
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने रोहिंग्या मुसलमानों के दर्जे को लेकर सुनवाई शुरू की, जिसमें यह तय किया जाएगा कि भारत में रह रहे रोहिंग्या शरणार्थी हैं या अवैध प्रवासी। सुप्रीम कोर्ट ने उनके देश से निकाले जाने के आदेश के खिलाफ दायर याचिकाओं और शरणार्थी शिविरों में बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने से संबंधित याचिकाओं को एक साथ करते हुए सुनवाई शुरू की है।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, “सबसे अहम सवाल यही है कि रोहिंग्या शरणार्थी हैं या अवैध प्रवासी। बाकी सारे मुद्दे इसी पर निर्भर हैं।” अगर रोहिंग्या शरणार्थी साबित होते हैं तो उन्हें अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय कानूनों के तहत संरक्षण मिलेगा। लेकिन अगर वे अवैध प्रवासी माने जाते हैं तो उन्हें भारत से वापस म्यांमार भेजे जाने का अधिकारिक आधार बनता है।
पीठ ने रोहिंग्या मामलों के लिए चार अहम सवाल तय किए हैं। पहला, क्या रोहिंग्या को शरणार्थी घोषित किया जा सकता है? अगर हां, तो उन्हें क्या-क्या कानूनी संरक्षण मिलेंगे? दूसरा, क्या वे अवैध प्रवासी हैं और क्या भारत सरकार उन्हें कानूनी रूप से निर्वासित करने के लिए बाध्य है? तीसरा, अगर वे अवैध प्रवासी माने जाते हैं, तो क्या उन्हें अनिश्चितकाल के लिए हिरासत में रखा जा सकता है या कुछ शर्तों पर जमानत पर रिहाई का अधिकार मिलेगा? और चौथा, जो रोहिंग्या शिविरों में रह रहे हैं, उन्हें क्या जल, शौचालय, शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं दी जा रही हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने रोहिंग्या से जुड़े सभी मामलों को एक साथ जोड़ा और बाकी विदेशी नागरिकों के मामलों को अलग बैच में डाल दिया। केंद्र सरकार की ओर से एडवोकेट कानू अग्रवाल ने कहा कि पहले रोहिंग्या मामलों पर फैसला हो, बाकी मामलों को बाद में निपटाया जाए। वहीं, वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा कि ये मामले 2013 से लंबित हैं और रोहिंग्याओं को संयुक्त राष्ट्र के मानकों के तहत हर तरह की बुनियादी सुविधाएं मिलनी चाहिए, भले ही भारत उस समझौते का हिस्सा नहीं है। वरिष्ठ वकील अश्विनी कुमार और कॉलिन गोंसाल्वेस ने कोर्ट को बताया कि म्यांमार में अत्याचार से बचकर रोहिंग्या भारत आए हैं, लेकिन म्यांमार उन्हें वापस लेने को तैयार नहीं है।
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल 2021 के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि केंद्र सरकार कानून के तहत रोहिंग्याओं को देश से बाहर निकाल सकती है। हालांकि, कोर्ट ने ये भी माना था कि जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार सभी व्यक्तियों को है, लेकिन भारत में रहने या बसने का अधिकार केवल नागरिकों को है।
भारत ने अभी तक संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन 1951 और उसके 1967 प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। इसके चलते भारत में शरणार्थियों के लिए कोई विशेष कानून या नीति नहीं है। भारत ने पारंपरिक रूप से तिब्बती, श्रीलंकाई तमिल और अन्य शरणार्थियों को मानवीय आधार पर शरण दी है, लेकिन रोहिंग्याओं के मामले में सुरक्षा और अवैध घुसपैठ का मुद्दा ज्यादा जोर पकड़ता रहा है।