
टी. धर्मेंद्र प्रताप सिंह
न्याय एक विकासशील अवधारणा है और यह उतनी ही पुरानी है, जितनी कि मानव सभ्यता। जैसे-तिलक सनातन का प्रतीक होता है, वैसे ही शक्ति का प्रतीक तलवार होती है तो तराजू न्याय का प्रतीक होता है। न्याय की देवी के आंखों पर पट्टी इसीलिए बांधी दिखती है ताकि निष्पक्षता बरकरार रहे और वह न्याय के पहले किसी की शक्ल या परिचय देखकर फैसला न करें, पर कालांतर में यही पट्टी देर का प्रतीक बन चुकी है और पीड़ितों के साथ अंधेर हो तो गलत है, क्योंकि कहा भी जाता है कि ईश्वर के घर देर है, पर अंधेर नहीं। न्याय के कई सिद्धांत होते हैं, उनमें एक यह भी है कि एक को मारें, दुई मरि जावें, तीसर खौफ खाए मरि जाए। यानी कि मुख्यतः न्याय को सुधारात्मक व संदेशात्मक होना चाहिए?
इससे लोगों में एक संदेश जाता है कि ऐसा फलां ने किया था तो उनको इतना इतना भरना पड़ा था। भारत जैसे बड़े देश में रोज ही हजारों अपराध होते हैं। पुलिस अपराधियों की धरपकड़ के लिए रोजाना कार्रवाई भी करती है, जिसके बाद अभियुक्तों व केस को न्यायालय में पेश किया जाता है। इस बीच अगर पीड़ित ही न रहे या अत्यधिक बूढ़ा होने के कारण पीड़ित को मामले को समझने का सेंस ही न रहे तो इसे न्याय की हत्या ही कहेंगे। किसी ने ठीक ही कहा है कि देर से मिला न्याय नहीं, अन्याय होता है। कई जगह तो सीधे लिखा मिलता है कि न्याय में देरी अन्याय है। यह सिद्धांत ही द्रुत गति से न्याय के अधिकार का आधार है और न्यायिक सुधार के समर्थकों का प्रमुख हथियार। ऐसा करने के कई नुकसान होते हैं, जैसे- साक्ष्यों का ह्रास हो सकता है, पीड़ित और गवाह भी मर सकते हैं। यदि लाभार्थी ही खत्म हो जाए तो यह न सिर्फ न्याय के ह्रास का विषय बन जाता है, बल्कि हास्य का भी। इस तरह तो परिहास के साथ उपहास भी तय है।
दूसरी ओर देरी से जहां पीड़ितों को दोहरा कष्ट होता है, वहीं अभियुक्त के अधिकारों में वृद्धि होती जाती है। प्रायः यह देखा गया है कि होशियार अधिवक्ता के मुवक्किल उम्र के आधार पर छूट पा जाते हैं। राज्य बनाम कुं. युधिष्ठिर सिंह के केस में लखनऊ पीठ ने यही किया था। 1978 के उन्नाव के फौजदारी के केस में, जिसमें कि तीन लोग घायल हो गए थे, अधिवक्ता ने अदालत से कहा कि 1982 से मामला हाई कोर्ट में है। अब आदेश के समय यानी कि 2018 में आरोपित की आयु 82 साल की है। उस समय आरोपित की उम्र 46 की थी। इतने साल में नौ आरोपियों में से तीन की तो पहले ही डेथ हो चुकी है। बाकी में से सिर्फ एक के दोषी साबित होने के बाद भी अब यदि जेल भेज भी दिया गया तो यह न्याय का ह्वास होगा, जो कि हास, परिहास व उपहास का कारण बनेगा इसलिए जुर्माना लगाकर छोड़ दिया जाए।

अदालत ने इस बात को मानते हुए पीड़ितों को एक लाख जुर्माना दिलाकर छोड़ दिया था। इसी तरह का अदालत कोई एक मार्क सेट कर दे अपने लिए, जिसे हर बार एक नजीर की तरह लिया जाए। कहीं कुछ, कहीं कुछ यह न्याय नहीं हुआ। जसराना थाना क्षेत्र के दिहुली में 24 दलितों के नरसंहार के मामले में फैसला देने में अदालत को 44 साल लग गए। इसमें 17 डकैतों को अभियुक्त बनाया गया था, जिसमें से 14 मर चुके हैं। बचे तीन बुजुर्गों को फांसी की सजा हाल ही में दी गई तो वे अदालत में ही फूट-फूटकर रोने लगे। तीनों की उम्र भी 90 का आंकड़ा छू रही है। ज्ञात हो कि जिस वक्त नरसंहार हुआ था, उस समय दिहुली गांव मैनपुरी जिले में था, जो कि फिरोजाबाद के जिला बनने के बाद इधर आ गया था। बाद में इसकी सुनवाई स्पेशल एंटी डकैती कोर्ट मैनपुरी में हो रही थी, जहां की जज इंद्रा सिंह ने हाल ही में उक्त फैसला सुनाया है।
24 दलितों की सामूहिक हत्या में तीन डकैतों कप्तान सिंह, रामसेवक और रामपाल को उन्होंने फांसी की सजा सुनाई और 50-50 हजार का जुर्माना भी लगाया था। इस मामले में 17 लोगों को आरोपी बनाया गया था, जिनमें 13 की विभिन्न कारणों से मौत हो चुकी है और एक आरोपी भगोड़ा घोषित है। दरअसल 18 नवंबर 1981 की शाम को डकैतों के एक गिरोह ने दलितों के गांव पर हमला बोला था और अंधाधुंध गोलियां बरसाकर 24 लोगों की हत्या कर दी थी, जिसमें कुछ बच्चे और महिलाएं भी शामिल थीं। यह वह मनहूस साल था, जब डकैतों द्वारा किए गए दो बड़े सामूहिक नरसंहार से तब की केंद्र और प्रदेश सरकार हिल गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, गृहमंत्री वीपी सिंह, मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी और विपक्षी नेता अटल बिहारी वाजपेई भी पीड़ितों का दर्द बांटने दिहुली गांव पहुंचे थे तो बेहमई का भी मुख्यमंत्री सहित कई मंत्रियों ने मौका मुआयना किया था। आरोपी कप्तान सिंह ने रोते हुए बताया कि झूठा फंसाया गया है। कुछ नहीं किया था।
यह काम डकैत राधेश्याम उर्फ राधे और संतोष उर्फ संतोषा के गिरोह ने किया था। उन्होंने एक मुकदमे में गवाही देने के कारण नाराज होकर दिहुली गांव में धावा बोला था। उस शाम राधे व संतोष ने करीब दो दर्जन डकैतों के साथ ऐसा तांडव मचाया था कि गांव की जमीन लाल हो गई थी। डकैतों ने बाद में लूटपाट भी की थी। ये हत्याकांड पूरे देश में गूंजा था। मैनपुरी से लेकर इलाहाबाद तक यह मामला कोर्ट में चला। इसके बाद 19 अक्टूबर 2024 को बहस के लिए मुकदमा फिर से मैनपुरी सेशन कोर्ट में ट्रांसफर किया गया। जिला जज के आदेश पर विशेष डकैती कोर्ट में इसकी सुनवाई हुई। दिहुली के ज्ञान सिंह ने बताया कि डकैतों ने उनके बाबा ज्वाला प्रसाद, पिता भूरे लाल और चाचा मुनेश की हत्या कर दी थी। उस समय वह एक वर्ष के थे। परिजन और मां से इस बारे में जब-जब सुनते हैं तो आंसू झरना बन जाते हैं।
कई परिवार शिकोहाबाद के बोझिया के साथ आगरा, नारखी, सैलई एवं अन्य जगहों पर रह रहे हैं या फिर बच्चे पालने के लिए बाहर काम कर रहे हैं। न्याय मिलने में बहुत देरी पर मीना देवी ने बताया कि परिजन लीलाधर और गीतम सिंह को खोने के बाद अब तो रोने के लिए आंसू भी नहीं बचे हैं। 90 वर्ष की जय देवी को कम सुनाई पड़ता है तो आंखों की रोशनी भी कम पड़ गई है। बहुत देर में सुन व समझ पाईं तो कहा कि अभी नहीं भूले हैं। छिप गए थे तो किसी तरह जान बच गई थी। मुख्य आरोपी संतोष और राधे सहित 13 आरोपियों की मौत हो चुकी है तो जो 24 डकैत गांव आए थे, उनमें भी 20 के करीब मर चुके हैं। अदालत ने 15 जुलाई 2023 को डकैत ज्ञान चंद्र भगोड़ा घोषित करते हुए स्थायी वारंट जारी किया था। उसकी जब तक गिरफ्तारी नहीं हो जाती या फिर वह कोर्ट में सरेंडर नहीं कर देता, तब तक उसकी फाइल जिंदा रहेगी।
अदालतों में दिन पर दिन बढ़ रही पेंडेंसी का एक प्रमुख कारण हड़ताल है। एक ओर अधिवक्ता को कॉमन ले लें तो दूसरी ओर कभी जज, कभी सरकार, कभी पत्रकार, कभी प्रशासन, कभी पुलिस, कभी तहसीलदार, कभी एसडीएम, कभी लेखपाल, कभी जनप्रतिनिधि या फिर कभी-कभी दूसरे भी कारणों से प्रदेश के कमोबेश सभी जिलों, तहसीलों व हाईकोर्ट में हड़ताल होती ही रहती है। इतना ही नहीं, उक्त कारणों से पूरे साल प्रदेश के किसी न किसी कोने में हड़ताल चलती ही रहती है। बीते दशक में उन्नाव बार के पदाधिकारी ने किसी बात पर जज को थप्पड़ मार दिया था तो हड़ताल हो गई थी। एक मामले में एक पदाधिकारी ने कहा था कि डीएम-एसपी क्या चीज हैं।
यदि अधिवक्ताओं की भावनाओं से खिलवाड़ किया जाएगा तो मुख्यमंत्री तक की कुर्सी हिल जाएगी। औसतन साल में चार-छह बार हड़ताल होती है। गाजियाबाद में 38 दिन तक चली थी। आपसी विवादों के चलते की जाने वाली हड़तालों के भी कारण मुकदमों के निपटान में देरी होती है। राजधानी के ही मामले को ले लें तो पाएंगे कि होली पर हुए किसी विवाद के कारण तीन लोगों को विभूति खंड थाना पुलिस ने बैठा लिया था। उनमें से एक वकील था, जिसने मित्र वकील को फोन कर दिया, जो कि एक और वकील को लेकर थाने पहुंचे और नहीं छोड़ने पर बवाल हो गया था। इसके बाद करीब डेढ़ सौ अधिवक्ता त्योहार पर परिवार को छोड़कर थाने जा पहुंचे थे। यह जानने की भी कोशिश नहीं की कि छुड़ाने गए अधिवक्ता पर पुलिस ने पेशाब किया था या नहीं, रिश्वत मांगने, सोने की चेन छीनी थी या नहीं व अभद्रता किस स्तर की हुई थी।
वकीलों में आक्रोश पेशाब पिलाने के नाम पर ही फैला था और उन्होंने इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान चौराहे पर ट्रैफिक जाम कर दिया था, जिससे दोनों ओर एक किलोमीटर तक वाहन जाम में फंस गए थे। प्रदर्शनकारी पुलिसकर्मियों पर रिपोर्ट दर्ज करने की मांग कर रहे थे। हालात इतने बिगड़ गए कि आधा दर्जन थानों की फोर्स व आलाधिकारी मौके पर पहुंचे। जांच के आदेश और नौ पुलिसकर्मियों समेत कुछ अज्ञात पुलिसवालों पर मुकदमा दर्ज करने का आदेश देकर मामले को शांत किया था। वकीलों ने पुलिस कमिश्नर ऑफिस के घेराव का अल्टीमेटम देते हुए अगले भी दिन धरना-प्रदर्शन जारी रखा था।

हड़ताल के नाम पर घबरा कर बैकफुट आए पुलिस अधिकारियों ने पांच पुलिस वालों को जिम्मेदार मानते हुए बलि का बकरा बनाकर लाइन हाजिर कर दिया था। हालांकि वकील इतने से खुश नहीं थे और उन डेढ़ सौ वकीलों पर से केस वापस लेने की मांग कर रहे थे, जिन पर उस दिन थाने में बवाल के बाद पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज कराई थी। पुलिस कर्मियों ने नाम नहीं छापने के वादे पर कहा कि विवाद हुआ था, क्योंकि वे थाने के भीतर अभद्रता कर रहे थे। रिपोर्ट दोनों तरफ से दर्ज है तो फिर कार्रवाई सिर्फ एक पक्ष पर ही क्यों?
पुलिस कर्मियों ने सवाल किया कि अतीत में कई बार प्रदेश में पुलिस-वकील विवाद हुए हैं, पर हर बार कार्रवाई सिर्फ पुलिस कर्मियों पर ही होती है, ऐसा क्यों? बात इतने से सुलझ गई हो तो भी ठीक, पर बाद में किसी केस में पेश होने कोर्ट पहुंचे एसीपी रैंक के पुलिस अधिकारी के साथ अधिवक्ता समूह ने न सिर्फ जबरन वापस जाने की अभद्रता की थी, बल्कि गालियां भी दी थीं। 19 सेकेंड के वायरल वीडियो में वकील कहते हुए सुनाई दे रहे हैं कि सीओ साहब, जाइए यहां से। किसकी परमिशन से आए हैं और किसने भेजा है? इतने में ही कोई वकील अधिकारी को गाली देता भी सुनाई दे रहा है। इस पर अधिकारी बिना पेश हुए लौट गए थे। वीडियो की पुष्टि दृष्टांत न्यूज नहीं करता है।
अधिकारी ने कहा कि चूंकि मामला कोर्ट परिसर का था तो स्वतः संज्ञान ले लेना चाहिए ताकि प्रदेश में काम करने के लायक हालात बने रहें। दोनों पक्षों के बीच अब भी हालात तनावपूर्ण बने हुए हैं। अंग्रेजों के जमाने से जो छुट्टियां चली आ रही हैं, जबकि आज की तारीख में पूरी न्यायपालिका में एक भी अंग्रेज जज नहीं है। उन पर समय की मांग के मुताबिक न कोई रोक लगी है और न ही सुधार के लिए कोई कदम उठाया जा रहा है। समय सख्त है और स्व के लिए कानून बनाकर नजीर पेश करने का है। बच्चों के स्कूल की तरह गर्मी में भी एक माह की छुट्टी चाहिए तो जाड़े में भी 15 दिन की, ऐसा क्यों? यह सुप्रीमेसी ही तो है कि जो आपको चाहिए, वह नीचे वालों के लिए वर्जित है। यदि लोड रोज बढ़ता जा रहा है तो फिर क्यों न आवश्यक आपूर्ति की तरह छुट्टी कैंसिल की जाएं?
आगे बढ़ो, जोर से बोलो, गलत बातों को तौबा बोलो। देश हित में स्वतः संज्ञान लो सरकार ताकि किसी को बोलने या उंगली उठाने का मौका ही न मिले और न ही बार-बार अदालत को लगे कि कोई अपमान कर रहा है। कुल लंबित केस से अपमान के ही मामले यदि घटा दिए जाएं तो अदालतों पर से थोड़ा सा बोझ कम पड़ जाएगा। कई सदी से साल में दिन सिर्फ 365 ही होते हैं। साल में शनिवार व रविवार करीब 104, सार्वजनिक व निर्बंधित अवकाश करीब 55, गर्मी व जाड़े की बंदी मिलाकर 42 से 45 दिन और करीब इतने ही ईएल, एमएल व सीएल ।
इस तरह छुट्टियों का आंकड़ा पहुंच रहा है 212 और यदि इसमें इसमें उत्तर प्रदेश सरकार के 31 निर्बंधित (स्वैच्छिक) अवकाश शामिल कर दिए जाएं तो यह संख्या पहुंच जाती है 242 यानी कि उच्च न्यायपालिका में आठ माह छुट्टी है। यानी कि माह में औसतन 10 दिन काम। यह अंग्रेजों के तब के दौर की बातें हैं, जब देश की आबादी 34 करोड़ से कम थी और जज होते थे सिर्फ अंग्रेज। उन्हें नहीं भाती थी यहां की गर्मी, फिर भी टिके रहे 200 साल तक। अब आबादी है 134 करोड़ से काफी ज्यादा और एक भी जज अंग्रेज नहीं है। चूंकि राजनीति की तरह भाई-भतीजावाद यहां भी हावी है तो अंग्रेज दिखने का ढोंग जरूर चला आ रहा है कई दशक से।
लकीर के फकीर की तरह इसीलिए घोषित की जा रही हैं जाड़े व गर्मी की छुट्टियां। यदि यह सही है और इस पर उंगली उठाना गलत तो फिर यही व्यवस्था जिला व तहसील की अदालतों के लिए क्यों नहीं लागू है? यही कारण है कि प्रदेश की विभिन्न अदालतों में सवा करोड केस पेंडिंग हैं। यदि कोई साल में चार-पांच माह ही काम करता है तो फिर 12 मास का वेतन नहीं लेना चाहिए, वरना फिर न्यायपालिका व निजी स्कूलों में फर्क ही क्या रह जाएगा? क्यों न सिटिंग व फैसले के हिसाब से वेतन का पुनर्निर्धारण हो? जवाबदेही का सीधा सा नियम है कि यदि कोई जवाब न भी मांगे तो भी देश, शपथ, समय, सिस्टम व संविधान के प्रति जवाबदेही बनती है।
विभाग कोई भी हो, ऊपर जो बैठे हैं, उनका काम बन गया है देश में उल्टी गंगा बहाना। नजीर पेश करने का काम नीचे वालों पर थोप दिया गया है और ऊपर वाले मौज कर रहे हैं। फिर चाहे बच्चा पैदा करने का कानून हो या सरकारी कुर्सी तोड़ रहे अधिकारी द्वारा संपत्ति का ऐलान। दो से ज्यादा बच्चे होंगे तो कई प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव नहीं लड़ सकते हैं लोग, पर किसी के नौ बच्चे भी होंगे, वह सांसद व विधायक का न सिर्फ चुनाव लड़ सकता है, बल्कि विधायिका पहुंच कर जनसंख्या से संबंधित कानून बनाकर नीचे वालों पर थोप सकता है।
इसके विपरीत दुनिया भर का सर्वमान्य नियम है कि टीम लीडर को ही कप्तान की तरह आगे बढ़कर अपने प्रदर्शन से उदाहरण पेश करना होता है, पर ये तो भारत है। यही हाल संपत्ति के ऐलान का भी है। प्रदेश के बहुत बड़े अधिकारी सभी कर्मचारियों व अधिकारियों का वेतन रोकने का कई बार ऐलान कर चुके हैं। हजारों को अंतिम चेतावनी भी दी गई है और सैकड़ों का वेतन भी रोका जा चुका है। इसके बावजूद हजारों लोग ऐसे हैं, जिन्होंने अभी तक संपत्ति का ऐलान नहीं किया है। इसे क्यों न सभी स्तंभों के तहत आने वाले हर विभाग के लिए अनिवार्य बना दिया जाए?
विधानसभा और परिषद के प्रमुख सचिव की तरह न्यायपालिका को अभी तक विशेषाधिकार हासिल था। भला हो अग्नि देव का, जिन्होंने जस्टिस यशवंत वर्मा के घर में साक्षात प्रकट होकर सुप्रीम कोर्ट को मजबूर कर दिया कि सभी जजों को संपत्ति का ऐलान अनिवार्य करने के लिए, नहीं तो ये वह देश और प्रदेश है, जहां पर नीच से नीच अधिकारी की जांच के लिए सरकार से अनुमति लेनी होती है। आज भी उत्तर प्रदेश सरकार के पास इस उद्देश्य से सैकड़ों फाइल लंबित हैं और अधिकारी रिटायर होकर देश से विदेश तक मौज कर रहे हैं।
पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट नंबर एक पर है, जिसके 53 में से 30 जज संपत्ति घोषित कर चुके हैं तो दिल्ली के 39 में से सिर्फ सात जज, मद्रास के 65 में से पांच, केरल के 44 में से तीन, कर्नाटक के 50 में से एक, छत्तीसगढ़ के 16 में से एक और हिमाचल प्रदेश के 12 में से तीन जजों ने संपत्ति का ऐलान किया है। 25 में से 18 हाईकोर्ट ऐसे हैं, जिनके एक भी जज ने संपत्ति का ऐलान नहीं किया है। आलम यह है कि देश के 25 उच्च न्यायालयों के लिए स्वीकृत पद 1122 में से सिर्फ 763 जज हैं, जिनमें से 63 ने भी अभी तक संपत्ति घोषित नहीं की है। इस मामले में अपना उत्तर प्रदेश टॉप कर गया है, जहां के 81 जजों में से एक ने भी संपत्ति का ऐलान करना ठीक नहीं समझा है।
सुप्रीम कोर्ट के भी जजों को शामिल कर लिया जाए तो अभी तक कुल 10-12 फीसदी ने ही संपत्ति की सूचना दी है। आमतौर पर देखा गया है कि न्यायपालिका के मुख से निकला वाक्य ही कानून बन जाता है, जिसे दूसरी अदालतों में नजीर की तरह पेश किया जाता है, पर 12 साल पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह की बात कही थी, पर व्याख्याकारों ने इसे स्वैच्छिक करार दिया था। ऊपर से तुर्रा यह है कि न्यायपालिका पर नुक्ताचीनी नहीं की जा सकती है। बोलना वाला कुछ भी किया जाएगा तो यह नहीं कहा जा सकता कि बहुत बोलता है। लोकपाल अधिनियम में कहा गया था कि जिनको जनता के पैसे से वेतन मिलता है, उनके लिए संपत्ति घोषित करना जरूरी है, पर दसियों साल बाद भी अभी तक इसे न्यायपालिका पर लागू नहीं किया जा सका है।
पहले पेट 10-20 लाख से भर भी जाता था, पर अब तो चपरासी भी इससे कम पर रिटायर होने के लिए तैयार नहीं है। पता नहीं क्या हो गया है कि हजार 500 करोड़ के नीचे कोई अधिकारी रिटायर होने के लिए तैयार ही नहीं है, जबकि सभी को पता है कि यह करेंसी यमराज के यहां स्वीकार नहीं की जाती है? भले ही 50 करोड़ लेकर नौकर भाग जाए और मुंह से चूं तक न निकले। क्यों न दोनों हाथों से राजकोष लूटने की सरकारी कर्मियों और अधिकारियों को खुली कानूनी छूट दे दी जाए और बाद में सूंघने वाले जंतु की तरह सभी सरकारी एजेंसियों को पीछे लगाकर सब अटैच कर लिया जाए।
जस्टिस शेखर यादव का मामला अभी थम भी नहीं पाया था कि जस्टिस यशवंत वर्मा के घर में रखे करोड़ों के बोरे में आग लग गई। भाषण देने पर यादव के खिलाफ महाभियोग का नोटिस लाने की तैयारी थी व उन्हें त्याग पत्र का विकल्प दिया गया था तो ताजा मामले में क्या हो गया? महाभियोग के बजाय ट्रांसफर, जबकि सुप्रीम कोर्ट के ही एक फैसले में कहा गया है कि ट्रांसफर कोई सजा नहीं है। इसमें इस्तीफा क्यों नहीं मांगा गया? इसके विपरीत पीड़ित जनता भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई देखना चाहती है।
इंफ्रास्ट्रक्चर और जजों की कमी
देश की अदालतों में 6000 से ज्यादा जजों की कमी बताई जाती है। इनमें से 5000 के करीब निचली अदालतों में कम हैं। कानून मंत्रालय के डेटा की मानें तो 10 लाख की आबादी पर सिर्फ 20 जज हैं। हालांकि इंडिया जस्टिस रिपोर्ट कहती है कि 10 लाख लोगों पर सिर्फ 15 ही जज हैं और उच्च न्यायालयों में 33 फीसदी पद खाली हैं इसीलिए हर दूसरा मामला कम से कम तीन साल से अदालत में बताया गया है। यह दीगर बात है कि कई हाईकोर्ट के जजों को बैठाने के लिए पर्याप्य इंफ्रास्ट्रक्चर तक नहीं है।
बताते हैं कि एक-एक जज के जिम्मे करीब 10000 केस तक आते हैं, जो कि उसके जीवन काल के लिए काफी होते हैं। इसके विपरीत कई विकसित देशों में 10-10 हजार की आबादी पर एक जज है। यानी की 10 लाख की आबादी पर अमेरिका में सौ डेढ़ सौ जज होते हैं तो यूरोप में 200 से अधिक। हर मोर्चे पर मात इसीलिए खा रहे हैं क्योंकि हम इस ब्रह्मांड के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। आबादी बोझ बन गई है। नासूर की तरह फट गई है और संसाधनों को हड़प किए जा रही है। इस पर फैसला लेने में सभी स्तंभों की हलक सूख जा रही है। किसी सम्य देश में बोलने व बच्चे पैदा करने की अति की नजीर देखने को नहीं मिलती। अब इसकी इति होनी चाहिए।
दूसरों पर या अनर्गल बोलने पर टैक्स लगाने का यही उपयुक्त समय है। कर्मचारी तो कभी भी भर्ती किए जा सकते हैं, पर उन्हें देने के लिए फंड और फंड एलोकेशन की इच्छाशक्ति का होना जरूरी है। कभी-कभी वादकारियों का रवैया भी पेंडेंसी बढ़ाने का काम करता है, जब उनका उद्देश्य सिर्फ मामले को लंबा लटकाए रखने के लिए तारीख पर तारीख लेना होता है। हालांकि उन्हें सोचना चाहिए कि हम जाने के पहले कोई भी परेशानी बच्चों के लिए नहीं छोड़ जाएंगे। दूसरे, कोरोना काल में भी मुकदमों की पेंडेंसी ज्यादा बढ़ी थी। सुप्रीम कोर्ट की बात करें तो सिर्फ पांच साल में ही 35 फीसदी मामले बढ़ गए हैं। अदालतों को भी सोचना चाहिए कि उद्देश्य व मंतव्य स्पष्ट होने के बाद भी हर तीसरे काम में स्टे ऑर्डर देने से पेंडेंसी बढ़ती जा रही है।
बेहमई और दिहुली: 43-44 साल बाद फैसले

मरने के बाद जो न्याय मिले, उसे कोई भी मूर्ख न्याय कैसे कह सकता है? बिलंबित न्याय के लिए कई कारकों को जिम्मेदार माना जाता है, जैसे- न्यायाधीशों की संख्या कम होना, न्यायाधीशों की नियुक्ति में गतिरोध, जटिल, बोझिल व उबाऊ प्रक्रिया, थकाऊ जांच, अपीलों का प्रसार, वकीलों की विलंबकारी रणनीतियां, सरकारी वकीलों के चयन में गलती और न्यायपालिका के लिए बजट की कमी आदि। ऐसे लटके हुए मामलों में तो अदालत से यही अनुरोध है कि थोड़े दिन और लटकाए रखा करे ताकि दोनों ओर जो दो-चार बचे हों, वे भी खत्म हो जाएं तो न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी? अगर इसे थोड़े दिन और दबा देते तो कई ऑस्ट्रेलिया से इस सत्य को छुपा लिया जाता कि अतीत में क्या-क्या होता रहा है?
ऐसा न करने से कांड के बाद में पैदा हुए करोड़ों नए दौर के बच्चों में थू-थू होने से नहीं बच पाई। कहना न होगा कि विलंबित न्याय लोकतंत्र को भी कमजोर करता है तो लोगों का विश्वास न्यायपालिका से हट जाता है। उल्लेखनीय है कि 18 नवंबर 1981 की शाम को हुए इस नरसंहार को कुछ लोगों ने करीब छह माह पहले 14 फरवरी 1981 को फूलन देवी द्वारा किए गए कानपुर देहात जिले के बेहमई कांड से भी जोड़ा था कि डकैतों के दूसरे गिरोह ने बदला लिया है, पर ऐसा कुछ नहीं था। दोनों ही कांड के पीछे गिरोहों के आपसी विवाद जैसा कारण कुछ भी रहा हो, पर डकैतों की ओर से यही कहा गया था कि पुलिस के मुखबिर होने के शक में नरसंहार किया गया है।
इसमें लाइन में खड़े करके 20 ठाकुरों को गोली से फूलन द्वारा उड़ा दिया गया था। इस बारे में पूर्व डीजीपी, भाजपा सांसद व एससी-एसटी आयोग के पूर्व अध्यक्ष बृजलाल कहते हैं कि रेप का बदला लेने की कहानी फूलन आदि ने गढ़ी थी। ऐसा कुछ नहीं था, सभी को पता है कि ठाकुरों ने उनसे रेप नहीं किया था। 43 साल बाद बेहमई को जब तक न्याय मिला था, तब तक वादी, गवाह व कई आरोपितों की हो चुकी थी मौत। हैरानी की स्थिति है कि कितनी भी निंदा कर लो किसी चीज की, पर बेशर्म शर्मनिरपेक्ष होने के कारण कुछ होता ही नहीं है। हर बार नतीजा वही ढाक के तीन पात वाला।
इस मामले में फूलन देवी समेत 36 लोगों को आरोपित बनाया गया था, पर जब अपर जिला जज (डकैती) ने फैसला सुनाया, तब तक सिर्फ श्याम बाबू केवट व विश्वनाथ ही बचे थे। पहले को दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा दी तो दूसरे को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया था। दोनों कांड में कुछ समानता के कारण ही दोनों को एक-दूसरे से जोड़कर देखा जाता है। बेहमई कांड दोपहर का था तो दिहुली शाम ढलने के पहले का। दोनों में आम दिनों की तरह सब सामान्य था। पहले में ग्रामीण व किसान खेतों की ओर जा रहे थे तो दूसरे में लौट रहे थे। अचानक शोर मचता है कि डकैत आ गए, बचो और भागो। सभी बचने को घरों की तरफ भागे, पर घरों के दरवाजे तोड़कर बाहर निकाल कर 26 लोगों को लाइन में खड़ा करके गोली मार दी गई थी, जिसमें से छह भाग्यशाली थे, जो इलाज के बाद बच गए थे।
फूलन की हत्या हो चुकी है तो डकैत मान सिंह अब तक फरार बताया जाता है। दो ही आरोपित जेल में बंद थे, वे भी 85-90 साल के हैं, जबकि अन्य की मौत हो चुकी है। घटना के गवाह और वादी का भी निधन हो चुका है। इस घटना को बीते 43 वर्ष हो गए और अब जाकर न्याय मिला है। हर वर्ष जब यह दिन आता है तो ग्रामीणों की आंखें नम हो जातीं हैं और सोचते थे कि आखिर न्याय कब मिलेगा? अभी तक मुकदमे का ऐसा दांव-पेच फंसा कि फैसला आने में इतने वर्ष लग गए कि लोग एक-एक कर दुनिया ही छोड़कर चले गए। धैर्य की भी सीमा होती है। वादी राजा राम व गवाह जंटर सिंह भी नहीं रहे। आज गांव में कच्ची के बजाय गलियां पक्की हो गई हैं, डकैतों से मुक्ति मिल गई है।
खेती किसानी से आगे बढ़कर लोग सरकारी व प्राइवेट नौकरी करने लगे हैं, यमुना पार करने को पुल भी बन गया, लेकिन जो बेहमई को दो चाहिए था, उसे देने में 43 साल लग गए। इसके इंतजार में सिर्फ वही पीढ़ी बची है, जो तब बालक थे। पैरवी करने वाले वादी स्व. राजाराम के बेटे राजू सिंह कहते हैं कि इंतजार क्या होता है, कोई बेहमई से पूछे? विधवाएं आज भी उस मनहूस तारीख के दिन विलाप करतीं हैं और अन्न को हाथ तक नहीं लगाती हैं। चूल्हा अगर जलेगा भी तो सिर्फ बच्चों के लिए। उन्होंने बताया कि 31 वर्ष बाद हुई थी पहली गवाही। इसके बाद मुकदमे में रफ्तार आई और वर्ष 2020 में सभी को लगा कि फैसला आ जाएगा और कोर्ट में भीड़ तक लग गई, लेकिन पता चला कि केस डायरी ही गायब हो गई तो मामला फिर अटक गया था। इसके बाद चार साल और लग गए, तब तक दर्जन भर लोग और निपट गए।
देश में 5.25 करोड़ से ज्यादा केस पेंडिंग
कानून मंत्रियों की ऑल इंडिया कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री ने कहा था कि कानून की भाषा सरल व स्थानीय हो ताकि आदमी की समझ में आए। लोक अदालतों के माध्यम से देश में बीते वर्षों में लाखों केस सुलझाए गए हैं, जिससे अदालतों का बोझ कम हुआ है। इसके बावजूद सवा पांच करोड़ से अधिक केस जिलों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लंबित हैं। केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने संसद में एक सवाल के जवाब में कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय में 84 से अधिक मामले लंबित हैं, जबकि देश के 25 हाईकोर्ट में 30 साल से 60 लाख से अधिक मामले लंबित हैं। इनमें तीन 72 साल से लंबित हैं। दो केस कलकत्ता हाईकोर्ट और एक केस मद्रास हाईकोर्ट में पेंडिंग है।
साढ़े चार करोड़ से अधिक जिला व अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित हैं। इनमें भी सर्वाधिक मामले उत्तर प्रदेश की अधीनस्थ अदालतों में पेंडिंग हैं, जिनकी संख्या 1.18 करोड़ से अधिक हैं। दूसरे पर जाहिर तौर पर महाराष्ट्र है। बहुत लोग इसका बुरा भी मानते हैं, क्योंकि जिसकी जितनी संख्या भारी…। उन्होंने माना, इसके पीछे इंफ्रास्ट्रक्चर, कर्मियों की उपलब्धता, तथ्यों की जटिलता, जांच एजेंसियों, गवाहों एवं वादियों सहित हितधारकों का सहयोग आदि शामिल है। नियमों व प्रक्रियाओं का उचित अनुप्रयोग भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
मामलों के निपटान में देरी के लिए समय सीमा का अभाव, बार-बार स्थगन आदेश तथा मामलों की निगरानी, ट्रैक और सुनवाई के लिए उन्हें समूहबद्ध करने के लिए पर्याप्त व्यवस्था का अभाव भी शामिल है। मेघवाल ने कहा कि केंद्र सरकार करीब सात लाख मामलों में पक्षकार है, जिसमें रक्षा व वित्त मंत्रालय सबसे ऊपर हैं। नेशनल ज्यूडीशियल डेटा ग्रिड की रिपोर्ट की मानें तो भारत के कुल 25 हाईकोर्ट में 59 लाख केस पेंडिंग हैं। इनमें से करीब 42 लाख केस सिविल व 17 लाख क्रिमिनल नेचर के हैं। ये करीब 30 साल से लंबित हैं। हाल के साल में आर्थिक व साइबर क्राइम और भ्रष्टाचार आदि के मामलों की बाढ़ सी आ गई है। सभी राज्यों के लोअर कोर्ट्स में कुल 4.54 करोड़ केस लंबित हैं।
निचली अदालतों में 75 हजार केस 30 साल से पेंडिंग बताए गए हैं तो 46 हजार के करीब सिविल केस 30 साल से ज्यादा वक्त से पेंडिंग हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पेंडिंग केस को लेकर 20 अगस्त 2024 को सुनवाई की थी। इसमें जस्टिस एस. रवींद्र भट और जस्टिस अरविंद कुमार की बेंच ने कहा था कि एक डेटा के मुताबिक देश में 6 प्रतिशत आबादी मुकदमेबाजी से प्रभावित है। यह चिंताजनक स्थिति है। सुप्रीम कोर्ट ने 20 अक्टूबर को पांच साल से ज्यादा समय से पड़े पेंडिंग केस को निपटाने के लिए चीफ जस्टिस को कमेटी बनाने के लिए कहा था, जो लगातार इन पर निगरानी कर सके।
कोर्ट का कहना है कि न्याय की उम्मीद से लाखों लोग निवेदन करते हैं। सभी को इंसाफ मिले ये हमारी जिम्मेदारी है। न्याय में देरी से लोगों का अदालत से भरोसा कम होने लगा है। जिलों व तालुकाओं की सभी अदालतों को यह सुनिश्चित करना होगा कि दलीलें पूरी होने के बाद पार्टियां तय दिन पर उपस्थित हों। मामलों के बयान 30 दिनों के भीतर दर्ज हों। अगर किसी का बयान तय सीमा पर दर्ज नहीं हो पाया तो लिखित बताएं कि इसमें देरी क्यों हुई?
दृष्टांत विचार: निपटारा सेम डे और ऑन स्पॉट
दृष्टांत विचार है कि लोक अदालतों की स्थापना से यदि बात बनती नजर नहीं आ रही है तो थानों में रिटायर्ड दंडाधिकारी या प्रशासनिक अधिकारी को ट्रायल या पायलेट प्रोजेक्ट के तहत संविदा पर तैनात किया जाए, जो कि हफ्ते में एक दिन एक थाने में बैठे और सामान्य मामलों की अप्लीकेशन का समाधान दोनों पक्षों को बुलाकर मौके पर ही करे। इस तरह एक अधिकारी छह वर्किंग डे में छह थाने संभाल सकता है। ट्रायल सफल होने पर इनकी संख्या बढ़ाई जा सकती है। ऐसे लगता है कि लाख-दो लाख के खर्च में अधिकांश मामलों का निपटारा सेम डे और ऑन स्पॉट हो जाएगा।
उक्त अधिकारी और थाना प्रभारी फैसला करेंगे कि कौन सा मामला यहीं निपटेगा व किसकी रिपोर्ट दर्ज करके केस अदालत में भेजना है। शांति भंग और ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन के चालान की तरह चेक बाउंस और सामान्य मार-पीट के भी मामले दो-चार पेशी में निपटाए जा सकते हैं इसलिए कम से कम अब 21वीं सदी में तय कर दिया जाए कि कौन सा मामला कितने दिन में निपटाना जरूरी है? दूसरे, यदि रोज 10 नए मामले किसी भी अदालत पहुंच रहे हैं तो जजों को भी मिलकर रोज 10 मामलों में फैसला सुनाना चाहिए। उदाहरण के लिए हर साल देश में कहीं न कहीं चुनाव होता है और कम मतों से हारने वाले सैकड़ों लोग विभिन्न तर्कों के साथ अदालतों की शरण लेते हैं।
ये मामले पहले ही साल में निपटें तो निपटें, नहीं तो सत्ता के पांचवें साल तक खींचने से क्या फायदा किसी का? यह तो तीनों के समय की बर्बादी है। रेवेन्यू मैटर बदनामी का कारण बन रहे हैं कि दशकों चलते हैं इसलिए इनमें समय सीमा तय करना जरूरी हो गया है। दूसरे, पंच परमेश्वर पंचायत को मजबूती प्रदान की जाए तो कुछ राहत मिल सकती है। मजबूत कानूनी मध्यस्थता नहीं होने के कारण श्रम न्यायालयों की हालत बहुत खराब है, क्योंकि वहां नियोक्ता तारीख पर तारीख और अडंगे पर अडंगे लगाकर यही चाहता है कि कर्मचारी रिटायरमेंट या ऊपर जाने की आयु पार कर जाए। सोचनीय बिंदु है कि नौकरी से निकाले जाने के बाद हताश व निराश आदमी ही अदालत जाता है। ऐसे में बिना पैसे के वह अदालत के 10-20 साल कैसे चक्कर लगा सकता है?