
अंबर असीम है, भला उसकी सीमा क्या हो सकती है और आम आदमी के बस की बात कहां है उसकी सोच विस्तार के बारे में सोच पाना? सड़ी-गली धार्मिक व दकियानूसी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ जब एक महिला ने खड़े होने का फैसला किया तो एक बार ऐसा लगा, जैसे- पूरा जमाना ही खिलाफ हो गया है, पर पत्रकारिता, समाजसेवा व बड़े समाज की बड़ी सोच का सहारा मिला। राजधानी में लंबे कालखंड तक मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले बगावती तेवर का नाम है शाइस्ता अंबर, जिनकी कोई सीमा नहीं है। थाने से लेकर कचहरी, संतरी से लेकर मंत्री, एसपी से लेकर डीएम और सीएम से लेकर पीएम तक कहीं भी मिल जाती हैं तो हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक भी।
बात हो रही है ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष की। आईआईएम के पास स्थित दृष्टांत न्यूज के स्टूडियो आई अंबर ने लंबी गुफ्तगू में कई अहम विषयों पर पूरी बेबाकी से बैखौफ होकर राय रखी। बिना डरे व बिना झुके बराबरी की आवाज उठाने के लिए व मौका देने के लिए दृष्टांत मीडिया हाउस को बहुत-बहुत धन्यवाद। शुक्रगुजार व भाग्यशाली हूं अपनी बात रखने का मौका देने के लिए। हमेशा से समाज के ठेकेदारों से जुदा सोच के सवाल पर वह कहती हैं कि जो मुस्लिम बेटियां गरीबी में जी रही हैं, वे शिक्षित हों। समाज की जो कुरीतियां उन्हें दबा रही हैं, उनसे मुक्त कराया जाए। तीन तलाक के खिलाफ बड़ी लड़ाई लड़ी और सुप्रीम कोर्ट तक गईं।
उन्होंने एक बार में तीन तलाक के सवाल पर कहा कि फोन, मैसेज व वॉट्सएप से तलाक गैर शरई है। इन तरीकों से तलाक देने वालों व एकपक्षीय तलाक कराने वालों के खिलाफ कार्रवाई के लिए ही मुस्लिम मैरिज एक्ट का बनना जरूरी है, पर कुरान की रोशनी में। तलाक के बाद महिलाओं को दर-दर ठोकरें खानी पड़ती हैं। शरीयत के मुताबिक वक्फ बोर्ड तलाकशुदा महिलाओं के लिए बैत-उल-माल कोष की व्यवस्था करे। शरई अदालत दारुलकजा में पुरुष काजी के साथ महिला काजी की भी नियुक्ति हो ताकि पीड़ित महिलाएं पक्ष रखने में घबराएं नहीं। इस तरह से दारुलकजा में केवल पुरुषों का पक्ष सुनकर तलाक पर मुहर लगाने की साजिश रोकी जा सकेगी। परेशान औरतों को लेकर कमोबेश सभी नेताओं के जनता दर्शन में गई हूं। मजलूमों, मजदूरों, मजबूरों व किसानों को लेकर सड़क से लेकर सचिवालय तक लड़ती रही। किसानों की लड़ाई में गई तो लाठियां भी खाई।
घरेलू हिंसा व बलात्कार की शिकार महिला के लिए मजिस्ट्रेट को मांग पत्र देने गई तो एक पत्रकार ने उल्टा सवाल कर दिया व कहा कि आपके समाज में भी तो बलात्कार, तलाक, बहु विवाह और हलाला तक होता है। उसके खिलाफ आवाज क्यों नहीं बुलंद करतीं? उस बिंदु को भी उठाइए। इसके बाद काम करने की दिशा बदल गई, क्योंकि यह बात तीखी मिर्च से ज्यादा तीखी थी। जरूरत हुई तो तलाक पीड़ित महिलाओं को लेकर थाना, आयोग, डीजीपी व मुख्यमंत्री कार्यालय भी बेझिझक पहुंची। इस तरह धीरे धीरे घरेलू जिम्मेदारियों के साथ सड़क से भी रिश्तेदारी हो गई। इस्लाम कहता है कि “अल अम्र बी अल मारूफ वल नाही ऐनल मुनकर” यानी कि सम्मानजनक कार्य ही किए जाएं और गलत व अपमानजनक कार्य करने से रोका जाए।
कुरान में नौ बार यह वाक्य आया है, जो मुस्लिमों के सामूहिक कर्तव्यों को दर्शाता है कि वे क्या करें और क्या न करें। कुशल व्यवहार को यह प्रोत्साहित करता है तो अनैतिकता को हतोत्साहित। कुरान की रौशनी में जब उपरोक्त निर्देश मिले हुए हैं तो फिर भारतीय मुस्लिम समाज औरतों के साथ इंसाफ क्यों नहीं कर पा रहा है सदियों से? बाप की नीयत बेटी पर क्यों खराब हो जा रही है? क्यों वह गलत काम कर रहा है उसके साथ? क्यों नशे में, एसएमएस से और ई-मेल से तीन तलाक दे रहा है? कुरान की रौशनी पर क्या पर्दा डालने का काम कर रहा है मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, पर कहा कि बोर्ड तलाक की लड़ाई नहीं लड़ सकता, लड़ेगा ही नहीं क्योंकि उसे कानून अपने हक में चाहिए। कभी तीन तलाक एक बार में नहीं बोलना चाहिए।
दरअसल यह तीन बार बोलने की व्यवस्था न होकर कायदे से तीन चरणों की व्यवस्था है। गुस्सा, पछतावा और समाधान। पहले दोनों को तीन महीना सोचने का वक्त दिया जाए। साफ है कि जब कोई रास्ता ही न बचे तो तीसरे माह में ही तीसरी बार तलाक बोला जाए। गलती औरत की भी हो सकती है। उसे सजा के पहले जरा समय दें, मनमानी न करें। बीवी अगर बीमार है या किसी वजह से कुछ अनमनी है तो उससे भी भूल हो सकती है। देश के करोड़ों घरों में रोज पति-पत्नी में कुछ न कुछ होता है, लेकिन ऐसा तो नहीं है कि सुलह व समाधान नहीं होता है। कहते हैं कि जहां दो लोग होते हैं थोड़ी-बहुत खटपट तो चलती रहती है। एक घर में दो महिलाएं हैं, एक पत्नी और दूसरी बहन। घर चलाने व बच्चे पालने वाली पत्नी को झगड़े के बाद इतनी कठोर सजा क्यों, जबकि बहन की गलतियों को माफ कर देते हैं?
घर के बड़े-बुजुर्ग आते हैं एवं माफी मंगवा कर बात रफा-दफा कर देते हैं। यही तरीका पत्नी के मामले में अप्लाई न करना ही दोमुंहापन है। बड़े-बुजुर्ग दोनों को सुनें और समझौता कराएं और बात न बने तभी तीसरे माह तीसरी बार तलाक बोला जाए। इससे हलाला जैसी कुरीति से बचा जा सकता है। हलाला तो बलात्कार है इसलिए पाबंदी लगे। साथ ही दूसरी व तीसरी शादी पर भी पूर्ण प्रतिबंध लगे। एक लड़की से निकाह किया, मन भर गया तो दूसरी से कर लिया। अनबन हो या न हो, तीसरी व चौथी ले आए। औरत कोई वस्तु नहीं है। हक-हुकूक तभी शोभा देते हैं, जब इंसानियत के फर्ज भी पूरे किए जाएं। यह दोनों पर लागू होता है। शरीयत कानून का पालन न करने वाले को सजा मिले। यह कौन सा कानून है कि गलती पुरुष करे और सजा औरत भुगते? पाकिस्तान व मिश्र सहित दुनिया के दर्जन भर मुस्लिम देशों में तीन तलाक की व्यवस्था नहीं है। लाखों बार देखा गया है कि कोई रास्ता न देख अंतिम विकल्प के तहत महिलाओं ने घर वापसी की है तो हलाला जैसी कठोर यातना से गुजरना पड़ा है।
सभ्य समाज होने का दावा करने वाले समझें, यह अमानवीय व असामाजिक है। मीठा-मीठा गुप और कड़वा कड़वा थू। यह सब हरगिज नहीं चलेगा। यह कुरान और शरीयत के हिसाब से भी गलत है। उसे पहले मर्द लोग समझें। उसकी डेफिनिशन समझें। तीन तलाक को लेकर सुप्रीम कोर्ट गई तो लोगों ने रोकने की कोशिश की थी क्या, के जवाब में कहा कि बिल्कुल। उनके लिए पर्सनल लॉ बोर्ड का फतवा ही सब कुछ था। लड़की को तलाक करके सड़क पर फेंक दिया। अब कहां जाए वह? मौलाना बोले कि तीन तलाक रुकने वाला नहीं, इस पर जवाब दिया था कि आप इस्लाम के ठेकेदार नहीं हो। कुरान में इंसानियत की बात है तो वही होगा, जो जायज होगा।
नबी पाक ने फरमाया है कि अगर इमाम या खलीफा भी गलत कर रहा है तो उसके खिलाफ आवाज उठाओ, अगर ताकत बराबर की न हो तो समाज में बात करो और कुछ नहीं कर सकते तो चुप रहो, लेकिन अगर मस्जिद में इमाम गलत बोल रहा है तो कोई नमाजी उठकर उसका कत्ल भी कर सकता है। मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड जब बनाने चलीं तो मुश्किलें आई होंगी, के सवाल पर कहा कि लॉ बोर्ड तो सिर्फ मर्दों की बात करता है तो फिर महिलाओं के हक और हुकूक की बात कौन करेगा? यही वजह थी कि उन्होंने ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड बना डाला और उसकी अध्यक्ष बनीं।
मुस्लिम महिला अधिकारों को दिलाने के लिए अग्रणी व रूढ़ि की बेड़ियों को चुनौती देने वाली और महिलाओं के लिए बनी दीवारों को तोड़ने वाली अंबर समय-समय पर शरीयत और कॉमन सिविल कोड पर भी विचार रखती रही हैं। उस लड़ाई में चंद लोग कुछ पैसे देना चाहते थे, पर साथ खड़े होने से डरते थे और दूरी बनाकर रखते थे। उनके पास पैसा था और हम साधनहीन। उनके वकील बड़े थे, पर मीडिया व कोर्ट ईमानदारी से साथ था। उन्हें बहुत-बुहत धन्यवाद व सलाम। चाहे किसी ने दो ही लाइन लिखी हो, जो दिखाई ना दे रही हों, लेकिन इंसाफ की लड़ाई में दो लाइन भी बहुत हैं। इन विषयों को लेकर जब बगावत कर रही थीं तो घरवालों ने समझाने की कोशिश की होगी, के सवाल पर कहा कि शौहर ने कई बार समझाया कि लड़ाई लड़ो, पर शांतिपूर्वक। सदियों से मौलाना की चलती रही है, लोग उन्हें ही सम्मान देंगे। वैलिड मानेंगे। तुम्हें न तो लोग सुनेंगे और न मान्यता देंगे, तब जवाब दिया था कि एक हाथ में कुरान है और दूसरे में संविधान।

दोनों में अधिकार के साथ कर्तव्य की बात है। सुप्रीम कोर्ट में भी कुरान की आयत को संविधान के आर्टिकल से जोड़ा गया तब कहीं जाकर कामयाबी मिली। संविधान और उसकी रोशनी में बनाए गए कानून कहते हैं कि पति-पत्नी दोनों की पहले बात सुनी जाए, उनको मौका दो और अगर बच्चों की परवरिश व फ्यूचर के लिए एक हो जाते हैं तो बेहतर है। मौलानाओं की आंखों का शूल बनने के बाद तो धमकी मिलती होंगी, के सवाल पर कहा कि पति ने कहा था कि तुम्हें मार दिया जाएगा। जवाब यही था कि कर्बला की लड़ाई में हजरत इमाम ने हजारों की जुल्मी भीड़ के सामने 72 साथियों के साथ शहादत दी थी, लेकिन झुके नहीं थे और रुके नहीं थे, क्योंकि वह सच और ईमान के रास्ते पर खड़े थे। चाहे पाक हो, चाहे रामचरितमानस हो या श्रीमद्भागवत गीता, सबने कहा है कि अगर सत्य के लिए लड़ना हो तो फिर सामने भले ही सगा हो, पर फर्ज से डिगो नहीं।
सभी मौलाना गलत नहीं थे। किसी व्यक्ति या संस्था से निजी लड़ाई नहीं है, हर आवाज हर लम्हा गलत विचारों व कुरीतियों के खिलाफ था। किसी का नाम लेने से क्या फायदा, लेकिन एक मौलाना ने कहा था कि सुपारी देकर मरवा दूंगा? जवाब यही था कि जिसने जान दी है, जब उसका मन होगा, तभी जाएगी। लाल गोपालगंज में कार में जोरदार टक्कर मारी गई, काफी देर बेहोश रहे, पर जान बच गई थी। कोई चारों टायर पंक्चर कर देता था। एक बार सभा में बुलाकर बेहूदे सवाल किए गए। चरित्र पर लांछन लगाया गया, पर विचारों की हत्या करने का किसी को मौका नहीं दिया क्योंकि लड़ाई सिद्धांतों के लिए थी। महिलाओं के हक व वैचारिक लड़ाई लड़ते-लड़ते कभी अंबर के दिमाग में विचार नहीं आया कि राजनीति की धुरी बनना चाहिए, के जवाब में कहा कि सब यही समझते थे। हम तो सभी सियासी दलों के नेताओं से मिलते रहे हैं मजलूमों के काम के लिए। सबने बहुत इज्जत दी। मरहूम नेता जी हमेशा बाजी कहते थे।
आपका व्यक्तित्व ऐसा है कि लोग कहते हैं कि उंगली पकड़ कर लोग सांसद बन गए और आप वहीं के वहीं, पर कहा कि किसी का नाम नहीं लेंगे, पर आगे बढ़ने के बाद बिरले ही पीछे वालों को याद करते हैं। क्या आपको नहीं लगता कि जीतने के लिए आपके औरे का इस्तेमाल किया गया, के जवाब में बड़ी ही मासूमियत से कहा कि नहीं कह सकती। सत्ता में व्यस्त हो जाते हैं लोग। कश्ती में कई लोग सवार होते हैं और सबका मालिक परमेश्वर होता है, सब उसी के रहम-ओ-करम पर हैं। सब उसी की कृपा के मोहताज हैं। हम एक-दूसरे के मोहताज नहीं हैं, वह अपने पैरों पर खड़े हैं और हम अपने। आप और ऊंचाई पर जा सकती थीं, पर जाना गुनासिब नहीं समझा। क्या इस बात का बच्चों को मलाल है, क्या कभी शिकायत की, पर कहा कि ऐसा कभी नहीं हुआ। हमेशा कोशिश की कर्तव्य पूरे करने की। बच्चों को पूरा समय दिया। बचे हुए समय में आराम के बजाय गरीबों के लिए काम करती थी।
चाहती तो शॉपिंग करती, ब्यूटी पॉर्लर व बड़े-बड़े लेडीज क्लब जाती। अफसर की बीवी होते हुए कभी ऑफिसर क्लब नहीं गई। शायर पति की कोई नज्म हो जाए, पर तरन्नुम में पढ़ा कि “परियों की कहानी क्यों सुनाते हो इन्हें, यह तो मजदूर बच्चे हैं, आदतन सो जाएंगे?” मतलब बड़े लोगों के बच्चे जो भी मांगेंगे, वे खिलौने आ जाएंगे, कपड़े आ जाएंगे, अच्छा खा लेंगे, होटलों में रहेंगे और बड़ी से बड़ी जगह घूमेंगे। इसके विपरीत गरीब के बच्चे बिना लोरी के ही सो जाएंगे। फक्र है भारतीय मुस्लिम महिला होने पर, जिसे संविधान ने ताकत बख्शी आवाज उठाने की और गंगा-जमुना वाली तहजीब की सेवा करने की। एक ऐसा देश, जहां आपसी सौहार्द्र की सांझी संस्कृति बसती है।
दुनिया में एक भारत ही तो है, जहां औरतों को इतनी आजादी है। उनकी योग्यता की इज्जत होती है। अब वह उत्तर प्रदेश की सरकारी योजनाओं का लाभ असली जरूरतमंदों तक पहुंचाना चाहती हैं। हर प्रश्न का बेबाकी से उत्तर दिया। समाज में जहां महिलाएं घरेलू काम निपटाने के बाद बाकी समय आराम या सजने-संवरने में लगा देती हैं, उतने ही समय में अंबर ने अंबर पर एक ऐसी लकीर खींच दी, जिससे आगे जाने के लिए और बड़ी लकीर खींचनी होगी, जो संभव नहीं दिखता है निकट भविष्य में।
मौलाना ने नमाज से रोका तो तामीर की मस्जिद
ऐसा व्यक्तित्व, जो लगातार कट्टरपंथियों व उनके मनमाने कानूनों से लड़ रहा था तो कई बार हमले किए गए। गाड़ी से एक्सीडेंट कराए गए। चरित्र हनन करने की कोशिश की गई, लेकिन फौलादी इरादे वाली इस महिला को कोई हिला नहीं पाया और न ही रोक पाया रोज आगे बढ़ रहे उनके कारवां को। उनके बड़े योगदानों को कभी मुस्लिम समाज और खासकर महिलाओं को जीवन भर नहीं भूलना चाहिए। शाइस्ता के शौहर जब नौकरी में आए और अक्सर तबादले होने लगे तो बच्चों के लिए वह लखनऊ में ही रहने लगीं। 1992 में बाबरी मस्जिद का मामला तूल पकड़े था। पति की अलीगढ़ में तैनाती थी। ईद के दिन वहां दंगा हो गया और वह त्योहार के दिन घर नहीं आ सके इसलिए शाइस्ता बच्चे को ईद की नमाज अता करवाने सबसे पास की तेलीबाग मस्जिद ले गईं। उन्हें देखते ही इमाम बरस पड़े और ऐसा सुलूक किया, जैसे किसी दूसरी दुनिया से आए हों हम। उन्होंने रौब में कहा कि क्यों आ गईं आप?
आपको पता नहीं मस्जिद के अंदर औरत का आना मना है। जाइए और दूर खड़ी रहिए। अगर चाहती तो औरत के साथ अभद्रता करने पर एक फोन कर पुलिस बुला लेती, लेकिन किसी की ईद खराब हो जाती इसलिए खून का घूंट पीकर चुप रह गई। पूरी बात शौहर को बताई और असमानता के खिलाफ आवाज उठाने की बात कही। प्रशासनिक अधिकारी होने का हवाला देते हुए बोले कि कहीं विवाद न पैदा हो जाए तो कहा कि धर्मशाला मस्जिद में इंसानियत की खिदमत होगी तो ऊपर वाला भी मदद करेगा। बिना भेदभाव महज 50 रुपए में गरीबों को सिर छिपाने की जगह मिलेगी, जिससे साफ-सफाई हुआ करेगी। संघर्ष के दिनों में खुद मिट्टी से लीपती थी। उन्हें बेटे को बिना नमाज पढ़ाए ही लौटना पड़ा था, लेकिन यह बात अंदर ही अंदर खाए जा रही थी। उनकी ईद खराब हो गई। उसी दिन ठान लिया था औरतों के लिए एक मस्जिद बनाने के लिए। उस दिन का अपमान आज मुस्लिम महिलाओं के लिए सम्मान का रास्ता बन गया।
उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष से मिलने की कोशिश की, पर पता चला कि वह महिलाओं से नहीं मिलते, लेकिन हार नहीं मानी और पत्र लिखकर मिलने की अपील की। इजाजत मिलने पर शौहर के साथ गई, मस्जिद बनवाने का प्रस्ताव रखा और मदद की गुजारिश की। अंबर मस्जिद बनवाने के लिए जेवर बेचकर जमीन खरीदी व 1997 में पीजीआई ट्रामा सेंटर के पास निर्माण शुरू हुआ। इलाके में कोई मस्जिद नहीं थी, जबकि हॉस्पिटल में भर्ती के दौरान त्योहार भी पड़ते तो तीमारदारों को बहुत दूर जाना पड़ता था, जिसमें बहुत वक्त जाया होता था। डॉक्टर व बहुत से कर्मियों के साथ भी यही दिक्कत थी। गरीब मरीजों के परिजन के पास गेस्ट हाउस या कमरा लेने के पैसे नहीं होते थे तो उन्हें मस्जिद में आश्रय मिल जाता है। यही कारण है कि शाइस्ता सारे मौलानाओं के आंखों की किरकरी बन गई।
मुस्लिम धर्म के सभी 70 फिरके इसमें नमाज पढ़ सकते हैं। यह बात मेन गेट पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखवा भी दी। आज सवा सौ से ज्यादा रोजेदार एक साथ रोजा खोलते हैं। उनकी इफ्तारी का पूरा इंतजाम वह खुद करती हैं। शाइरता को लोग आरएसएस की कठपुतली तक कहते थे। घर के पास माधव आश्रम है, वहां संघ प्रमुख आए तो लोगों ने मिलाया और मस्जिद के अनूठेपन का जिक्र किया, जिसकी उन्होंने भी तारीफ की थी। मेयर रहते हुए डॉ. एससी राय भी आए थे और दिनेश शर्मा भी। एक-एक पौधा भी लगाए थे, जो कि अब पेड़ बन चुके हैं। मस्जिद के दरवाजे हर यतीम व गरीब के लिए खुले हैं, चाहे वह किसी भी जाति व धर्म का हो। एक बार तलाक जैसी ही बुराई की शिकार एक मजलूम व बीमार मां अपने बेटे के साथ भटक रही थी। उसे एक पत्रकार मस्जिद में छोड़ गए। उसका ऑपरेशन कराया गया, जिसमें नमाजियों ने ब्लड दिया। उस मां का छोटा बच्चा किसी नमाजी की टोपी उतार लेता था तो किसी की लेकर भाग जाता था। वह दृश्य सोचकर आज भी आंखें नम हो जाती हैं।