लॉगआउट : सोशल मीडिया एल्गोरिदम पर आधारित

मुंबई। लॉगआउट, प्रत्यूष दुआ की कहानी है। प्रत्‍यूष यंग है। सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर है। उसकी जिंदगी उसके स्‍मार्टफोन से जुड़ी है। लेकिन एक दिन उसका यह फोन चोरी हो जाता है। चीजें प्रत्‍यूष के कंट्रोल से बाहर जाने लगती हैं। उसकी डिजिटल पहचान को हाईजैक किया जाता है। यह फिल्म ऑनलाइन पॉपुलैरिटी और निजी जिंदगी की उथल-पुथल के बीच की बारीक रेखा को दिखाती है।

हम सभी आज एक ऐसे युग में हैं, जहां हमारे जीवन को हमारी डिज‍िटल स्क्रीन से अलग करना मुश्‍क‍िल है। ‘लॉगआउट’ इसी को आधार बनाकर बनाई गई फिल्‍म है। लिहाजा, आज के दौर में इससे अध‍िक प्रासंगिक और कुछ नहीं हो सकता। फोन चोरी होने के बाद प्रत्‍यूष दुआ (बाबिल खान) की जिंदगी बिखरने लगती है। यह फिल्‍म हमें यह भी दिखाती है कि ऑनलाइन पॉपुलैरिटी कितनी सतही है, मसलन चंद लाइक्‍स और शेयर के फेर में यंग जेनरेशन किस तरह एक इमोशनल बैगेज यानी भावनात्मक बोझ के डर में गोता लगाती है।

डायरेक्‍टर अमित गोलानी ने फिल्‍म के शुरुआती सीन में ही माहौल को अच्छी तरह से सेट कर दिया है। शुरुआत तेज, व्यावहारिक और अच्छी तरह से बुनी गई है, जो इन्फ्लुएंसर क्‍लचर की रफ्तार और उन्‍माद दोनों को पकड़ती है। प्रत्यूष के लेंस के जरिए दर्शकों को वायरल बने रहने के मनोवैज्ञानिक दबाव की झलक मिलती है। सोशल मीडिया एल्गोरिदम, दर्शकों की उम्मीदें और स्क्रीन के बीच हमेशा धुंधली होती रेखा को संभालना कितना मुश्‍क‍िल है, हम इसे ना सिर्फ देखते हैं, बल्‍क‍ि महसूस भी करते हैं।

फिल्‍म में सपोर्टिंग कैरेक्‍टर्स में गहराई की कमी सबसे अध‍िक खलती है और इस कारण प्‍लॉट सहती लगने लगता है। इस कारण कहानी का वह भाव खत्म हो जाता है, जिसकी उम्मीद यह शुरुआत में जगाती है। बहरहाल, इन सब के बीच बाबिल खान अपने किरदार में जमते हैं। उनका प्रदर्शन ईमानदार, संयमित और आकर्षक है। उनके क्राफ्ट में एक कच्चापन है जो उनके दिवंगत पिता इरफान की विरासत है, फिर भी वो अपनी कला में खुद का एक अंदाज लेकर आते हैं। बाब‍िल के किरदार में एक ईमानदारी है, जो स्क्रिप्ट की कमियों को दूर करती है। हालांकि फ‍िल्म में उन्हें काम करने के लिए बहुत कुछ नहीं दिया गया है, फिर भी बाबिल को जो कुछ भी मिला है, उन्‍होंने उसका पूरा फायदा उठाया है।

लॉगआउट’ एक ऐसी फ‍िल्म है जो समकालीन मुद्दों की नब्ज पर अपनी उंगली तो रखती है, लेकिन स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ पाती। फिल्‍म में स्पष्टता की कमी है। भावनात्मक गहराई का अभाव है। यह आज के दौरान हम सभी की डिजिटल निर्भरता के खतरों पर एक तनाव से भरी चेतावनी देने वाली फिल्‍म हो सकती थी, लेकिन गहराई की कमी के कारण यह ऐसी लगती है, जैसे मेकर्स एक अच्‍छा मौका चूक गए।

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