
वाशिंगटन। भारत और अमेरिका के बीच व्यापार वार्ता अपने निर्णायक चरण में पहुंच चुकी है, और नीति-निर्माताओं को उम्मीद है कि इस समझौते से भारत की तीन अहम अपेक्षाएं पूरी हो सकेंगी। इनमें सबसे अहम है- अमेरिका द्वारा चीन और भारत पर लगाए गए टैरिफ में स्थायी अंतर बना रहना। हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की व्यापार नीतियों को देखें तो उनमें अनिश्चितता रही है, लेकिन भारत सरकार को भरोसा है कि अमेरिका चीन और भारत के बीच 10 से 20 प्रतिशत का टैरिफ अंतर बनाए रखेगा। उदाहरण के लिए- अगर अमेरिका चीन पर 30-50 प्रतिशत टैरिफ लगाता है तो भारत पर 20-30 प्रतिशत होना चाहिए।
यही वह समय है जब इस समझौते को अंतिम रूप दिया जाना चाहिए ताकि यह अंतर बरकरार रह सके।” हालांकि अमेरिकी पक्ष कृषि और डेयरी जैसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में बाजार पहुंच की सख्त मांग कर रहा है, जहां भारत की स्पष्ट ‘रेड लाइंस’ हैं। भारत के लिए यह टैरिफ अंतर इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत की कुछ संरचनात्मक कमियों जैसे बुनियादी ढांचे की बाधाएं, लॉजिस्टिक्स समस्याएं, उच्च ब्याज लागत, व्यापार करने की लागत और भ्रष्टाचार आदि को संतुलित करने में मदद कर सकता है। अधिकारियों का कहना है कि 20% का टैरिफ अंतर इन कमियों को कम करने में सहायक हो सकता है।
रिपोर्ट के मुताबिक, ट्रंप द्वारा 14 जून को चीन पर 55% टैरिफ की घोषणा के बाद, भारत पर लगने वाले 26% टैरिफ की तुलना में यह अंतर सैद्धांतिक रूप से लगभग 30 प्रतिशत अंक हो सकता है। हालांकि, इसमें कुछ शर्तें हैं। ट्रंप प्रशासन की टैरिफ योजनाएं आम तौर पर 10 दिनों से कम समय में बदल जाती हैं, और यह स्पष्ट नहीं है कि लंदन में दोनों पक्षों के बीच हाल की वार्ता के बाद चीन पर लगाए गए नए टैरिफ कितने समय तक लागू रहेंगे।
अब सवाल यह है कि क्या भारत सीमित दायरे वाले ‘अर्ली हार्वेस्ट’ समझौते पर राजी होगा, या फिर बातचीत को स्थगित कर 9 जुलाई की डेडलाइन गुजरने देगा और बाद में प्रयासों को फिर से शुरू करेगा। फिलहाल पूर्ण व्यापार समझौता संभव नहीं दिखता।
दूसरी अहम बात यह उभरकर आई है कि भारत अब कुछ क्षेत्रों में टैरिफ घटाने को लेकर ज्यादा सकारात्मक है, खासकर इंटरमीडिएट गुड्स (मध्यवर्ती वस्तुओं) में। हालांकि भारत ने पहले आरसीईपी (RCEP) समझौते से पीछे हटकर कृषि क्षेत्र की सुरक्षा को प्राथमिकता दी थी, अब अमेरिका की पसंदीदा वस्तुओं- जैसे सेब, बादाम, अखरोट, एवोकाडो और शराब पर टैरिफ कटौती को लेकर भारत में ज्यादा स्वीकार्यता है। इसके साथ ही, जीएम (जेनेटिकली मॉडिफाइड) फूड्स पर भी भारत अब ज्यादा खुलापन दिखा रहा है। भारत के पास अमेरिका से कच्चा तेल, रक्षा उपकरण और न्यूक्लियर सामग्री के आयात का दायरा भी है- जिससे व्यापार घाटा कम करने की ट्रंप की लगातार मांग को संतुलित किया जा सकता है।
तीसरी प्रमुख समझ यह बन रही है कि मौजूदा बेसलाइन टैरिफ अब स्थायी हो चुके हैं। इसलिए भारत जो कुछ भी बातचीत में हासिल करेगा, वह 10% से 26% के बीच का प्रभावी शुल्क ही होगा। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने से पहले अमेरिका द्वारा भारत पर लगाई गई औसत ड्यूटी सिर्फ 4% थी और गैर-टैरिफ अवरोध लगभग नहीं थे।
अब ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि अमेरिका के बंदरगाहों पर चीनी उत्पादों पर लागू प्रभावी ड्यूटी कितनी है, खासकर उन श्रेणियों में जहां भारत प्रतिस्पर्धी है। रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका और चीन के बीच जो टैरिफ अंतर बनेगा, वह भारत के लिए बेहद अहम है क्योंकि इसी से भारत की कुछ संरचनात्मक कमजोरियां- जैसे बुनियादी ढांचे की कमी, लॉजिस्टिक्स की समस्याएं, उच्च ब्याज दरें और भ्रष्टाचार की भरपाई हो सकती है।
ट्रंप द्वारा 14 जून को चीन पर 55% टैरिफ लगाने की घोषणा ने एक बार तो ऐसा संकेत दिया कि भारत पर लगाए गए 26% शुल्क की तुलना में 30% का अंतर बन जाएगा। लेकिन इसके कई पेंच हैं। विश्लेषकों के अनुसार, ट्रंप द्वारा घोषित 55% टैरिफ में 25% का वह पुराना टैरिफ भी शामिल है, जो उनके पहले कार्यकाल में लगाया गया था और जिसे बाइडेन प्रशासन ने बरकरार रखा। इसके अलावा 10% का बेसलाइन ‘जवाबी’ टैरिफ और 20% का टैरिफ फेंटेनिल तस्करी के आरोप में लगाया गया था। यानी वास्तविक टैरिफ अंतर उतना बड़ा नहीं है जितना दिखता है।
हाल ही में जिनेवा में हुई बातचीत में अमेरिका ने चीनी उत्पादों पर शुल्क को 145% से घटाकर 30% कर दिया और चीन ने अमेरिकी आयात पर अपने शुल्क को घटाकर 10% किया। साथ ही, चीन ने अमेरिका को रेयर अर्थ खनिजों के निर्यात पर लगी बंदिशें हटाने का वादा किया- जिससे अमेरिकी वाहन कंपनियों को राहत मिली। इससे संकेत मिलता है कि चीन की मोल-भाव की ताकत बढ़ी है और यदि वह अमेरिका से और रियायतें हासिल कर लेता है तो भारत को अपेक्षित टैरिफ अंतर बनाए रखना मुश्किल हो सकता है।
भारत के वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने मई में अमेरिका की यात्रा के दौरान अमेरिकी वाणिज्य सचिव हावर्ड लुटनिक से मुलाकात की थी, ताकि व्यापार वार्ता को आगे बढ़ाया जा सके। भारतीय अधिकारियों का कहना है कि अमेरिका कृषि और डेयरी जैसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में बाजार पहुंच के लिए जोर दे रहा है, जहां भारत की स्पष्ट सीमाएं हैं।
भारत को उम्मीद है कि अमेरिका द्वारा चीन पर लगाए गए उच्च टैरिफ के कारण भारतीय निर्यातकों को अमेरिकी बाजार में अधिक अवसर मिलेंगे। खास तौर पर उन क्षेत्रों में जहां भारतीय उत्पादक प्रतिस्पर्धी हैं, जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स, वस्त्र और फार्मास्यूटिकल्स। हालांकि, अगर अमेरिका और चीन के बीच व्यापार तनाव कम होते हैं और चीन पर टैरिफ कम होता है, तो भारत के लिए यह अवसर कम हो सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि चीन की तकनीकी विशेषज्ञता और उत्पादन क्षमता भारत के लिए चुनौती बन सकती है।
कुल मिलाकर भारत-अमेरिका व्यापार वार्ता की सफलता अब इस पर निर्भर करती है कि क्या भारत अमेरिकी मांगों को संतुलित करते हुए चीन के मुकाबले एक स्थायी टैरिफ लाभ सुनिश्चित कर सकता है। अगर यह समझौता 19 जुलाई तक हो जाता है, तो भारत के लिए अमेरिकी बाजार में प्रतिस्पर्धा के नए द्वार खुल सकते हैं। लेकिन चीन की रणनीतिक चालें इस रास्ते में सबसे बड़ी चुनौती बन सकती हैं।