि में ढाई साल रहते हैं। शनि के गोचर से व्यक्ति को साढ़े साती से गुजरना पड़ता है। शनि की ढैय्या ढाई साल की होती है। बता दें कि 19 सालों तक शनि की महादशा रहती है। इस दौरान व्यक्ति के जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखने को मिलते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि शनिदेव 16 साल की आयु तक किसी भी जातक को कष्ट नहीं देते हैं। 16 साल की आयु तक जातक शनिदोष से मुक्त रहता है। ऐसे में आज इस आर्टिकल के जरिए हम आपको इससे जुड़ी पौराणिक कथा के बारे में बताने जा रहे हैं।

ऋषि पिप्पलाद

स्कंद पुराण के मुताबिक ऋषि पिप्पलाद महान दार्शनिक और रचनाकार थे। बताया जाता है कि अथर्ववेद का संकलन ऋषि पिप्पलाद ने किया है। ऋषि भारद्वाज भी ऋषि पिप्पलाद की परीक्षा लेने के लिए उनके पास गए। तब ऋषि पिप्पलाद ने अपने जवाबों से सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। तब ऋषि भारद्वाज समेत अन्य ऋषियों ने पिप्पलाद को भगवान शिव को अंशावतार बताया था। ऋषि ने अपने तपोबल से न्याय के देवता को सोलह साल तक किसी भी बालक को कई कष्ट न देने की सलाह दी, बताया जाता है कि ऋषि पिप्पलाद का बचपन काफी संकटमय तरीके से बीता था। जिसका कारण शनिदेव को माना गया। तब ऋषि ने शनिदेव को कहा कि वह न्याय करने के दौरान बच्चे को मुक्त रखें।

कथा

प्राप्त जानकारी के अनुसार, ऋषि पिप्पलाद के माता-पिता को लेकर शास्त्रों में विभिन्न मत हैं। स्कंद पुराण के मुताबिक ऋषि पिप्पलाद के पिता का नाम ऋषि दधीचि और माता का नाम सुभद्रा था। जब माता सुभद्रा मां बनने वाली थीं। तभी स्वर्ग लोक पर वृत्रासुर नामक असुर ने अधिपत्य स्थापित कर लिया था और तीनों लोगों में उसका वर्चस्व कायम हो गया था। वृत्रासुर को किसी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता था। तब सभी देवता ब्रह्म देव के पास गए और उनको असुर के आतंक की जानकारी दी।

तब ब्रह्म देव ने कहा कि वृत्रासुक को किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं बल्कि पृथ्वी पर मौजूद महान ऋषि दधीचि की अस्थियों से बने वज्र से मारा जा सकता है। यदि ऋषि अपनी अस्थियों का दान करते हैं, तो समस्त लोकों का कल्याण हो जाएगा। तब सभी देवता ऋषि दधीचि के पास पहुंचे और ऋषि ने देवताओं की विनती स्वीकार कर ली।

जिसके बाद ऋषि दधीचि ने समाधि बनाई और तप विद्या के प्रभाव से पंचतत्व में विलीन हो गए। फिर ऋषि की अस्थियों से वज्र और सुदर्शन चक्र मिला। जब ऋषि की पत्नी को यह जानकारी मिली, तो उन्होंने अपने गर्भ में पलने वाले बालक को पीपल देव को सौंप दिया और खुद पति के साथ सती हो गईं। यह नवजात और कोई नहीं बल्कि ऋषि पिप्पलाद थे। बाल्यावस्था में पिप्पलाद ने मिले कष्टों का कारण शनि देव को माना।

तब ऋषि पिप्पलाद क्रोधित होकर शनिदेव को सबक सिखाने के लिए भोलेनाथ की कठिन तपस्या करने लगे। हालांकि भगवान शिव ने उनके क्रोध को शांत किया और शनि देव को ऋषि पिप्पलाद की शरण में आना पड़ा। उस समय ऋषि ने शनिदेव को यह कहकर क्षमा कर दिया कि अब तक 16 साल की आयु तक किसी भी बच्चे को कष्ट नहीं देंगे।

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