मरते सपने

अनूप गुप्ता

कोटा का नाम जेहन में आते ही बरबस ही थी इडियट की याद आ जाती है, क्योंकि समाज इडियोक्रेसी के एरा में धंस चुका है। यहां फैसले देश, काल व परिस्थिति के हिसाब से नहीं हो रहे हैं। पढ़ाई के आतंक के नाम पर लाखों पिता के पैर कमोबेश हर माह ही चादर के बाहर निकल जा रहे हैं। वे भी सोचते हैं कि चाहे चादर फट ही क्यों न जाए, एक बार बच्चा पास हो गया तो नई चादर ले लेंगे। कहना न होगा कि घर के दो इडियट को पहले थी इडियट देखनी चाहिए। इस तरह तीसरा इडियट पड़ोसी या रिश्तेदार खुद-ब-खुद सुधर जाएगा। कहा जाता रहा है कि आबादी के अनुपात में देश में ये कम हैं, वे कम हैं, डॉक्टर व इंजीनियर कम हैं तो फिर आगे बढ़कर आबादी को थामो न।

देश में बहुत ज्यादा डॉक्टर इंजीनियर बन भी गए तो इतनों को सरकारी व निजी क्षेत्र में नौकरी कहां रखी और अपनी प्रैक्टिस का हाल सभी को पता है, किस्तें तक नहीं जा पा रही हैं हजारों लोगों की? कोटा का हाल हो गया है अब पैसा फेंको, तमाशा देखो। यदि पेमेंट हो चुका है तो ही वे आएंगे व बच्चों पर लेक्चर की उल्टी करके भाग जाएंगे। सवाल यह है कि हालात देख इस शैली को कोठा क्यों न कहा जाए? इस दौर में लोकल लड़के (लोबो) टीचिंग कॅरियर को प्राथमिकता दे रहे हैं। उसी में फ्यूचर तलाश रहे हैं। उसी से धनी व सुखी बनना चाह रहे हैं तो दूसरे प्रांतों के मिडिल व लोअर मिडिल क्लास लोग बच्चों को नौकर बनाकर करोड़पति बनने का सपना रोज रात के साथ दिन में भी देखते हैं। बच्चा डॉक्टर इंजीनियर बने या न बने, इससे अपर क्लास को फर्क नहीं पड़ता।

इससे इतर जब वे सोच लेंगे कि कराना है तो कहीं न कहीं से, किसी न किसी संस्थान, शहर या देश से करवा ही देंगे। फर्क तो उन्हें पड़ता है, जिनकी जिंदगी किस्तें भरने में कटी जा रही हैं। पास होने की दशा में बच्चों को भी एजुकेशन लोन धड़ल्ले से दिलाकर मकड़जाल में फंसाए दे रहे हैं। ध्यान रहे ये बच्चे गरीबी दूर करने का न उपाय हैं, न मोहल्ले व रिश्तेदारों में रौब जमाने का जुगाड़, कॉलर खड़े करने व सीना तानकर चलने का हथियार और न लैविश लाइफ जीने का साधन। जिंदगी में जो मां-बाप कभी एक बार कोटा स्टेशन तक से नहीं गुजरे। सैकड़ों किमी दूर बैठकर बच्चे के 10वीं व रात में बेड पर पहुंचते ही उनके दिमाग में कोटा का कीड़ा कुछ ज्यादा ही काटने लगता है। उसकी 13वीं की तैयारी शुरू करने के बजाय एक बार उससे भी पूछ लो कि वह जिंदगी में क्या चाहता है?

रेस में सबसे आगे रहते हैं जिंदगी में कुछ खास न कर पाने वाले माता-पिता। कुछ बेचकर, अपनी जरूरतों को अगले माह पर टालकर और अपना पेट काटकर वे बच्चे को कोचिंग के लिए कोटा भेज रहे हैं ताकि वह उनके सपनों को पूरा कर सकें। रफ्तार का आलम यह है कि जैसे वहां जाते ही वह गवर्नर बन जाएगा, जबकि इस दौर के बच्चे खुद के सपने बुनना चाहते हैं। अपने सपनों को पूरा करने के लिए खुद को न्यौछावर करना चाहते हैं। मीडियाकर हैं तो कुछ और करने दें। हो सकता है दूसरे क्षेत्र में वह और बेहतर दे दे। ऐसी ही राय व्यक्त की है राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय अजमेर के पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष प्रो. डॉ. अमिताभ श्रीवास्तव। वह कहते हैं कि बच्चे रेस के घोड़े बन चुके हैं, जिन पर माता-पिता की महत्वाकांक्षाओं ने दांव लगा रखा है। जीतेंगे चंद ही, जिन्हें ही स्वीकार करने की समाज में परंपरा रही है।

हारे हुए को कब दूसरों ने स्वीकार  किया है, पर अभिभावक को तो करना ही होगा। कभी-कभी खुद के सपने भी ऊंचा उड़ाते हैं  और आसमान से गिरकर संभलना सब के बस की बात नहीं होती। इस कारण भी कोचिंग हब सुसाइडल हब बनता जा रहा है। यह हुआ क्यों? जवाब छोटा सा है, जो शिक्षा आनंददायी होनी थी, वह जरिया बन गई आमदनी का। विधान और पढ़ाई का विज्ञान ऐसा हो कि दोनों को मजा आए। कौशल के बजाय दिमाग में सिर्फ सूचनाएं भरी जा रही हैं परीक्षा पास करने के लिए। एग्जाम क्रैक नहीं हुआ तो सूचनाएं जंजाल बन गई। विद्यार्थी इसी में उलझ गया है। अब सवाल है कि कब तक दुनिया सचिन से सॉफ्टवेयर बनवाने की कोशिश करती रहेगी, कब तक कल का परमवीर फॉर्मूले रटेगा और कब तक कोई पीटी ऊषा नीट की तैयारी करती रहेगी? जनवरी के आंकड़ों में कोई बच्चा असम का था तो कोई गुजरात का।

इन्हीं में एक थी छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा के पूर्व बीजेपी विधायक भीमा मंडावी की बेटी दीपा मंडावी। दुःखद पहलू यह है कि यह परिवार एक मां के सहारे था, क्योंकि पूर्व विधायक दंतेवाड़ा में 2019 में नक्सली हमले में मार दिए गए थे। नक्सलियों ने श्यामगिरी में आईईडी विस्फोट करके उनकी हत्या कर दी थी। यह दीगर बात है कि दीपा की मां ओजस्वी राज्य महिला आयोग की सदस्य हैं। यानी कि घर में सब कुछ था, यदि कुछ नहीं था तो बच्चे में वह आत्मबल, जिसके सहारे उसे नया जीवन शुरू करना था और मां को को खुलकर बोलना था कि यह हमारे बस में  नहीं है। बीते दो दशक में जिन एनजीओ ने बहुत अधिक ग्रांट केंद्र या राज्य सरकार से पाई हो, उन्हें कोटा जाकर नई पौध पर काम करने की जरूरत है। चूंकि कोचिंग भी एक उद्योग बन चुका है तो सीए‌सआर फंड वाले दायरे में उन्हें भी लाया जाए।

नियम बनाकर कम से कम बच्चों को कॅरियर गाइडेंस व अन्य विकल्पों के बारे में मुफ्त सलाह देने की व्यवस्था उनकी तरफ से की जाए। किसी न किसी स्तर से शुरुआत तो अब करनी ही होगी, फिर चाहे यह कोचिंग की तरफ से हो, एनजीओ की तरफ से हो या फिर सरकार की तरफ से। जिला प्रशासन सब कुछ दूसरों के सहारे नहीं छोड़ सकता। बच्चों को ऊर्जावान व रिफ्रेश करने के लिए बड़े पैमाने पर प्रोग्राम चलाने होंगे। विकल्पों का प्रचार-प्रसार बहुत जरूरी हो गया है अब। बच्चों को सिर्फ गधा समझ कर रोज सुबह से शाम या दिन से रात तक बोझ लादा जा रहा है। वे अभी परिपक्व नहीं हैं इसलिए उन्हें तरोताजा रखने की जरूरत है। फिलवक्त किसी भी स्तर से कोई प्रोग्राम नहीं चल रहा है, न इस दिशा में कोचिंग वाले ही कुछ कर रहे हैं। गाइडलाइंस जारी करके प्रशासन ने भी छुट्टी पा ली थी।

पालन हो रहा है या नहीं, इस पर नजर रखने का जिम्मा जिला अथॉरिटी का नहीं है तो फिर किसका है? अब रोज शाम या छुट्टी के छुट्टी पार्क, स्टेडियम या किसी भी खुली जगह पर में बच्चों को लाना जरूरी हो गया है। उन्हें मोटीवेशनल स्पीकर व मनोचिकित्सकों से ज्ञान दिलाने की जरूरत आ पड़ी है ताकि बोझिल समय में से कुछ क्षण हल्के-फुल्के अंदाज में जी सकें। ये जिले के अधिकारी भी हो सकते हैं तो समाज के बड़े-बुजुर्ग, रिटायर्ड व सामान्य लोग भी। शहर या पड़ोसी जिलों के इंडीनियर, डॉक्टर, सीए और अन्य पेशों के नामचीन के साथ सफल व असफल लोग भी हो सकते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि कोचिंग के टीचर तो कतई नहीं होने चाहिए, क्योंकि उनसे ही बच्चे भाग रहे हैं। वे केवल पढ़ा रहे हैं। अब वक्त कह रहा है कि वे अपने तौर-तरीकों की समीक्षा करें। हर बच्चे की मौत पर उनमें भी टीस उठनी चाहिए कि आखिर कहां कमी रह गई हम में और हमारे पढ़ाने के तरीके में।

उन्हें पढ़ाने के मशीनी तरीके बदलने होंगे व आगे बढ़कर जान की सुरक्षा जैसी और भी जिम्मेदारी उठानी होगी ताकि अब कोई बच्चा आत्महत्या न करने पाए। इसके विपरीत हाल यह है कि इधर मौत हुई, उधर शो चालू है। कोटा के साथ पूरा देश बोलना चाहता है कि अब व्यवस्था ठीक है। अभी तक तो हाल यह है कि लोग त्राहिमाम कर रहे हैं व जागरूकों का कहना है कि बस अब और नहीं। कोचिंग तो दिल्ली से लेकर देश के सभी राज्यों की राजधानी में आईएएस की भी बहुत सी चल रही हैं, पर वहां से खुदकुशी की खबरें न के बराबर आ रही हैं। इसका मतलब साफ है कि वे मेच्योर हैं। उनके पास विकल्प हैं व कोटा वालों के पास न विकल्प हैं और न ही समझदारी। यानी कि एक ऐसे सिस्टम की जरूरत है, जो समझा सके कि सारे के सारे न इंजीनियर बन जाएंगे और न ही एमबीबीएस। कहीं न कहीं, किसी न किसी स्तर पर बच्चों और उनके माता-पिता को भी समझौता करना होगा। जानकार कहते हैं कि कोटा वाले बच्चे डबल इनसेक्योर हैं।

उनमें खुद को समझाने की कूबत नहीं है तो भला वे बगल वाले बच्चे को कैसे बड़ी परेशानी से बचा सकते हैं? कैसे समकक्षों की मदद कर पाएंगे और कैसे माता-पिता को अपनी बात समझा पाएंगे कि यह हमारे बस का नहीं है या सारे के सारे एमबीबीएस नहीं बन जाते हैं? कुछ बीडीएस बनेंगे, कुछ बीएचएमएस व कुछ बीएएमएस। बाकी को फिर लौटकर घर आना है और नए तरीके से जिंदगी शुरू करनी है। जैसा कि ढेर सारे आईएएस ऐस्पिरेंट्स करते हैं। घटनाएं नहीं रुकने के बाद प्रशासन ने 15 दिसंबर 2022 को संशोधित गाइडलाइन जारी की थी। मोटे तौर पर नौ बिंदु थे, जिन्हें कभी सख्ती से लागू नहीं कराया गया। हर बार की तरह कुछ दिन तो असर दिखता है, फिर बात आई गई हो जाती है क्योंकि प्रॉपर मॉनीटरिंग नहीं हो रही है। कई स्तर से कई बार बात उठी है कि पालन नहीं हो रहा है।

जेईई/नीट वाले बच्चों को मौखिक व लिखित रूप से दूसरे कॅरियर के बारे में जानकारी देनी थी कोचिंग के जरिए, पर ज्यादातर कोचिंग में ऐसी कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है। किसी सुसाइड के बाद जब मामला गर्माता है तो कुछ दिन व्यवस्था कर दी जाती है और बात फिर ठंडे बस्ते में। रिजल्ट का प्रचार-प्रसार बढ़ा-चढ़ाकर नहीं करेंगे, पर हो रहा है। रिजल्ट के बाद श्रेय लेने की होड मच जाती है और अखबार विज्ञापन से पट जाते हैं। इसे अखबारों की दूसरी दीवाली भी कह सकते हैं इसीलिए विज्ञापनदाता के प्रति उनका सॉफ्ट ट्रेंड जगजाहिर है। ज्यादा स्कोर करने वाले को बच्चों के सामने हीरो की तरह पेश करके जश्न मनाने व रैली निकालने से अनुकूल कम और प्रतिकूल प्रभाव ज्यादा पड़ रहा है। कोचिंग संस्थान विज्ञापन में लिखें कि सेलेक्शन की कोई गारंटी नहीं है। इसके उलट वे बराबर विज्ञापनों में दावा कर रहे हैं कि सिर्फ उनके पास ही है आपके सपने को सच करने की गारंटी।

स्टूडेंट्स की रुचि और एप्टीट्यूड की जांच के लिए कॅरियर और व्यावसायिक काउंसलर की सेवाएं नहीं ली जा रही हैं, जबकि होना तो यह चाहिए कि अनिवार्य रूप से समय निकाल कर छुट्टी वाले दिन किसी खुली जगह या पार्क में टी पार्टी के नाम पर सभी ब्रांच के बच्चे इकट्ठा किए जाएं और क्षमता के आकलन के बाद स्टूडेंट्स को उसके अनुसार विकल्प चुनने का अवसर दिया जाए। सफलता की कहानियां भी सुनाई जाएं, पर गाना-बजाना भी हो। म्यूजिक को दुश्मन नहीं, बल्कि दोस्त की तरह पेश किया जाए। कुल मिलाकर पढ़ाई की कम और मनोरंजन व काउंसिलिंग जैसे दूसरे पहलुओं पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। कोचिंग में एडमिशन के लिए पहले टेस्ट होते थे, पर अब सब बंद है।

स्टूडेंट्स और उनके पैरेंट्स के लिए ओरिएंटेशन प्रोग्राम हो, जिसमें इजी एग्जिट, फीस रिफंड, रोज दस मिनट योगा, कोचिंग टेस्ट में रैंक जारी नहीं करना, संडे को अवकाश, तीन महीने में पैरेंट्स-टीचर मीटिंग समेत कई बातें रखी जाएं। कुछ ही कोचिंग में एग्जिट पॉलिसी लागू है, फिर भी फीस रिफंड को लेकर शिकायतें आती रहती हैं। टेस्ट में रैंकिंग का खुलासा करने से फ्रस्टेशन ज्यादा हो रहा है। संडे को छुट्टी कम ही संस्थान रख रहे हैं, जबिक ऊपर बताए गए रास्ते पर चलकर दोनों पक्षों को बड़ा लाभ हो सकता है, पर हैरत है कि पढ़े-लिखे लोग इसे तरक्की में बाधा मान रहे हैं। हर कोचिंग परिसर में पौष्टिक खाने के प्वॉइंट बनाने चाहिए। इन हाउस क्लीनिक के नाम पर सभी के पास सिर्फ फर्स्ट ऐड बॉक्स ही मिलेगा। हॉस्टल पीजी संचालकों के पेंच कसने की सख्त जरूरत है।

आज भी एंटी हैंगिंग डिवाइस सैकड़ों जगह नहीं है। रिफंड तो कोई करना ही नहीं चाहता है। बच्चों का एंट्री रिकॉर्ड, सुरक्षा गार्ड और सीसीटीवी की पुख्ता व्यवस्था ही चाहिए। वे स्टूडेंट वेलफेयर के लिए न के बराबर कुछ करते हैं। थानों में बच्चों के लिए अलग से कोई हेल्प डेस्क नहीं है। अटेंडेंस में भी झोल है। कुछ संस्थानों में दूसरा बच्चा भी किसी के कार्ड से पंच कर सकता है। इस तरह पैरेंट्स और कोचिंग गफलत में रहते हैं। सभी पहलुओं को बचपन से करीब से देख रहे स्थानीय निवासी व उत्तर भारत के विभिन्न नामचीन हिंदी मीडिया संस्थानों में रहे वरिष्ठ पत्रकार अनिल भारद्वाज ने विद्यार्थी, माता-पिता, हॉस्टल व कोचिंग संचालकों यानी चारों के पक्ष विस्तार से रखे।

वह कहते हैं कि उन्हीं बच्चों को कोटा भेजें, जो खुद इच्छा प्रकट करें या जिनके नंबर बोलें। जबरदस्ती न अपने सपने बच्चों पर थोपें और न ही उन्हें गरीबी दूर करने का औजार मानें। माता-पिता याद रखें कि बच्चे न तो औजार हैं और न ही फौलाद हैं। वे सिर्फ औलाद हैं तो उन्हें अपेक्षाओं का लेवल घटाने की जरूरत है। बीच में यह अपेक्षा उपेक्षा में कब बदल जा रही है आजकल, दोनों ही नहीं जान पा रहे हैं। कम पढ़े-लिखे, कम जानकार व कम आमदनी वाले भी चाहते हैं, कैसे भी इंजीनियर बन जाए उनका बच्चा ? उक्त में और कुछ न सही, पर कम जानकारी गुनाह है और गर्त में धकेलने वाली भी। वह कहते हैं कि 50 फीसदी बच्चे निम्न मध्यम वर्ग से आ रहे हैं और बाकी मध्यम व उच्च वर्ग से। औसतन 1.5 लाख फीस है सालाना और इससे अधिक लग जाता है रहने खाने आदि में।

एक बच्चे पर सालाना जितना मिनिमम खर्च है यहां, उतनी तो देश के 70 फीसदी लोगों की आमदनी नहीं है इसीलिए अधिकांश बच्चे सालभर या अधिकतम दो साल में वापस चले जाते हैं। वह कहते हैं कि अधिकांश बच्चों का मेंटल लेवल इतना नहीं होता कि यहां की पढ़ाई झेल सकें। पहले बीते दशकों में स्कैनिंग होती थी, जिसे पास करने के बाद ही प्रवेश मिलता था। शायद बहुत ज्यादा कमाई के लिए ही यह व्यवस्था बंद की गई है। कोचिंग में एडमिशन हो जाए, इसकी तैयारी कराते थे शहर के कुछ संस्थान। नई पीढ़ी की जान बचाने के लिए इसे फिर शुरू करना होगा। किशोर मन चकाचौंध देखता है तो बहकने लग जाता है। गुटबाजी व रात में घूमना फैशन बन चुका है। रात में पढ़ाई के नाम पर कुछ लोग सिगरेट, छोटे पैग, गुटखा और तंबाकू से नशे की शुरुआत करते हैं, फिर यह शौक कब लत व मुसीबत बनकर हुक्का बार, डेली पैग, गांजा, चरस, नशे की टैब्स इंजेक्शन व ड्रग्स आदि में बदल जाता है, कई बच्चे जान ही नहीं पा रहे हैं?

पैसों की घर से अतिरिक्त व्यवस्था न होने पर खून व प्लाज्मा बेचते हैं, ब्याज पर पैसे लेते हैं और बाद में जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तो खुदकुशी कर लेते हैं। यूं तो सूदखोर हर शहर में प्राचीन काल से ही होते रहे हैं, पर यहां बाहरी लोगों की जो पौध नीट जेईई के नाम आई थी, उनमें से कुछ, जो पास नहीं हो पाए थे, यहीं के होकर रह गए। दो-तीन फीसदी ही शिक्षक बन सके हैं। एक-आध फीसदी ने कोचिंग खोल ली। 10-पांच फीसदी ने ठेके पर हॉस्टल ले लिए। दो-चार फीसदी ने सड़क किनारे रेहड़ी, फूड कैफे व ढाबे या तो खोल या खुलवा रखे हैं। इनमें से बड़ी संख्या में लोग सूदखोरी करने लगे हैं तो वसूली के लिए क्रिमिनल माइंड सेट रखने लगे हैं। व्यावसायिक हितों के लिए कभी कोई कोचिंग वाला बच्चों की बुराई माता-पिता को नहीं बताता है। हाल के साल की बात करें तो कोचिंग के बाबू सिर्फ मौत की ही खबर घरवालों को देते हैं, नहीं तो वह भी काम पुलिस कर देती है। वे एक-दो दिन सिर्फ उसी का नाम याद रखते हैं, जो मर जाता है।

बाकी तीसरे दिन से ही सब रूटीन सेट है। यहां कोई कंडोलेंस भी स्कूल की तरह नहीं होती। कुछ कोचिंग में कार्ड पंच करने की व्यवस्था है, जो पैरेंट्स के एसएमएस से जुड़ा है। मान लो, मां के पास मैसेज आया कि बच्चा नहीं पहुंचा। उन्होंने पूछा क्लास के बारे में तो बच्चे ने बोल दिया कि गेट पर कार्ड स्कैन किया था, पर क्लास में भूल गया या कह दिया कि आज कार्ड ले जाना ही भूल गया था तो माता-पिता के पास क्या रास्ता है? सारे रास्ते तो बच्चे के पास हैं। कोचिंग वाले करें भी तो क्या, किस-किस का नाम याद रखें? दिन में आठ से 10 बैच। एक बैच में सौ से 150 तक बच्चे। एक-एक कोचिंग में डेढ़ से 2000 बच्चे, जिनके कई कैंपस हैं, उनके पास तो छात्र संख्या 15 से 20 हजार तक है। वे खुद ही पागल हुए जा रहे हैं पढ़ाते-पढ़ाते इसीलिए मेधा के हिसाब से बैच बांट रखे हैं। हालांकि कैटेगराइजेशन से कई बच्चे फ्रस्टेट हो रहे हैं। दरअसल पैसे का ताप बहुत ही कम लोग झेल पाते हैं। बाजार में भीड़ इतनी है कि इमोशन को पैर रखने के लिए जगह नहीं बची है।

बच्चों को मानकर चलना चाहिए कि कोई अपना नहीं, सब कमाई के चक्कर में बर्बादी के रास्ते पर ले जा रहे हैं। गांव या छोटे शहरों के माहौल से जो बच्चे आते हैं, उनका प्रायः अंग्रेजी में हाथ तंग होता है, जब टीचर हाईस्कूल से अपर लेवल की चीज पढ़ाता है तो अधिकांश के सिर के ऊपर से उड़ जाता है। कई बार एक कान से सुनने का ढोंग करने लगता है व दूसरे से निकालता रहता है। यह फ्रस्टेशन का दूसरा दौर होता है। कई सोचते हैं कि कहां आकर फंस गए? एकाकीपन दूर करने के लिए मोबाइल पर टाइम बिताने लगते हैं, फिर गेमिंग के चक्कर में फंस जाते हैं और पहली बार सौ रुपए लगाकर देखते हैं, फिर उसे निकालने के चक्कर में रकम बढ़ाते जाते हैं कई। सूदखोरी व चेन स्नैचिंग में वृद्धि इसी का नतीजा है। कई बार असफल प्रेम संबंध भी आत्महत्या की वजह बने हैं।

हॉस्टल एसोसिएशन के अध्यक्ष नवीन मित्तल ने बताया कि साल 2015 में सिक्योरिटी डिवाइस बनाने वाली बेंगलुरू की एक कंपनी के प्रतिनिधियों से एंटी हैंगिंग डिवाइस के बारे में पता चला था। उन्होंने व्यवस्था करके तत्काल प्रशासन के सामने प्रेजेंटेशन रखा, जिसके बाद सभी हॉस्टलों में लगाने के जिला कलेक्टर ने आदेश जारी किए थे। यह डिवाइस दो तरह की होती है और सीलिंग फैन के लिए होती है। पहली रॉड में ही फिट होती है, जिससे फंदा लगाने पर अलार्म बज उठता है। दूसरी में, रॉड व पंखे के बीच प्लास्टिक क्लैंप से एक स्प्रिंग छिपी होती है, जिसमें 40 किलो से ज्यादा भार लटकाते ही पंखा स्प्रिंग के सहारे नीचे खिसक आ जाता है। एक बार क्लैंप टूटने के बाद डिवाइस फिर लगानी पड़ती है। दूसरी ओर, अगर किसी बच्ची का वजन इससे कम है तो डिवाइस काम नहीं करेगी। उन्होंने बताया कि कोटा में पीजी मिलाकर 40000 से ज्यादा हॉस्टल हैं, जिसमें से 3800 ही रजिस्टर्ड हैं।

आईआईटी सहित 90-95 प्रतिशत हॉस्टल के कमरों में डिवाइस पंखों से अटैच है। हो सकता है कि गली-कूचे में दो-चार फीसदी लोगों ने अब भी न लगाया हो। उन्हें भी जागना होगा, क्योंकि परेशानियां कभी बताकर नहीं आतीं। कोशिश है कि किसी तरह कोटा के माथे से सुसाइड के कलंक को साफ करने में सफलता मिले। कई कॉलोनियों में बच्चे किराए पर भी रहते हैं। शहर बड़ा है और हर घर के एक-एक कमरे को चेक करने के लिए पुलिस के पास टाइम नहीं है। आदेश जारी करने मात्र से कुछ नहीं होगा। प्रशासन के पास निगरानी के लिए तंत्र नहीं है। ज्यादातर केस पीजी रूम में रहने वाले बच्चों के ही सामने आए हैं। महावीर नगर में रहने वाले वाल्मीकि ने रोशनदान से फंदा लगाकर आत्महत्या की। उसके पंखे में डिवाइस नहीं लगा था, जिससे साफ है कि जहां नहीं लगा है, वहां के भी बच्चे मानकर चलते हैं कि लगा ही होगा।

जनवरी 2025 में सात केस हो चुके हैं, जिनमें से चार कुंडे से लटके पाए गए थे। इस तरह प्रशासन की सतर्कता और एंटी हैंगिंग डिवाइस के बाद भी केस रोकने में सफलता नहीं मिल रही है। 2015 में जब इसे लगाना शुरू किया गया था तो 23 केस हुए थे। 2017 में 17 केस थे। केस कम जरूर थे, पर यह आंकड़ा भी छोटा नहीं है। 2022 में 15, 2023 में सर्वाधिक 26, 2024 में 24 छात्र आत्महत्या किए तो जनवरी 2025 के आंकड़ों ने देश को हिलाकर रख दिया है। हॉस्टल के सभी पंखों में एंटी सुसाइड डिवाइस न लगाने के आरोप में शायद ही किसी हॉस्टल को सीज किया गया हो अब तक। पत्रकार अनिल कहते हैं कि रस्सी की भी बिक्री पर प्रशासन प्रतिबंध लगा चुका है, पर यह भी सटीक नहीं बैठा क्योंकि बाइक किराए पर मिलती हैं तो जिन्हें मरना होता है, वे देहात जाकर रस्सी खरीद लाते हैं।

कपड़े या नाड़े से लटक जाते हैं। वैसे 99 फीसद लड़कियों को दुपट्टे की जरूरत नहीं होती है, जो लेकर गई थीं, उन्होंने भी अटैची में रख दिया है क्योंकि पिछड़ेपन की निशानी जो ठहरा। उससे भी आसान है ऑनलाइन खरीदारी। दूसरे, अगर कपड़े सुखाने के नाम पर कोई किसी से 10-पांच मीटर मांगेगा तो शहर वाला ही दे देगा। चीन में 2021 में ट्यूशन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने लोगों पर ट्यूशन फीस का बोझ कम करने के लिए उक्त फैसला लिया था। भारतवासियों की बिगड़ती दशा देखकर लगता है कि अब समय आ गया है यहां भी ऐसा ही कानून लागू करने का, नहीं तो महंगी पब्लिक स्कूलिंग व उनकी प्रकाशकों (आईसीएसई व आईसीएससी) के साथ दुरभि संधि खुद-ब-खुद एक बच्चा नीति लागू कर देगी। इसके विपरीत जिन्हें बच्चों को पढ़ाना नहीं है, बल्कि सिर्फ जनसंख्या ही बढ़ाना है, वे कितने भी पैदा करते रहेंगे। इस तरह आजादी के सौ साल के पहले ही डेमोग्राफी बदल जाएगी।

आजादी के अमृत काल (75 साल) में चीन को किसी क्षेत्र में नहीं गिरा सके, पर कम से कम इस मामले में झुकाकर दुनिया में पहले नंबर पर तो पहले ही पहुंच चुके हैं। सुपर से भी ऊपर कोई नंबर होता तो वह भी गिरा देते भारत के लोग। कोटा के नाम पर समाज में आतंक जैसा व्याप्त है। बड़ी आपाधापी है, जो भी संरक्षक बच्चे भेज रहे हैं, पहले जाकर तीन दिन रुकें जरूर और उसके बाद दोबारा जाकर बच्चा छोड़ें। हाल के वर्षों में कोचिंग संचालकों के जरिए 11वीं में एडमीशन का जो शिगूफा छोड़ा गया है, यह सिर्फ अतिरिक्त कमाई के लिए है। बाकी इसका कोई मतलब नहीं है। इसका किसी भी पक्ष के पास जवाब नहीं है कि यदि सेलेक्शन नहीं होता है तो प्लस टू की पढ़ाई के हुए नुकसान की रिकवरी कैसे होगी? ग्रेजुएशन में विश्वविद्यालय के स्तर को वे कैसे हासिल कर पाएंगे?

10वीं तक तो 10 फीसदी बच्चे ही खुद को साबित कर पाते हैं और अचानक उन पर कोटा का बोझा नहीं, बल्कि सपनों का बोझा लाद दिया जाता है। बहुतायत के पास पैसे का टोटा नहीं है तो सीधे कोटा। किशोर बच्चे, आंखों के सामने ही अच्छे। किशोर हैं, उनके बनने-बिगड़ने के दिन हैं इसलिए सुबह-शाम उनके पास 10 मिनट बैठना जरूरी है। दो साल बेटी को कोटा में रखने वाले लखनऊ के पुलिस अधिकारी अशोक सिंह ने बताया कि एक साल में छह माह तो बच्चे को वहां की रूपरेखा समझने में ही लग जाते हैं। इसी बीच में टेस्ट होने लगते हैं, जिसमें बहुत कम नंबर आने से क्लास में बच्या तौहीनी महसूस करने लगता है। उसे एक्स्ट्रा मेहनत करनी पड़ती है। इस दौरान प्रेशर बढ़ता जाता है और माता-पिता भी इससे बेखबर रहते हैं, क्योंकि बच्चा उन्हें सब ठीक और बहुत बढ़िया ही बताता रहता है। यही वे क्षण होते हैं, जब माता-पिता की तरह कोई प्यार से सिर पर हाथ फेरने वाला नहीं होता है और तुरंत उन्हें पहुंचना चाहिए।

यदि किसी के पास हर माह जाने का समय नहीं है तो फिर उसे बच्चे को कोटा जैसी जगह पर नहीं भेजना चाहिए। इधर अपेक्षाएं सातवें आसमान पर पहुंचने लगती हैं तो उधर फ्रस्टेशन के साथ इरिटेशन बढ़ने लगता है, जो बाद में अनहोनी का कारण बनता है। 10वीं के बाद बच्चा लेने के सवाल पर कहा कि कोचिंग का क्या कुसूर? यह सोचना तो उन्हें है, जिन्होंने नौ माह कोख में रखा है और अपने शौक मारकर व पेट काटकर यहां तक पहुंचाया है। भौतिक युग में दूसरों से अपनत्व की उम्मीद न करें। यह काम खुद ही करना होगा। यही वजहें हैं कि 10 से 20 फीसदी बच्चों को तो डिप्रेशन का शिकार होना ही होना है। बीते पांच साल में तीन बेटियों को कोटा भेजने वाले रियल्टर संजय चौरसिया कहते हैं कि बच्चा पढ़ने वाला है तभी कोटा अच्छा है, नहीं तो बहुत बुरा है। टीचर आया और डेढ़-दो सौ की भीड़ को पकपका कर चला गया।

बच्चे सकपका कर हॉस्टल चले गए। 90 फीसदी बच्चों की समझ में कुछ आता ही नहीं है। इतनी भीड़ में पूछने या अलग से टाइम देने का तो सवाल ही नहीं उठता, जिसका जितना छूट गया, छूट गया। टीचर के 70-75 मिनट 70-75 हजार के न सही, पर सात-साढ़े सात हजार पक्के। उसकी दिहाड़ी पक्की हो गई। आगे तुम जानो और तुम्हारा काम। इतना तो तय है कि घोलकर कोई कुछ नहीं पिलाएगा। कम से कम छह माह कोटा के टीचर के लेवल को पकड़ने के लिए आस-पड़ोस के बड़े शहरों में संबंधित फील्ड की कोचिंग करानी चाहिए। वहीं एक राष्ट्रीय अखबार में प्रयागराज में उप समाचार संपादक नाटककार रणविजय सिंह सत्यकेतु कहते हैं कि कोटा या कोई शहर, जिसे कोचिंग हब के रूप में जाना जाता है, समाज की भेड़चाल के कारण वास्तव में वे नैसर्गिक मेधा के वधस्थल हैं।

अभिभावकों की इच्छा, अपेक्षा व अच्छा करने की कोचिंग संस्थानों के दबाव की लू बच्चों की स्वाभाविकता को मुरझाए दे रही है। उनके अहसास, उनकी इच्छाएं, उनके उद्देश्य व उनके सपने भेड़चाल की अंधी सुरंग में खोते ही नहीं जा रहे हैं, बल्कि दम तोड़ रहे हैं क्योंकि कोचिंग की मशीनी व्यवस्था जीने की इच्छा का गला ही घोंटे दे रही है। घुटकर जीने की यह स्थिति खतरनाक है, जिस उम्र में जिज्ञासा चरम पर होती है और जोश सातवें आसमान पर, उस वक्त बच्चों को बनी बनाई लीक पर जोत दिया जाता है। परिणामतः वे जुआ (बैल का बोझा) पटक देते हैं और खुद को सूली पर टांग देते हैं। समझना होगा कि हर बच्चे में होता है कोई न कोई टैलेंट, बस जरूरत है तो समय रहते उसे पहचानने की। यह शिक्षा व्यवस्था की विफलता है। अभिभावकों की दकियानूसी सोच की विफलता है और कोचिंग सेंटरों की ज्यादा से ज्यादा कमाने की भूख की परिणति है। इस माहौल को बदला जाना चाहिए, वरना हमारी मेधा असमय मुरझाती रहेगी।

जरूरी है कि बच्चों को रुचि के क्षेत्र में बढ़ने दिया जाए और असफल होने पर शाब्दिक तीरों से घायल न किया जाए। अभिभावक के नजरिए से देखें तो बच्चे की हां में हां मिलाने में ही भलाई है, नहीं तो हानि-लाभ व रिजल्ट का ठीकरा सिर पर फोड़वाने के लिए तैयार रहें। दूसरे, बच्चों को भरोसा दिलाया जाए कि उनका होना प्रथम है, बाकी सब सेकेंडरी है। जीवन रहेगा तो कार्य करने और आगे बढ़ने के और क्षेत्र मिल जाएंगे व मौके भी निकल आएंगे। अभिभावक कोचिंग ज्वॉइन कराने और रिजल्ट बनाने का दबाव न डालें। दूसरों से तुलना न करें, न ही दूसरों के सफल होने पर बच्चे पर कमेंट करें। अभिभावक बच्चों से निरंतर संवाद बनाए रखें, उनके कहे पर भरोसा करें। जाकर समय दें। कोचिंग से भी फीडबैक मांगें। इस बीच, कई शहरों व बड़े अखबारों में समाचार संपादक रहे राम कृष्ण वाजपेयी कहते हैं कि कहते हैं कि कोटा एक झूठ है। एक छलावा है। इसके इर्द-गिर्द एक ऐसा जाल बुना गया है, जिसमें फंसने वाला सिर्फ फड़फड़ाता रह जाता है।

मां-बाप अतृप्त महत्वाकांक्षा की वेदी पर अपने मासूमों की भेंट चढ़ा रहे हैं। बच्चे प्रतिस्पर्धा में उसके शिकार हो जाते हैं, लेकिन असली कातिल मां-बाप ही हैं, जो बच्चे को अच्छा इंसान बनाने की जगह आगे निकलने की होड़ में ढकेल रहे हैं। बच्चा क्षमता का आकलन किए बिना ही दुष्चक्र में फंस जाता है। उस पर माता-पिता की तंगहाल स्थिति का बोझ होता है। उसके मासूम कंधे यह बोझ उठाने में सक्षम नहीं होते हैं और वह टूट जाता है। सामंजस्य न बैठा पाने के कारण न घर का रह जाता है और न कोटा का होने पाता है। वह सोचता होगा कि घर जाएंगे तो अपने साथ माता-पिता भी मोहल्ले व रिश्तेदारों में बेइज्जती महसूस करेंगे, क्योंकि प्रथम छह माह में ही बच्चा कोटा में है, यह बात वे लोग भी जान चुके होते हैं, जिनसे परिचय हुए ही छह माह हुए होते हैं। ऐसे में आगे बढ़ने का कोई रास्ता दिखाई न पड़ने का ही नतीजा है आत्मघाती कदम।

सवाल यह है कि अब कातिल किसे ठहराया जाए, वे लोग जिनकी नजर में दूसरे के बच्चे की कीमत मुर्गे से भी कम है या वे जो जिगर के टुकड़े को स्लॉटर हाउस खुद लेकर गए थे। हमें लगता है कि कातिल मां-बाप हैं क्योंकि उन्हें समझना चाहिए था बच्चे की मनोदशा को। दूसरों से लगातार प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित नहीं करना था, क्योंकि जब हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती हैं तो ऐसे में पांच या 50 बच्चे एक जैसी बुद्धि के कैसे हो सकते हैं? वहीं उत्तर प्रदेश व छत्तीसगढ़ में कई मैट्रेस फैक्ट्री के मालिक मनोज कुमार सिंह कहते हैं कि प्रतिस्पर्धा घरों के अंदर तक घर कर गई है कि फलां का बेटा-बेटी डॉक्टर बन गया है, हमें भी बच्चे को डॉक्टर इंजीनियर बनाना है। फलां रिश्तेदार की बेटी-बेटा सीकर/कोटा हॉस्टल में है तो हम भी वहीं पढ़ाएंगे। भले ही बच्चे के सपने कुछ भी हों। चंद क्षणों के लिए बच्चे के स्थान पर खुद को रखकर क्यों नहीं देखते अभिभावक?

स्कूल-कोचिंग संस्थान और माता-पिता बच्चों को परिवारिक रिश्तों का महत्व एवं असफलताओं या समस्याओं से लड़ना नहीं सिखा पा रहे हैं। जेहन में प्रतिस्पर्धा के भाव इत्तने भर दिए गए हैं कि जहर बनकर जिंदगी निगल रहा है। सीधी सी बात है, जो ज्यादा सोचते हैं व रिश्तों के प्रति संवेदनशील हैं, वही कमजोर पड़ रहे हैं हालात के सामने। थोड़ा सा जो ढीठ और अलमस्त हैं कि जो होगा, देखा जाएगा वाले, वे सही हैं। हालांकि नाकामी के बाद कुछ नशे की गिरफ्त में चले जाते हैं। किसी भी अनहोनी के पहले ही अभिभावक को एक सच का प्रसार करना होगा कि जब तक हम जिंदा हैं, तब तक चिंता मत करना किसी बात की। बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर शौर्यवर्धन सिंह ने कहा कि माना जाता है कि समय के साथ सब बदल जाता है और शिक्षा का स्वरूप भी बदल गया है। कभी सपनों को पूरा करने वाले शहर के रूप में ख्यात कोटा आज अत्यधिक प्रतिस्पर्धा और मानसिक दबाव के कारण ‘आत्मघाती केंद्र’ के रूप में प्रसिद्ध हो गया है।

इसके पीछे बड़ा कारण है शिक्षा प्रणाली में व्यावहारिकता और संतुलन का अभाव। 12वीं पास करने वाले छात्र से कुछ उच्च स्तरीय (पीएचडी स्तर) प्रश्नों के उत्तर की अपेक्षा की जाती है। अब तो इसे घटाकर 10वीं ही कर दिया है कोचिंग हब ने। इससे निपटने की किसी भी स्तर पर कोई तैयारी नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप गैप बढ़ता जा रहा है। दूसरे, अन्य विकल्पों की जानकारी न होने से इंजीनियरिंग और मेडिकल में भीड़ के साथ प्रतिस्पर्धा भी बढ़ गई है। कई आईआईटीयन या मेडिकल ग्रेजुएट मिल जाएंगे, जो शिक्षक बन जाते हैं। इससे दो सपने प्रभावित होते हैं। पहला उस बच्चे का, जिसे घर के दबाव में आना पड़ा है व दूसरा वह जो वास्तव में शिक्षक बनना चाहता था, लेकिन अवसर नहीं मिला। एक बार अभिभावक भी समझ लें कि कहीं बच्चे का टेंपरामेंट नौकरी के बजाय स्वतंत्रता पूर्वक कोई कार्य या व्यवसाय का तो नहीं है। तनाव का एक और महत्त्वपूर्ण कारण परीक्षा प्रक्रिया में बढ़ता कदाचार है, जिसे परीक्षा प्रणाली को पारदर्शी व निष्पक्ष बनाकर शीघ्र नियंत्रित करना होगा, वरना देर हो जाएगी।

हाल के साल में पेपर लीक व नीट के रिजल्ट में विसंगति जैसी घटनाओं ने न केवल मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित किया है, बल्कि मेहनत और विश्वास को भी तोड़ा है। रास्तों के अभाव व तनाव के आधिक्य में बच्चे चरम कदम उठा ले रहे हैं। तनिक भी संदेह नहीं है कि संस्थानों को न केवल पढ़ाई पर, बल्कि छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी अब ध्यान देना होगा। नियमित परामर्श सत्र, भावनात्मक समर्थन और सकारात्मक सोच को बढ़ावा देकर ऐसा माहौल बनाना असंभव तो नहीं ही है, जहां असफलता को सीखने की प्रक्रिया के हिस्से के रूप में देखा जाए। इस बदलाव से न केवल छात्रों का जीवन बेहतर होगा, बल्कि कोटा को ‘कोचिंग सिटी’ के रूप में खो चुकी पहचान भी वापस पाने में मदद मिलेगी। टीवी, रेडियो या अन्य किसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, समाचार पत्रों, बैनर, पोस्टर, हैंड बिल, दीवार पर भी ऐसा दावा नहीं किया जा सकेगा, जो भ्रामक हो।

विज्ञापनों से जुड़ी शिकायतें भारतीय विज्ञापन मानक परिषद या उपभोक्ता संरक्षण कानून के तहत गठित उपभोक्ता आयोग और मंचों में की जा सकती हैं। खरे ने कहा कि निर्देशों के तहत सेंटरों को कोर्स ऑफर, फैकल्टी क्रेडेंशियल्स, फ्री स्ट्रक्चर, रिफंड पॉलिसी, सेक्शन रेट, एग्जाम रैंकिंग, जॉब की गारंटी और सैलेरी इंक्रीमेंट के बारे में झूठे दावे करने पर प्रतिबंध है। कोचिंग की गाइड लाइन में एकेडमिक सपोर्ट, एजुकेशन, गाइडेंस, स्टडी प्रोग्राम व ट्यूशन को शामिल किया गया है, पर स्पोर्ट्स व क्रिएटिव एक्टिविटी नहीं शामिल की गई हैं। उन्होंने कहा कि सरकार पारदर्शिता सुनिश्चित करना चाहती है। सेंटरों को कोर्स की अवधि, फीस नीति, संकाय की साख और चयन दर जैसे विवरण सटीकता से प्रस्तुत करने होंगे।

कृति के कॅरियर में विलेन बनी मां

यूं तो कोरोना के बाद सौ से अधिक घरों को कोटा कभी न भूलने वाली टीस दे चुका है, लेकिन …की निवासी छात्रा कृति ने मरने के पहले देश के करोड़ों माता-पिता को ऐसी नसीहत दे गई, जिसका असर दो-चार साल तक पक्का रहेगा। हाल के साल में जिस भी घर में कोटा का सपना पनप रहा होगा, वह जहां ठिठकेगा जरूर और मन बनाने के लिए बड़ी हिम्मत दिखानी होगी। दरअसल उसने सुसाइड नोट में लिखा था कि यदि भारत सरकार व मानव संसाधन मंत्रालय चाहता है कि कोई बच्चा न मरे तो जितनी जल्दी हो सके कोचिंग संस्थानों को बंद करवा दें। ये छात्रों को खोखला कर देते हैं।

इतना दबाव होता है कि अधिकांश बच्चे दब जाते हैं। भले ही उसने कई की मदद की हो डिप्रेशन व स्ट्रेस से निकलने में, पर जब उसे जरूरत पड़ी तो वह हार गई और किसी के पास समय नहीं था मदद का, नतीजा सभी के सामने है सुसाइड के रूप में। लोग विश्वास नहीं करेंगे कि 90 प्रतिशत वाली लड़की भी सुसाइड कर सकती है। सोचने का विषय है कि दिमाग और दिल में कितनी नफरत भरी होगी? मां के लिए वह जो लिख गई है, वह एक बड़ी नजीर है और लकीर भी कि बच्चा होने का खूब फायदा उठाया। विज्ञान पसंद करने के लिए मजबूर किया। आपको खुश करने के लिए पढ़ती भी रही। क्वांटम फिजिक्स और एस्ट्रो फिजिक्स आदि को पसंद करने लगी। उसमें बीएससी करना चाहती थी, पर आज भी अंग्रेजी साहित्य और इतिहास ही पसंद है, क्योंकिये अंधकार के वक्त बाहर निकालते हैं।

मां को चेतावनी भी दी कि ऐसी चालाकी व मजबूर करने वाली हरकत 11 वीं में पढ़ने वाली छोटी बहन से मत करना, वह जो बनना चाहे, वही बनने देना, क्योंकि वह उस काम में सबसे अच्छा कर सकती है, जिसे वह प्यार करती है। इसे पढ़कर किसी का भी मन विचलित हो जाता है कि होड़ में अपने ही बच्चे से जीने का हक छीने ले रहा है जमाना। 15-17 साल के किशोर के कोमल मन को उसके ही माता-पिता नसमझ रहे हैं और न समझने की कोशिश कर रहे हैं। उनका हदय नाकामी से टूट रहा है तो गलत रास्ता अख्तियार करने से पूरे परिवार के सपने बिखर रहे हैं। हालात ऐसे बन गए हैं कि जिसे देखो, उसके गेट के बाहर तक आवाज आ रही है मोहल्ले में टॉप करना है, 96 फीसदी मार्क्स लाने हैं। कुछ अनाप-शनाप बोलने के पहले मां-बाप सोचें कि उनके कितने फीसदी आते थे।

बाप-दादे और नैहर पीहर में भले ही किसी ने 60 फीसदी भी न पाए हों। अब देर नहीं है, किसी भी दिन बच्चे पूछ सकते हैं कि आपके कितने फीसदी आए थे? बीबीडीयू की एक 10वीं की छात्रा ने डरते हुए अपनी सुस्ती का कारण पूछने पर टीचर को बताया कि अगर टॉप नहीं करूंगी तो गां ने कहा है कि छत से फेंक दूंगी। जान से भी मार सकती है। नतीजा क्या हुआ? वह समाज से कट गई और साइको हो गई इसलिए दिन में 10 बार ताने मारना माता-पिता को आज से ही बंद कर, सिर्फ उत्साह बढ़ाने का काम करने होना और यह भी कहना होगा कि हम हैं, चिंता न करना किसी प्रकार की। कुछ ऐसी ही बात कहते हैं अयोध्या धाम निवासी दो बेटी को कोटा भेजने वाले पिता व कारोबारी नरेंद्र जायसवाल। उन्होंने बताया कि सारा खेल मोहल्ले में स्टेट्स सिंबल बनाने व रिश्तेदारों पर भौकाल गांठने का है।

डिप्रेशन वहीं से चालू होता है, जब माहौल देखकर बच्चों को मेंटल स्टेट्स पता चलता है। अपनी गहराई पता चलती है। दरअसल पहले उनका मुकाबला होता था अपने बीच के क्लास के 50 बच्चों से। कोटा पहुंच कर किसी ठीक-ठाक कोचिंग के एक बैच में 150 बच्चों से होने लगता है और फिर एक परिसर के 1500 बच्चों से। चूंकि सारी ब्रांच मिलाकर रिजल्ट प्रदर्शित किए जाते हैं तो मुकाबला हो जाता है 15000 से। इस दौरान उनके मन में भाव आता है कि माता-पिता ने इतना पैसा खर्च किया है कि नहीं बन पाए तो क्या होगा? इधर मां-बाप रोज फोन पर गरीबी का गाना गाकर अहसास कराते रहते हैं। पैरेंट्स को चाहिए कि पैशन को निखारें। डॉक्टर इंजीनियर तो सब बनाना चाहते हैं, पर कोई भी अपने बच्चे को अच्छा इंसान बनाने के लिए नहीं प्रेरित कर रहा। नीट के पेपर लीक हो रहे हैं।

उपभोक्तावादी संस्कृति का नतीजा है सब। सेवा भाव खत्म। बाजारवाद हावी। लोग नफा-नुकसान तौलकर चल रहे हैं। सब मार्केटिंग का असर है। भेड़चाल के सिवा और कुछ नहीं है। देखा है कि कोई एक चल पड़ा तो गांव, कस्बे और मोहल्ले वाले सब कोटा के पीछे भागने लगते हैं। मारा-मारी बहुत हो गई है। उन्होंने सवाल किया कि क्या हमारे जमाने में बच्चे अधिकारी और डॉक्टर-इंजीनियर नहीं बनते थे? जरा सी नजर के साथ बच्चे को जरा सा फ्री हैंड छोड़ें। डॉ. कुमार विश्वास को उनके पिता इंजीनियर बनाना चाहते थे। बन भी जाते तो बहुत खराब। स्व. राजीव गांधी बेहतरीन फोटोग्राफर भी थे। उन्हें सोवियत संघ के तत्कालीन राष्ट्रपति ने कैमरा गिफ्ट किया था।

अपनी ही चादर फाड़ने पर तुले हैं मां-बाप

बड़े समूहों में डीएनई और एनई रहे काशी निवासी यू-ट्यूबर विजय शंकर पांडेय कहते हैं कि प्ले और केजी ग्रुप से ही पब्लिक स्कूलों को मोटी फीस चुकाने के बाद भी पहली ही क्लास से ट्यूशन की परंपरा की लाश को कमजोर कंधों पर ढोने में जुटा है भारतीय समाज, जो कि धीरे-धीरे बोर्ड के हौवे के नाम पर कोचिंग में बदल जाता है। 10वीं व 12वीं के बाद तो जैसे कोई अघोषित अनिवार्यता बन गई है कोचिंग में दाखिले की। बाजार हमारी कमजोरी का पूरा फायदा उठाने के लिए गिद्ध की तरह पहले से ही तैयार बैठा है। हर वर्ष मेडिकल व इंजीनियरिंग ही नहीं, बल्कि यूनिवर्सिटी की प्रवेश परीक्षाओं के लिए भी लाखों बच्चे फॉर्म भर रहे हैं, पर सीट कम हैं। ऐसे में करोड़ों मम्मी-पापा को एक ही गम खाए जा रहा है बच्चे का फ्यूचर। वे डॉक्टर और इंजीनियर बनाने के लिए पैर इतने फैला रहे हैं कि चादर के बाहर निकले जा रहे हैं। पढ़ाई के लिए खुद भी कर्ज ले रहे हैं, भले ही चादर फट जाए और एडमिशनहोने पर बच्चों को भी कर्ज के जाल में फंसा दे रहे हैं।

अन्य के अलावा इन कारणों से भी औसत आयु रोज अवरोही क्रम में जा रही है। कोचिंग बच्चों की प्रतिभा में धार तो पैदा कर सकती है, मगर सीधे कुर्सी नहीं सौंप सकती। उसका जुगाड़ खुद ही करना होता है। सोचने का बिंदु है कि पूरी की पूरी भीड़ न डॉक्टर बन जाएगी, न ही इंजीनियर और न ही गवर्नर। यदि सारे के सारे बन भी गए तो वैल्यू शून्य हो जाएगी। हर बच्चे में कोई न कोई टैलेंट होता ही है। हो सकता है किसी और विषय का धुरंधर बन जाए। अपने सपने बच्चों पर नहीं थोपने हैं, सिंपल। प्रतिशत कम जरूर है, पर बिना कोचिंग भी कई बच्चे प्रतिभा के झंडे गाड़ रहे हैं। विवाद के बाद कोचिंग संस्थान वैसे ही सवालों के घेरे में है। पलक झपकते बदल रही है दुनिया। जीवन कभी न खत्म होने वाली क्लास है, जहां हर सबजेक्ट कंपलसरी है और छुट्टी की घंटी ताउम्र नहीं बजती।

किसी भी स्तर से पहल नहीं हो रही है कि आखिर क्यों बच्चे आत्मघाती कदम उठाने पर मजबूर हो रहे हैं? हर घटना अपने पीछे अनसुलझे रहस्य व अनुत्तरित सवाल छोड़ जाती है। आईआईटी गुवाहाटी तक पहुंचा बलिया का एक छात्र डिप्रेशन में आत्महत्या करता है। कौन पता लगाएगा कि उकसा कौन रहा था व क्यों उसने ऐसा किया? समय रहते किसी स्तर से मेडिकल कंसल्टेंसी क्यों नहीं उपलब्ध करवाई गई। एकेडमी वाले कहेंगे पैरेंट्स यह काम करें और पैसेंट्स कहेंगे कि बच्चा एकेडमी में था। उसके जाने के बाद सिर्फ कयास लगाए जा सकते हैं कि सपनों में अकूत ताकत के दम पर वह आईआईटी कैंपस पहुंच तो गया था, पर ग्रामीण व टीयर-3 और 4 शहरों के छात्रों के लिए कंपटीशन करना दिन पर दिन मुश्किल होता जाता है। माहौल में बहुत फर्क होता है, लिहाजा ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं अस्तित्व में आ जाती हैं। ऐसे में सोचा जा सकता है कि प्लस 10 के बच्चे कैसा महसूस करते होंगे कोटा में।

मासूम बच्चे दोतरफा दबाव में पिस रहे हैं। एक ओर पैरेंट्स और दूसरी तरफ तगड़ा कंपटीशन। लगभग उनकी हां में हां मिलाते हुए कोटा में पढ़ रही बच्ची के मामा व 70 साल पुराने और प्रतिष्ठित कॉलेज के प्राचार्य डॉ. जितेंद्र प्रताप सिंह ने बताया कि दो बार जाकर चीजों को करीब से देखा। उन्हें समझने की कोशिश भी की। कुछ बच्चों व माता-पिता के स्वप्न पूरे हो रहे हैं। संभव है कि बच्चों की अभिरुचि के विपरीत भी कभी-कभी सफलता मिल रही हो, पर कुल मिलाकर भेड़चाल जैसा हाल ज्यादा है। खेलने-कूदने वाली उम्र में मां व पिता की महत्वाकांक्षाओं के बोझ के नीचे बचपन दबा जा रहा है। ठीक से याद है कि टाइम टेबल बनाते समय शाम को एक घंटा खेल के लिए लिखते थे और निकालते भी थे, पर अब इस स्थान को भर रहा है ट्यूशन वाला। 10वीं के बाद कोटा जाने के लिए अभिशप्त हो रहे हैं बच्चे। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के विपरीत अभिरुचि के अनुसार व्यवसायपरक शिक्षा के साथ मजाक हो रहा है।

किशोरावस्था की स्कूली शिक्षा के प्रावधानों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। कुल मिलाकर यह संस्थान शिक्षा नीति और राज्य के माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के नियमों के खिलाफ जाकर प्रवेश देकर व्यापारिक गतिविधियां चला रहे हैं। 10वीं के बाद डमी एनरोलमेंट करा दिया जाता है, जिसके बारे में सरकार भी जानती है। कई अधिकारियों के बच्चों ने भी यह कर रखा है। नई शिक्षानीति-2020 में स्कूलों में शारीरिक शिक्षा, खेलकूद और कला को भी विद्यालयी शिक्षा का अहम हिस्सा बताया गया है। यह शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी भी है। बच्चे टीमवर्क व और अनुशासन से परिचित नहीं हो पा रहे हैं। मशीनों की तरह व्यवहार के लिए उन्हें मजबूर किया जा रहा है। इसी कारण बच्चे असफलताओं और समस्याओं से लड़ना नहीं सीख पा रहे हैं।

फिटजी से सीखकर नहीं सुधरे तो गए

साल 2024 चाहे जैसे गुजरा हो कोचिंग सिटी कोटा का, पर कई खुदकुशी के बाद 2025 की शुरुआत से आसार ठीक नहीं नजर आ रहे हैं। इससे सैकड़ों लोग रोजगार जाने से परेशान हैं तो देश के दूसरे हिस्सों में खुशी देखी जा रही है। भले ही उत्तनी मुद्रा सर्कुलेशन से बाहर हो गई हो। फिटजी लखनऊ के तीन केंद्र बंद हो चुके हैं। अभी समय है चाल, चरित्र और वेहरा सुधारने का, नहीं तो बुरी खबरें सिर पर खड़ी मानकर चलें कोटा वाले भी। आंकड़े बताते हैं कि बच्चे कम आने से हालात ठीक नहीं हैं। मकान मालिक (कई संस्थान किराए के भवनों में हैं) किराया घटाने के लिए तैयार नहीं थे तो टीचर अपनी फीस और संस्थान अपनी फीस । अब हालात उलट हैं। कुछ स्टाफ को घर बैठने को कहा गया है तो सैकड़ों का वेतन घटाया गया है। पहले जहां बाजार तकरीबन 24 घंटे चहल-पहल से गुलजार रहता था, वहीं अब कई दुकानें बंद हो गई हैं तो कई व्यापार बदलने के बारे में सोच रहे हैं। इंडस्ट्रियल एरिया के एक संस्थान ने 200 से अधिक स्टाफ की छुट्टी कर दी। इसमें अन्य के अलावा कुछ फैकल्टी भी हैं। एक अन्य कोचिंग ने 10 से 30 फीसदी तक सैलरी कम कर दी है। ऐसे में जाहिर है कि कई मेस बंद हो गए हैं तो कई हॉस्टल की भी हालत पतली है।

मेस चलाने वाले सुनील जैन का कहना है कि आसपास की भी कई मेस बंद हैं। 250 स्टूडेंट सिर्फ उनसे अटैच थे। अब सिर्फ 60-70 बच्चे पहुंच रहे हैं इसीलिए स्टाफ को भी हटाना पड़ा है। बड़े मेस संचालक बलवीर सिंह का कहना है कि सभी आउटलेट पर करीब 2800 स्टूडेंट खाना खाते थे, पर अब सिर्फ आधे। इसी के चलते स्टाफ को भी हटाना पड़ा। कोचिंग एरिया में ज्यादा बच्चे रहने से दुकानों का किराया भी बहुत था। दुकानदार भी खूब कमा रहे थे तो किराया देने में दिक्कत नहीं थी, पर अब बच्चे घटने से किराया निकालना भारी पड़ रहा है। ज्ञात हो कि लैंडमार्क इलाके में एक दुकान का किराया 25000 रुपये महीने तक था इसलिए कईतो दुकान खाली कर गए। बलवीर सिंह का कहना है कि कोचिंग एरिया के रेस्टोरेंट, फूड कोर्ट, जूस सेंटर, टी स्टॉल, मोची, टेलर, ड्राई क्लीनिंग, सब्जी व फल विक्रेता, डेयरी, खोमचे, फास्ट फूड, हेयर सैलून, ऑटो, टैक्सी, रेस्टोरेंट, साइकिल, बाइक रेंट, फोटो स्टूडियो, फोटोकॉपी, किराना, जनरल स्टोर, मोबाइल रिपेयरिंग, स्टेशनरी, प्रिंटिंग व डेली यूज शॉप का बड़ा व्यापार था, लेकिन अब मामला 50 फीसदी पर आ गया है।

अधिकांश लोग बिजनेस को दूसरी जगह शिफ्ट कर रहे हैं। गौरतलब है कि लखनऊ में फिटजी के तीन सेंटर चल रहे थे- अलीगंज, आशियाना और गोमतीनगर। अब ताला इनकी शोभा बढ़ा रहा है तो ताले देखकर करीब दो हजार बच्चे और उनके अभिभावक चिंता से सूखे जा रहे हैं। इन केंद्रों की बिजली कट चुकी है, क्योंकि लाखों का बिल बाकी था। इन केंद्रों पर आईआईटी व जेईई की तैयारी करवाई जाती थी, जो कि बीते कल की बात है। कोचिंग के भागने के बाद बच्चे दूसरे संस्थानों में प्रवेश लेने के लिए मजबूर हैं। बताते हैं कि कोचिंग के शिक्षकों और कर्मचारियों को कई महीने से वेतन भी नहीं मिला था। ज्यादातर ने कम पैसे में अन्यत्र ज्वॉइन कर लिया है तो बाकी सड़क पर हैं। अलीगंज में सचिन रस्तोगी की बेटी प्राख्या ने दो लाख देकर प्रवेश लिया था।

पूर्णेश शुक्ला व उनके बेटे अभिराज, नीरज श्रीवास्तव व उनकी बेटी ऐश्वर्या और कमालुद्दीन व उनकी पुत्री बुशरा आदि सैकड़ों बच्चे भविष्य को लेकर परेशान हैं। ज्यादा मलाल उन्हें इस बात का भी है कि लिखित शिकायत के बावजूद पुलिस को मुकदमा दर्ज करने में कई हफ्ते से बहुत दिक्कत हो रही है। डीसीपी स्तर पर शिकायत के बाद अलीगंज थाने के प्रभारी विनोद कुमार तिवारी का गंदा सा बयान आया कि शिकायती पत्र मिला है। जांच की जा रही है। विवाद फीस को लेकर है। कोटा में बच्चों का टोटा, घटानी पड़ी मोटी फीस कोचिंग वाले बच्चे हर साल फीस, हॉस्टल व पीजी के किराए के अलावा जरूरी सामानों और खाने-पीने की चीजों पर औसतन दो लाख रुपए सालाना खर्च करते हैं।

आंकड़े बताते हैं कि 2022 में दो लाख से ज्यादा विद्यार्थी थे। 2023 में पौने दो लाख बताए गए। इस तरह से कोटा में छात्र हर साल करीब 1800 से 2000 करोड़ रुपए खर्च करते हैं। अब छात्र आधे रह जाने से मनी सर्कुलेशन 1000 करोड़ घट गया है, जिसका सीधा असर कोटा की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। हॉस्टल में बच्चे कम या नाम भर के होने से सफाई और बर्तन वाली बाई, सिक्योरिटी गॉर्ड, वार्डन, कुक व हेल्पर भी बेरोजगार हो गए हैं। साथ ही धोबी, कूलर मैकेनिक, इलेक्ट्रीशियन और प्लंबर के पास भी काम की कमी पड़ गई है। ऑटो और ई-रिक्शा वालों की भी रंगत उड़ गई है।

कोटा के शिक्षकों को प्रशिक्षण की जरूरत

पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ की एमए मनोविज्ञान की छात्रा तेजसी जीके सिंह ने एक प्रसंग से हालात बताने के क्रम में कहती हैं कि तीसरे पहर अंशुल किताबों के ढेर के बीच बैठा था। कमरे में अजीब सी खामोशी थी, पर मन में हजार सवाल पानी की उबल रहे थे। दीवार पर चिपके कोचिंग के शेड्यूल में लाल पेन से भरे गए चक्रवात से निशान दिनचर्या की कठोरता को बयान कर रहे थे। वह सोच रहा था कि वह यहां क्यों है? क्या सच में यही उसका सपना था? माता-पिता की उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए कोटा के लिए चल पड़ा था। कभी शिक्षा आत्मनिर्भरता और आत्मज्ञान का जरिया हुआ करती थी।

एक ऐसा माध्यम था, जो व्यक्तित्व को निखारता व इंसान को बेहतर बनाता था, लेकिन आज यह केवल प्रतियोगिता का मैदान बनकर रह गई है, जहां योग्यता साबित करने के लिए सिर्फ अंक और रैंक ही मापदंड हैं। इस अंधी दौड़ का बड़ा बोझ बच्चों के मासूम कंधों पर है। माता-पिता बच्चों के सहारे समाज में छवि बेहतर करना चाहते हैं। इसमें बहुत बुराई नहीं है, हर पिता चाहता है कि बच्चा उससे बड़े ओहदे पर पहुंचे, पर बुरा है सार्थक संवाद का न होना। यह बच्चों को मथकर क्रीम लेयर का हिस्सा बनाने की फैक्ट्री है, जहां दबाव से बाहर निकलने के गुर नहीं सिखाए जाते हैं। असफलता जीवन का हिस्सा है, माता-पिता ने भी नहीं सिखाया।

सवाल यह नहीं है कि कोटा शिक्षा का केंद्र है या मोटी रकम गलाकर आत्महत्या करने का। कहीं ऐसा तो नहीं है कि जिन्हें 10वीं तक पता ही नहीं होता कि क्या करना है, वे बच्चे भी कोटा जा रहे हैं। जान देने और माता-पिता के सपनों का बोझ ढोने से बेहतर है खुलकर बोल देना। शायद उस दौर की ओर लौटना चाहिए, जब शिक्षा का मकसद केवल नौकरी नहीं था, बल्कि जीवन को समझने और बेहतर बनाने का जरिया था। शिक्षा केवल अंकों व रैंकिंग तक सीमित नहीं है। प्रतियोगिता की अंधी दौड़ को रोककर बच्चों को सपनों को पहचानने और व्यक्तित्व को निखारने का मौका देना चाहिए। असल शिक्षा वही है, जो न सिर्फ सशक्त बनाए, बल्कि यह भी सिखाए कि प्रतिस्पर्धा ही जीवन नहीं है, बल्कि आत्म विकास का माध्यम है। यह सुनिश्चित करना होगा कि माता-पिता के सपने पर वे अपने सपने कुर्बान न करें, जितना ऊंचे उड़ सकें, उड़ें। सवाल छोड़ना चाहती हूं कि क्या खुलकर जीने से ज्यादा जरूरी हो गया है डॉक्टर व इंजीनियर बनना।

यह कहानी किसी अंशुल की न होकर सोच, समाज और शिक्षा तंत्र की है। उनके पिता, एलटी एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष व डीएवी पीजी कॉलेज देहरादून के गेम सुपरवाइजर गजेंद्र कुमार सिंह ने कहा कि अच्छे अंकों और प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रवेश पाने के भारी दबाव से मन से कमजोर हो रहे हैं बच्चे। हजारों से कंपटीशन और अकेलापन। परिवार से दूरी व कम उम्र के चलते भावनात्मक रूप से असुरक्षित महसूस करवा रही है, जिससे अवसाद बढ़ रहा है और बात यहां तक जा पहुंची है। बच्चे मानकर चलें कि किसी भी रेस में दौड़ रहे सारे लोग अव्वल नहीं आ जाते हैं। बड़े हिस्से के हाथ असफलता लगती है, जो कि प्रतियोगिता का हिस्सा है। इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रहना होगा।

तथ्य उभर कर आ रहा है कि मानसिक स्वास्थ्य के लिए जागरूकता शिविर या पेशेवर सहायता नहीं दी जा रही है। साफ है कि 10वीं पास बच्चों के प्रवेश वे बिना किसी तैयारी के लेने लगे थे। जरूरी है कि पहले कोटा के शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाए कि 10वीं पास वाले को वैसे नहीं पढाना है, जैसे 12वीं पास वाले को पढाते रहे हो। बेहतरीन प्रदर्शन के आगे की बात सिखाने में मुंह में दही जम जाता है स्वयंभू ज्ञानियों के। दबाव के कारण छात्र अक्सर नींद व खान-पान की अनदेखी करते हैं, जिससे मानसिक थकावट बढ़ रही है। इससे उबारने के लिए उनके पास कोई मेकेनिज्म नहीं है और अकाल के कारण न ही शब्द।

हर बच्चे में होता है कोई न कोई टैलेंट

जयपुर स्थित मल्टीनेशनल कंपनी के सीनियर सिस्टम इंजीनियर यशोवर्धन सिंह ने कहा कि कोटा को शिक्षा की राजधानी माना जाता है तो लाखों छात्रों के सपनों का केंद्र भी। यह न केवल उत्कृष्ट कोचिंग संस्थाओं के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि अनगिनत युवाओं को उज्ज्वल भविष्य की राह भी पकड़ाई है। चुनौतियां हर यात्रा का हिस्सा होती हैं, पर इन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण और सही मार्गदर्शन से हल किया जा सकता है। यदि संस्थान छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दें और उन्हें प्रतिस्पर्धा को स्वस्थ तरीके से अपनाने के लिए प्रेरित करें तो यह शहर आशा और सफलता का प्रतीक बना रह सकता है अब भी। कोटा को “सपनों का शहर” बनाए रखने को सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है, जिसमें शिक्षकों, अभिभावकों, और समाज को भूमिका निभानी होगी। पारिवारिक संवाद, भावनात्मक समर्थन और विद्यार्थियों को क्षमताओं के प्रति आत्मविश्वास दिलाने से यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि वे न केवल शैक्षणिक रूप से बल्कि व्यक्तिगत रूप से भी सशक्त हो सकते हैं। आशा और सहयोग के साथ कोटा छात्रों के जीवन में न केवल शिक्षा का, बल्कि प्रेरणा और आत्मबल का भी केंद्र बना रह सकता है।

सभी पक्ष खुलकर रखें अपना-अपना पक्ष

बड़े निजी स्कूल के वाइस प्रिंसिपल व समाजशास्त्र के शिक्षक दिलीप सिंह कहते हैं कि जेईई और मेडिकल का सपना पूरा करने के लिए बच्चे परिजन व माता-पिता को छोड़कर सपना सच करने कोटा जाते हैं। इस साल मिली नई पहचान के बाद ब्रेक लगने तय हैं। यह तस्वीर अत्यंत चिंताजनक व निराश करने वाली है। सुसाइडल हब कहने से समाज में भूचाल आ चुका है और कोचिंग व कोच को रणनीति बदलनी ही पड़ेगी ताकि कोटा की छवि व हालात न बिगड़े। यदि हिम्मत हारते व जीवन दांव पर लगाते विद्यार्थियों की सोच का कारण खोजें तो पार्श्व में मिलेंगी सुरसा जैसा मुंह फैलाए बच्चों की तृष्णा व माता-पिता की अतृप्त इच्छाएं। विद्यार्थी सोचते होंगे कि माता-पिता, सगे-संबंधी और रिश्तेदार क्या कहेंगे? गरने से बेहतर है सबको छोड़कर कहीं दूर जाकर जीना और दशक भर में कुछ बनने के बाद ही घर आना।

खतरनाक होती समस्या से निपटने के लिए यही कहें कि जबरदस्त इच्छाशक्ति व मजबूत मानसिक स्थित वाले दबंग बच्चों को ही कोटा भेजें, नहीं तो अपने पास रखें। साइंस और मैथ में डुबकी लगाने के चक्कर में खेल, नैतिक शिक्षा, अध्यात्म, दर्शन व सामाजिक विषयों पर किसी स्तर पर न कोई चर्चा के लिए तैयार है और न ही समय। ऐसे में भला अन्य प्रेरक प्रसंगों की चर्चा कौन करेगा? बच्चों और माता-पिता को ही सकारात्मक सोच के साथ संवाद बढ़ाना होगा। किसी किराए के आदमी पर यह अहम कार्य न छोड़ें, तभी इस अपूर्णनीय क्षति से बचा जा सकता है। मां-पिता की महत्वाकांक्षाओं के नीचे पिसा बचपन दिन पर दिन बिगड़ती कोटा की स्थिति देखते हुए जहां राज्य सरकार ने कदम उठाने का आश्वासन दिया है, वहीं केंद्र ने तो कदम उठाने भी शुरू कर दिए हैं।

कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष टीका राम ने मुख्यमंत्री को लिखे पत्र में कहा है कि कुछ ऐसा करें, जो दिखाई पड़े। सब कुछ दूसरों की मर्जी पर नहीं छोड़ा जा सकता है। यह दीगर बात है कि बीते पांच साल कांग्रेस के शासन में सौ से अधिक मौत हो चुकी हैं। उधर, सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में हालात पर सांसद प्रियंका गांधी नेभी व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए चिंता जताई है। जनवरी में बढ़ते मामले, कक्षाओं में आग व कोचिंग मेंसुविधाओं की कमी के बाद केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय जाग पड़ा और कहा कि कई कोचिंग छात्रों के जीवन से खेल रहे हैं, जिसे सरकार मूकदर्शक की तरह नहीं देख सकती। मंत्रालय ने गाइडलाइन जारी की हैं। अब कोचिंग इंस्टीट्यूट 16 साल से कम उम्र के बच्चों को प्रवेश नहीं दे सकेंगे और लुभाने के लिए भ्रामक वादे नहीं कर सकेंगे। अच्छे नंबरों की गारंटी भी बंद करनी होगी।

ऐसा भ्रामक विज्ञापनों पर रोक लगाने के लिए किया गया है, जिनमें दावा करते रहे हैं कि 100 प्रतिशत सेलेक्शन और 100 प्रतिशत नौकरी। साथ ही नहीं छाप सकेंगे बिना परमिशन टॉपर्स के फोटो व नाम। केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण के हवाले से कहा गया है कि कोचिंग अब ऐसे झूठे दावे नहीं कर सकते जो उपभोक्ताओं को गुमराह करते हों। यह फैसला शिकायतों के बाद किया है। अब तक 54 कोचिंग संस्थानों को इसी आधार पर नोटिस जारी किए गए थे। इसमें 18 पर 54.60 लाख का जुर्माना लगाया गया व भ्रामक विज्ञापन तुरंत वापस लेने का आदेश दिया गया है। एकेडमिक सपोर्ट, एजुकेशन, गाइडेंस और ट्यूशन सर्विस से जुड़े संस्थानों, कोचिंग सेंटर्स और ऑर्गनाइजेशन पर ये लागू होंगे।

अगर सेंटर्स इसका पालन नहीं करेंगे तो कार्रवाई होगी। कंज्यूमर अफेयर्स सेक्रेटरी निधि खरे ने कहा कि सरकार कोचिंग के खिलाफ नहीं है, पर जो चलता रहा है, वह नहीं चलेगा। किसी विज्ञापन के कंटेंट को कंज्यूमर राइट्स के खिलाफ नहीं होना चाहिए। आमतौर पर ही गुमनामी में रहने वाला यह प्राधिकरण हाल ही में तब सुर्खियों में आया था, जब इसकी हेल्पलाइन (एनसीएच) ने 1.15 करोड़ फीस रिफंड कराई। छात्र व पैरेंट्स की ज्यादातर शिकायतें एनरोलमेंट फीस रिफंड न होने की थीं। अहम है कि कोर्ट जाने के पहले ही मामला सुलझ गया।

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 पहले से लागू है, पर भ्रामक विज्ञापनों के मामले में कोचिंग वालों ने तोड़ निकाल लिया था। ऐसे में करीब पांच साल बाद कानून को और कड़ा करने की जरूरत आ पड़ी है। दरअसल यूपीएससी, आईआईटी और नीट आदि परीक्षा पास कराने के नाम पर कोचिंग संस्थान भ्रामक विज्ञापन देकर छात्रों को फंसा रहे थे। अगर अपराध गंभीर है और किसी की जान-माल का नुकसान होता है तो बीएनएस एक्ट के तहत भी अब मुकदमा दर्ज किया जाएगा और बाकायदा केस चलेगा। झूठे दावे पर अब संस्थान और मालिक दोनों पर कार्रवाई होगी।

This broad program captures every angle of photography.

Related Articles

Back to top button