एक और नसीम

संजय राजन

समय चक्र का काम ही है चलते रहना, यह चलता रहता है और पावर ऊपर-नीचे शिफ्ट होता रहता है। इसे किसी मेले के जायंट व्हील झूले की तरह समझिए। राजधानी की बात करें तो कभी राजेंद्र नगर, महानगर, निराला नगर व न्यू हैदराबाद जैसे मोहल्लों में राजे-महाराजे, तालुकेदार, जमींदार व बाद में बड़े अधिकारी बसते थे। हालांकि जियो के दूसरे सिम की तरह इनका एक-एक मकान देहरादून में भी होता था, जिसका इस्तेमाल सर्दी व गर्मी के मौसम में जम्मू व श्रीनगर के सचिवालय की तरह करते थे। बाद में उच्च आय वर्ग के लोगों ने गोमती नगर का रुख किया, जिसका विकास लखनऊ विकास प्राधिकरण ने 1983 से शुरू किया था। वी अक्षर के 21 खंड (सेक्टर) वाली एशिया की यह सबसे बड़ी कॉलोनी बताई जाती है। हालांकि कुछ लोग यही बात इंदिरा नगर के बारे में भी कहते हैं। दोनों अपने हैं।

किसी को भी पहले व दूसरे पर मान लीजिए। उससे पहले यहां जंगल था और बीच-बीच में गांव। जंगल तो आज भी कुछ इलाकों में न जाने कैसे बचा हुआ है? शायद मुकदमे चल रहे होंगे, वरना तालाबों की तरह ये भी कब का निपट गए होते। भले ही यहां के एक-एक खंड में दर्जनों अधिकारी रहते हों, जिनमें अधिकांशतः पूर्व हैं। करीब इतने ही पूर्व डीजीपी व पूर्व मुख्य सचिव रहते हों। कालांतर में राजे-महाराजे तो पीछे होते गए और हजारों करोड़ के बड़े-बड़े प्रोजेक्ट पास करने में अधिक रुचि के कारण पावर शिफ्ट हो गया डेमोक्रेट, ब्यूरोक्रेट व जुडीसियोक्रेट की ओर और इनकी पहली पसंद बना सुल्तानपुर रोड का अंसल, जिसे दो-तीन दशक पहले तक पिछड़ेपन की निशानी माना जाता था और लोग उधर जाना तक पसंद नहीं करते थे, पर एचसीएल, कई मॉल, स्टेडियम, शहीद पथ, किसान पथ व पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे बनने और हवाई अड्डे तक सीधी पहुंच के कारण रातों-रात करोड़पति बने नवधनाढ्य लोगों की पहली पसंद व स्टेटस सिंबल बन चुका है अंसल।

यानी की दो नंबर के पैसे खपाने का नया ठिकाना। एक बार पेंशन अंदर आ जाने के बाद शहर के अंदर जाने की इनको जरूरत ही नहीं पड़ती है छह-छह माह तक। शुक्र मानिए अंसल का कि उसने हवाई पट्टी का वादा खरीदारों से नहीं किया, वरना दो नंबर की सरकारें एक रात में दो हवाईपट्टी बनवा देतीं। ऐसा हो जाता तो यहां के तकरीबन सभी लोग हेलीकॉप्टर व टू सीटर डकोटा भी खरीद लेते। दो नंबर की सरकारों द्वारा अंसल के कहने पर कैबिनेट मीटिंग रातों-रात बुलाने के भी कई उदाहरण हैं और एलडीए वीसी व मंडलायुक्त नियुक्त कराने के भी। यह सूची है अंसल के खनखनाते सिक्कों पर नंगे पैर मुजरा करने वालों की तो फिर अंसल ने ठगों को ठगा तो क्या बुरा किया?

यह कहना हो सकता है देहरादून के उस नौकर रूपी चोर का जिसने हाल के साल में लखनऊ के एक रिटायर्ड बड़का बाबू के विला से कई करोड़ की चोरी की थी और किसी में इतना नैतिक साहस नहीं था कि सिपाही के पास जाकर कह पाता कि चोरी हो गई है। चोरों के घर में चोरी का बुरा नहीं मानना चाहिए। हालांकि फिर भी कानून जागेगा तो अपना करेगा और शुरू भी कर दिया है। शायद याद हो मुख्यमंत्री ने चेताया था कि बिल्डरों से अफसर रिश्तेदारी न निभाएं। इसी रिश्तेदारी ने सुशांत गोल्फ सिटी को अंसल को न सिर्फ घोटाला एक्सप्रेस बना दिया, बल्कि भगोड़े राशिद के 64000 करोड़ के घोटाले के बाद लखनऊ के माथे पर एक और कलंक भी लगा दिया। इसको आजम खां भी समझा जा सकता है, जो सत्ता की रौ में आकर आजीवन कुलाधिपति बने रहने की गरज से बिना डकार लिए ही जमीनें डकारते गए और अब लोग रिपोर्ट गिनते-गिनते थके जा रहे हैं। एक से एक छिपे रुस्तम निकल कर आ रहे हैं रिपोर्ट कराने। कुल मिलाकर इतना समझ लीजिए कि राजनेता और नौकरशाही के दो नंबर के भ्रष्ट कदाचार (मिलन) के बाद जो मलाई निकलती है, वह है अंसल एपीआई।

यानी कि सुशांत गोल्फ सिटी योजना और जब इसमें दागी बिल्डर सोहर गाने आते हैं तो उन्हें न्योछावर देने का काम करने के लिए प्रकट होते हैं न्याय के मंदिरों के पुजारी। इस षड्यंत्र में शासन से लेकर आवास विकास परिषद और एलडीए के तमाम अफसर शामिल थे और हल्के से समझते हैं। इस टाउनशिप में प्रभावशाली शख्सियतों ने बेहिसाब काली कमाई का निवेश किया है। इनमें नेताओं, अधिकारियों, इंजीनियरों के साथ जज भी शामिल हैं। हाईकोर्ट के ऐसे पूर्व जज का भी करोड़ों का आशियाना है, जिनके खिलाफ सीबीआई आय से अधिक संपत्ति मामले की जांच कर रही है।

खास बात ये है कि कई रसूखदारों ने कई जमीनों पर कब्जा कर रखा है। फेहरिस्त में कई जज भी हैं, जिनके बारे में शासन से लेकर एलडीए के अधिकारियों को भी सब पता है, पर हमाम में तो सभी नंगे हैं, लिहाजा चुप हैं। ऐसे में लाख टके का सवाल उठता है कि कोई 10-20 बीघा पुदीने के चक्कर में गांव जिंदगी क्यों गर्क करे, जब लखनऊ में पैसा उड़ रहा है तो थोड़े दिनों की यहां की मुफलिसी बेहतर? ज्ञात हो कि इस कफन में जेब सिलवा चुके इस जज का भगोड़े राशिद नसीम के शाइन सिटी से भी गहरा नाता रहा है। दो साल पहले सीबीआई ने हाईकोर्ट के एक पूर्व जज के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति मामले में केस दर्ज किया था, जिन्होंने कई संस्थानों के जरिये काली कमाई को खूब सफेद किया है। पूर्व जज से जुड़ी तमाम बेनामी संपत्तियों के दस्तावेज भी सीबीआई ने बरामद किए हैं।

शाइन सिटी जैसी ठग कंपनियों से भी इस दागी पूर्व जज ने संपत्तियों की खरीद-फरोख्त की है। इस जज के पास टाउनशिप में पाम विला में करोड़ों का आलीशान मकान है। सिर्फ इसी पूर्व जज को अंसल की घोटाला टाउनशिप नहीं लुभाई है, बल्कि कई और भी न्याय की मूर्ति हैं। एक प्रभावशाली शख्सियत ऐसी भी है, जिसने कई बीघे जमीन कब्जे में कर रखी है। खास बात ये है कि अंसल भी इस जमीन को बेच चुका है, जबकि यह अजीम नहीं, बल्कि अजीब शख्सियत बार-बार अंसल के खिलाफ एलडीए अधिकारियों को अर्दब में ले रही हैं। कंसोर्टियम के जरिये एससी की हजारों करोड़ की जमीनों को खरीदने वाले पूंजीपतियों ने भी टाउनशिप को चौपट करने में अहम भूमिका निभाई है।

इनमें कई आईएएस, आईपीएस समेत बड़े नौकरशाह शामिल हैं, जिन्होंने सीधे किसानों से खरीद फरोख्त की है। दूसरी ओर, अंसल ने जिन कीमती भूखंडों को बैंकों के पास गिरवी रखकर सैकड़ों करोड़ का लोन विभिन्न बैंकों से लिया था। उन्हें भी बेचे जाने की खबर है। मामूली अंसल को ब्रांड अंसल बनाने वाला लखनऊ ही है। यहां से पैसा बटोर कर कई राज्यों में रायता फैलाया गया। यह पूरा खेल डेलीगेटेड पॉवर का, जो कि डेलीगेट नहीं की जाती है, पर की गई। अपने नाम पर जमीन सरकार से ली गई, फिर बड़े-बड़े बिल्डर को डेवलप करने के लिए दी गई, जिन्होंने भट्ठा बैठा दिया क्योंकि इनमें से कई तो पहले ही दो नंबर के काम में जेल यात्रा कर चुके थे।

बिल्डरों ने अरबों की काली कमाई को अंसल में जमीनों के जरिये खूब सफेद किया है। जमीनों की खरीद-फरोख्त में बड़े पैमाने पर शेल कंपनियों का भी इस्तेमाल हुआ। इसके बावजूद ईडी के अफसर मनी लांड्रिंग की जांच में हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। इन बिल्डरों के साथ हुए एमओयू और रजिस्ट्रियों की जांच कराने से गहरे राज सामने आ सकते हैं। दागी बिल्डर ने एक मंजिल बनाकर पैसा बटोरा सैकड़ों से और बिना कब्जा दिए ही चलते बने। कई बार लोगों ने पकड़ा और बात की तो हर बार बात करने पर चुटकियों में कीमत 10-पांच लाख बढ़ा दिया करते थे, जिस पर आवंटी कहते कि एग्रीमेंट इतने का है और इतने समय में, पर उनकी कोई सुनता नहीं था और ज्यादा दबाव की दशा में मूल रकम वापस लेने को कहते थे, जिस पर आवंदी तैयार नहीं होते थे।

बुकिंग लेते रहे और पजेशन कभी दिया नहीं। इसे लेकर बात बढ़ती चली गई और यहां तक पहुंच गई। बायोटेक पार्क, टेनिस अकादमी, स्टेडियम समेत पब्लिक यूटीलिटी से जुड़ी जमीनों में सैकड़ों करोड़ का घोटाला छुपा है। दागी बिल्डरों में पहला नाम जेल की सैर कर चुके वेल्थ मंत्रा के एमडी संजीव अग्रवाल का है। अग्रवाल को बायोटेक पार्क की कीमती जमीनें बेची गईं। तकरीबन सात से आठ टावर दागी बिल्डर के बताए जा रहे हैं। लूलू मॉल के पास वेल्थ इंपीरियो के नाम से कई बीघे जमीन अग्रवाल के पास है। संजीव ने जनता से शेयर बाजार, प्लॉट व फ्लैट के नाम पर बेहिसाब ठगी की। याद होगा शाहजहांपुर पुलिस ने इसे विभूतिखंड स्थित आवास से गिरफ्तार किया था। वह शेयर बाजार में उछाल आते ही रकम निकाल लेता था।

इसी ठगी के जरिये हासिल अरबों की काली कमाई का बड़ा निवेश अंसल की टाउनशिप में किया। अगला नंबर ईडी की गिरफ्त में चल रहे अनिल तुलसियानी का है। उक्त में से अधिकांश दागियों ने 200 करोड़ से ऊपर की जमीनों की खरीद-फरोख्त यहां की है। किसानों से भी लूट-खसोट करके फंड डायवर्ट किए हैं। अंसल में दागी बिल्डरों के सहारे पूर्वांचल के माफियाओं का भी कालाधन लगा बताया जाता है। कई सफेदपोश माननीय भी इसी रैकेट का हिस्सा हैं। रिषिता डेवलपर्स के मुखिया सुधीर अग्रवाल के पास भी अरबों की भूमि है। दिल्ली की कंपनी डीआरएम को बहुत जमीन दी गई है। संसारा होम्स के मालिक राहुल अग्रवाल के पास भी बेतहाशा जमीनें हैं।

लेवाना ग्रुप के मालिक पवन अग्रवाल और अंसल के पुराने सहयोगी श्री ग्रुप के मुखिया मनोज द्विवेदी, शरद केसरवानी, आनंद अग्रवाल समेत कई बिल्डर सुर्खियों में हैं। प्रदेश का नव धनाढ्य तकिया कलाम की तरह इस्तेमाल करता है कि हर चीज बिकाऊ है, बस उसकी एक कीमत होती है। यह गाली भी यूपी के कई अधिकारियों को खुद्दार नहीं बना पाई। आवास विकास परिषद (हाउसिंग बोर्ड) की अवध विहार योजना के सेक्टर सात-बी में स्थित बरौना ग्राम की जिस करोड़ों की जमीन को अंसल एपीआई ने फर्जी तरीके से कब्जे में करके निवेशकों को हवा में आवंटित कर ठगा था।

उस घोटाले पर एफआईआर कराने की बजाय अफसरों ने सुनियोजित तरीके से पूरी जमीन अंसल को समझौते के जरिये देने की पटकथा लिख डाली। सिर्फ आवास विभाग या एलडीए ही नहीं, बल्कि आवास एवं विकास परिषद ने भी दागी बिल्डर के ऊपर अरबों की दरियादिली दिखाई है। अखिलेश सरकार के दौरान अफसरों ने परिषद के स्वामित्व वाली बरौना गांव की बेशकीमती भूमि सुनियोजित तरीके से अंसल को कौड़ियों के भाव दे डाली थी। अंसल ने जो दो समाधान सुझाए थे, उनमे से एक पर सहमति दिखाते हुए जमीन के बदले अनुबंध किया था कि छोड़ी गई 75 एकड़ भूमि के बदले 46 करोड़ 57 लाख 57 हजार 940 रुपए की धनराशि अंसल द्वारा परिषद में जमा कराई जाएगी।

2019 में 13 करोड़ 16 लाख रुपये जमा कराने के बाद बिल्डर चुप्पी साध गया और अभी तक 25 फीसदी धनराशि भी नहीं जमा कराई है। फिर भी वसूली के लिए संपत्ति जब्ती जैसी कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है। बस, परिषद ने आरसी जारी करके वसूली की जिम्मेदारी जिला प्रशासन पर डालकर कर्तव्यों की इतिश्री कर ली थी। उप आवास आयुक्त हिमांशु कुमार ने 12 अप्रैल 2024 को लखनऊ के डीएम को पत्र भेजकर बकाया धनराशि की वसूली की मांग की थी। इसके मुताबिक 31 मार्च 24 तक 53 करोड़ 14 लाख 42 हजार 24 रुपए की रकम अंसल से वसूली जानी थी, जो कि एक अप्रैल के बाद साढ़े 13 फीसदी की दर से दंड ब्याज वसूलने के कारण और बढ़कर 55 करोड़ से ज्यादा हो चुकी है।

परिषद के तत्कालीन अधिशाषी अभियंता सुनील कुमार ने 31 जनवरी 2025 को उप आवास आयुक्त (भूमि) को भेजे पत्र में कहा है कि बरौना के खसरा संख्या-32 रकबा 0.4515 हे., खसरा-65 रकबा 0.3585 हे., खसरा-66 रकबा 0.2370 हे., खसरा-68 रकबा 0.1310 हे., खसरा-71 रकबा 0.8120 हे. व खसरा-86 रकबा 2.6505 हे. भूमि उप निबंधक सरोजनीनगर के कार्यालय में 2019 को रजिस्ट्रीकृत हुई थी। अंसल को 25 फीसदी एकमुश्त तथा बाकी 75 फीसदी धनराशि दो वर्ष की चार छमाही किश्तों में ब्याज सहित जमा करना था। इसके विपरीत नौकरी बचाए रखने के लिए करीब 10 वर्षों से “आओ! चिट्ठी-चिट्ठी खेलें” हो रहा है।

इसी के मद्देनजर कहा जा रहा है कि कहीं बंधक भूमि अंसल एपीआई ने बेच तो नहीं दी, क्योंकि अंसल एलडीए द्वारा बंधक की भूमि को बेचकर पहले ही 400 करोड़ की चपत लगा चुका है। दरअसल भूलेख संबंधी वेबसाइट बंधक खसरा संख्या 86 की भूमि 22 लोगों के नाम अंकित होना दिखा रही है अब। परिषद के उप आवास आयुक्त हिमांशु गुप्ता ने दावा किया कि अनुबंध की शर्तों के अधीन अंसल की बंधक जमीनों को नीलाम करके बकाये की वसूली की जाएगी। हालांकि इसकी प्रक्रिया भी तीन माह से लंबित है। बंधक जमीन अंसल के नाम है और अभी खाली है। एनसीएलटी के आदेश पर विधिक राय ली जाएगी और आरसी जिला प्रशासन से पिछले वर्ष ही जारी कराई जा चुकी है। बरौना के बदले जुर्माने का भी यही हाल है।

ज्ञात हो कि लखनऊ हाईकोर्ट ने 2013 में सरकार को अंसल और परिषद के बीच बरौना भूमि विवाद को दो माह में निपटाने का आदेश दिया था, लेकिन मोटा सरकारी वेतन डकार रहे लोगों का यही हाल रहा तो दो दशक भी लग सकते हैं। बिल्डर की पहली याचिका के जवाब में बरौना की जमीन देने संबंधी अंसल का आवेदन जांच के बाद शासन स्तर पर पहले ही खारिज हो चुका है।

अंसल ने बाद में पुनः हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसकी आड़ में परिषद का हित अधिकारियों ने अंसल के पास गिरवी रख दिया था। निस्तारण के नाम पर अफसरों को खरीदकर बरौना की भूमि आखिर अपने पाले में कराने में अंसल कामयाब रहा। 16 दिसंबर 2013 को तत्कालीन प्रमुख सचिव आवास सदाकांत शुक्ला ने जो आदेश जारी किया। उससे जनहित के नाम पर अंसल की जालसाजी का मौन नियमितीकरण हो गया। शासन ने बिना आपत्ति गेंद परिषद के पाले में जैसे ही डाली, वहां बैठे अफसर तत्काल अंसल के आगे लेटने में कतई लेट नहीं हुए। भले ही ऑफिस रोज कई-कई घंटे लेट आते हों।

अंसल के आवेदन पर आवास सचिव रहे राजीव अग्रवाल ने झटपट स्टूडियो में रिपोर्ट तैयार की, क्योंकि वीसी एलडीए का भी चार्ज था। तत्कालीन आवास आयुक्त एमकेएस सुंदरम, एलडीए के अधिशासी अभियंता ओपी मिश्रा, अपर आवास आयुक्त आरपी सिंह, वित्त नियंत्रक आवास विकास रंजन मिश्र के साथ कई तूफानी बैठकें कर मामले की इतिश्री की थी। प्रमुख सचिव आवास के आदेश में जिक्र था कि एलडीए के 25 मई 2006 के पत्र में टाउनशिप के दो मानचित्र परिषद को प्राप्त हुए, जिसमें बरौना से इतर 1765 एकड़ भूमि के नक्शे को मंजूरी मिली हुई थी।

अंसल के प्रत्यावेदन पर प्रस्तुत आख्या को टेंडर सहित प्लान को डीपीआर का लेआउट समझने की जान-बूझ कर त्रुटि की गई। परिषद ने बरौना ग्राम समेत पूरी अधिग्रहीत भूमि का गजट प्रकाशन सात अक्टूबर 2006 को किया था। ज्ञात हो कि अंसल ने एलडीए में बरौना की भूमि हड़पकर आस्था अपार्टमेंट के नाम पर अल्प आय वर्ग के भवनों का नक्शा स्वीकृति के लिए 27 जनवरी 2009 को प्रस्तुत किया।

एनसीएलटी के आदेश को एनसीएएलटी ने पलटा

अंसल को नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) ने दिवालिया घोषित कर दिया तो इसके खिलाफ आगे की रणनीति के लिए मार्च-25 में सैकड़ों पीड़ित खरीदार इकट्ठे हुए, जिनकी परेशानी को विधायक डॉ. राजेश्वर सिंह ने फिर से समझने की कोशिश की। कंपनी के ऑफिस पर ताले से पीड़ितों की संख्या 5000 के करीब बताई जाती है, जिनसे 10 लाख से एक करोड़ तक लेने के बाद भी उन्हें शाइन सिटी की तर्ज पर प्लॉट व मकान नहीं दिया गया था। इन निवेशकों के हित सुरक्षित रखने के लिए यूपी रेरा ने भी पहल की है। दिवालियापन समाधान प्रक्रिया (आईआरपी) को रेरा ने अंसल के खिलाफ जारी वसूली प्रमाण पत्रों और लंबित आदेशों की प्रतियां भेजी हैं।

यूपी रेरा के अध्यक्ष संजय भूसरेड्डी के मुताबिक आईबीसी कानून लागू होने के बाद ये पहला मामला है, जिसमें यूपी रेरा एनसीएलटी में अपील फाइल कर रहा है। चारों तरफ से शिकंजा कसते देख एनसीएलटी से खुद को दिवालिया घोषित कराने वाले अंसल की जांच गहराई से कराना जरूरी है। सूत्रों की मानें तो पिछले तीन माह में इस कंपनी ने देश भर में करीब 20 प्रोजेक्ट में सैकड़ों करोड़ संपत्तियां बेचकर जुटाए हैं। आखिर यह अरबों रुपया कहां गया? सहारा की तरह त्वरित कार्रवाई कर इसे अटैच क्यों नहीं किया गया? हास्यास्पद है कि एनसीएलटी ने महज 83 करोड़ के बकाये पर अंसल को दिवालिया घोषित कर दिया, जबकि उसकी है हैसियत इसके सौ गुना ज्यादा तक हो सकती है।

इस तरह बिल्डर के खिलाफ सारी कार्रवाई भी थम गई। मामले को डॉ. सिंह मुख्यमंत्री तक ले गए। इसी पत्र पर सीएम ने ऑर्डर किया, तब रिपोर्ट दर्ज हुई और उच्च स्तरीय जांच के आदेश किए थे। बीते माह फैसले के खिलाफ नेशनल कंपनी लॉ अपीलेट ट्रिब्यूनल (एनसीएलएटी) में अपील की गई और वकील की हैसियत से दलील पेश की, तब कहीं जाकर थोड़ी सी राहत पीड़ितों को मिली है। अंतरिम आदेश में सभी संबंधित प्राधिकरण को हस्तक्षेप की अनुमति दी गई है। अगली सुनवाई 20 को होगी, जिसमें सभी पक्ष अपने पक्ष में दावे प्रस्तुत करेंगे। बता दें कि अंसल की कॉरपोरेट इनसॉलवेंसी रेजोलुशन प्रोसेस 2022 से ही चल रही है। इसके अंतर्गत गुरुग्राम की फर्नहिल और ग्रेटर नोएडा की सेरेन रेजीडेंसी जैसे प्रोजेक्ट अलग-अलग समाधान प्रक्रिया से गुजर रहे हैं।

निवेशकों की कमाई डकारने वाले अंसल के प्रमोटर प्रणव एंड कंपनी पर अब मुकदमों की संख्या आजम खां को पार कर चुकी है। वह भी महज 135 करोड़ की धोखाधड़ी के मामले में, जबकि पूरी डकैती सौ गुना ज्यादा की बताई जा रही है। ये केस यूपी, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में दर्ज किए गए हैं। ईडी ने मनी लांडरिंग एक्ट के तहत कार्रवाई करते हुए देश भर में छापे मारे थे। ईडी का कहना है कि कंपनी ने निवेशकों को ऐसी परियोजनाओं में फंसाया था, जो कभी न पूरी हुईं और न ही पजेशन दिया गया। उनकी पत्नी शीतल मिगलानी, निदेशक दीपक ग्रोवर व अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के यहां छापे मारे गए थे। पति-पत्नी को ईडी ने जोनल दफ्तर पूछताछ के लिए बुलाया है। ज्ञात हो कि दिल्ली, लखनऊ व गाजियाबाद में एक साथ छापेमारी के दौरान 218 करोड़ की 62 बेनामी संपत्तियों का पता चला था और 174 कंपनियों के रकम को विदेश भेजने के भी प्रमाण मिले थे।

माया के बाद अखिलेश सरकार भी रही मेहरबान

परिषद की 29 मई 2006 को हुई 193वीं बैठक में टाउनशिप विकसित करने के लिए अंसल के पक्ष में धारा 28 के प्रस्ताव में शामिल भूमि में से 1765 एकड़ परिषद से छोड़े जाने का इस प्रतिबंध के साथ अनुमोदन दिया गया था कि सुल्तानपुर रोड से शहीद पथ के समानांतर उतरेठिया रेलवे लाइन तक न्यूनतम 100 मीटर चौड़ा मार्ग विकासकर्ता कंपनी अपने खर्चे पर बनाएगी, पर अंसल ने सिर्फ 45 मीटर चौड़ी सड़क बनाई। इससे करोड़ों का लाभ हुआ और अफसर उसकी चमचागिरी में जुटे रहे। सचिव आवास ने प्रत्यावेदन को 13 अक्टूबर 2011 को निरस्त कर दिया। बाद में 2013 में तत्कालीन सचिव आवास राजीव अग्रवाल ने दूसरे प्रत्यावेदन पर सौंपी रिपोर्ट में सकारात्मक टिप्पणी करते हुए गेंद आवास विकास के पाले में फेंकी, जहां मुस्करा कर उसका स्वागत किया गया।

तत्कालीन प्रमुख सचिव आवास सदाकांत ने लिखा कि एलडीए द्वारा बताया गया कि 22 मई 2006 को परिषद को प्राधिकरण द्वारा भेजी गई डीपीआर की प्रति उसके पास नहीं है तो फिर कहां गई और कौन जिम्मेदार है इसके लिए? परिषद की तरफ से बताया गया कि 1765 एकड़ क्षेत्रफल से संबंधित मानचित्र पर डीपीआर कमेटी की बैठक में सैद्धांतिक मंजूरी दी गई है, लेकिन एलडीए बोर्ड द्वारा डीपीआर मानचित्र के अनुमोदन का कोई अभिलेख परिषद में मौजूद नहीं है। प्रदेश के जो भी ईमानदार अधिकारी अंसल की कारस्तानी समझ चुके थे, उन्होंने पास फटकने तक नहीं दिया इसीलिए ऐसे अधिकारियों की बदली करवा कर वह अपने मन के अफसर बैठाना पसंद करता था।

व्यावसायिक स्टोर का भू-उपयोग नियम विपरीत आवासीय कराने का एक बार अंसल ने खाका खींचा। ईमानदार अफसरों में शुमार देवेश चतुर्वेदी मंडलायुक्त थे, पर देवेश ने दो दिनों के भीतर ही तत्त्कालीन मुख्य सचिव जावेद उस्मानी से मिलकर कार्यभार ग्रहण करने से मना कर दिया। तत्त्कालीन एलडीए वीसी राजीव अग्रवाल की मंशा फिर अधूरी रह गई। शासन ने देवेश चतुर्वेदी को वापस प्रयागराज मंडलायुक्त के पद पर बरकरार रखा। इसके बाद संजीव सरन को बनाना पड़ा था मंडलायुक्त। इसके बाद अंसल की राह और भी निष्कंटक होती चली गई।

तकरीबन 12 वर्ष पहले एलडीए के तत्कालीन वीसी राजीव अग्रवाल के कार्यकाल में बोर्ड बैठकों के जरिये अंसल एपीआई को सैकड़ों करोड़ का लाभ पहुंचाया गया। बैठक के जरिए अंसल के घोटालों का नियमितीकरण करने से तत्कालीन बेहद ईमानदार मंडलायुक्त संजीव दुबे ने साफतौर पर मनाकर दिया। दुबे ने अपने रुख को सरकार और शासन के शिखर पर बैठे कर्णधारों तक पहुंचा दिया था। इसके बाद वही हुआ, जिसका अंदेशा था। उनकी मंडलायुक्त के पद से झट विदाई करा दी गई। इसी बैठक में कई वर्षों से बिना भू-उपयोग संचालित हो रहे विदेशी स्टोर वालमार्ट का भी नियमितीकरण होना था।

दुबे लगातार एलडीए की बोर्ड बैठक को टाल रहे थे। बसपा सरकार के दौरान हुए कई घोटालों से घिरे इंजीनियरों को हाईटेक इंटीग्रेटेड टाउनशिप का जिम्मा सौंपा गया था। रिटायर इं. ओपी मिश्रा और आरके शुक्ला से लेकर तत्कालीन संयुक्त निदेशक भूमि अर्जन एसबी मिश्रा का नाम इनमें प्रमुख है।

रिटायर आईएएस बने अंसल के लॉयजनर

अपने देश में रिटायरमेंट के बाद कोई भी काम करने की पूरी आजादी है, लेकिन जब एक आईएएस या पीसीएस रिटायर होकर मोटी पगार पर कोई निजी फर्म या कंपनी ज्वॉइन करता है तो इसका सीधा सा अर्थ लॉयजनिंग ही होता है। उसकी नियुक्ति ही शासन में लॉयजनिंग के लिए लॉयजनिंग अफसर के तौर पर होती है। ऐसा ही एक मामला पकड़ में बीते साल आया था, जब एक अधिकारी को शासन में नोएडा व ग्रेटर नोएडा की दो बहुराष्ट्रीय कंपनी के लिए बैटिंग करते हुए पाया गया था। अंसल के मामले में भी यही हुआ। आउटर रिंग रोड को डकारने की फूलप्रूफ प्लानिंग अंसल के अधिशाषी निदेशक रमेश यादव (पूर्व आईएएस) ने तैयार की थी।

अंसल टाउनशिप घोटाले की कलंक कथा लिखने वाले अफसर और नेता अभी तक सेफ जोन में हैं। हालांकि चंद ऐसे भी नौकरशाह रहे, जिन्होंने सत्ता के दबाव के बावजूद इस बिल्डर के आगे घुटने टेकने से साफ इंकार कर किया। इसका अंजाम तकरीबन दो से तीन हजार करोड़ के घोटाले के रूप में नजर आया, जिसकी जांच के आदेश खुद हाईकोर्ट ने दो साल पहले दिए थे। इस घोटाले की इबारत लिखने के लिए दागी बिल्डर ने मानो पूरा आवास विभाग ही खरीद लिया था। हाईटेक टाउनशिप में सिंचाई विभाग की नहर की जमीन पर अंसल ने पूंजीपतियों के लिए बड़े-बड़े भूखंड, विला सृजित करने का खाका खींचा था। नहर को पाटने के बाद शुरू हुआ घोटालों को नियमितीकरण कराने का सिलसिला ।

आकाओं के जरिये अंसल ने इन भूखंडों का नक्शा स्वीकृत कराने के लिए एलडीए में पूर्व आईएएस रमेश यादव और पूर्व पीसीएस पीएन मिश्रा जैसे दलालों से पैरवी शुरू कराई। अंसल के लिए बसपा द्वारा बिछाई गई रेड कार्पेट सपा ने हटाना ठीक नहीं समझा था। अखिलेश सरकार ने प्रदेश के बजाय अंसल के हितों को शीर्ष पर रखा था। शिफ्टिंग से रिंग रोड की जमीन का लाभ बिल्डर को हुआ। इसकी पुष्टि मास्टर प्लान 2021 से की जा सकती है। 2006 के बाद अंसल ने जब 1765 एकड़ में टाउनशिप का निर्माण शुरू किया, तभी से रिंग रोड नजरों में खटक रही थी। अंसल के पैरोकारों ने इसको हटाने के लिए घोड़े खोल दिए। प्रस्तावित रिंग रोड की जमीन पर अंसल ने गोल्फ कोर्स समेत कई निर्माण पहले करा लिए थे।

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