
माता पार्वती जी के दूल्हे, भगवान शंकर का श्रृंगार बड़े उत्साह के साथ हो रहा था। देखा जाये, तो शिवगणों के हाथों में ऐसा क्या था, जो भगवान शंकर उनके समक्ष बुत से बने बैठे थे। भोलेनाथ मानों कह रहे हों, कि भले ही संपूर्ण सृष्टि का निर्माण एवं श्रृंगार मेरे द्वारा ही हुआ है। किंतु हमारा श्रृंगार भी कोई कर सकता है, यह हमें प्रथम बार देखने को मिल रहा है।
शिवगणों द्वारा जटायों का मुकुट सजा दिया गया था। कानों में सर्प कुण्डल भी डाल दिए गए थे। अब प्रभु के पावन तन पर मरघट की राख भी लगा दी गई थी। किंतु आज तक किसी ने भी नहीं सोचा था, कि विवाह के संस्कारों एवं रीतियों में हल्दी लेपन की जगह मरघट राख भी प्रयोग में लाई जा सकती है। श्मशान की राख को भगवान शंकर ने अपने तन पर क्यों लगाने दिया? वे क्यों नहीं बोले, कि विवाह के इस शुभ अवसर पर श्मशान की राख, तन पर लगाकर अपशगुन क्यों किया जा रहा है? वैसे वे बोलते भी क्यों? क्योंकि मरघट की राख अपने आप में इतने महान संदेश समेटे बैठी है, कि उन्होंने वह सब होने दिया, जो शिवगण करते गए।
शास्त्र में मरघट की राख को पवित्र कहा गया है। क्योंकि राख बनने की प्रक्रिया है ही कुछ ऐसी। प्रलय का विधान कहता है, कि यह संसार नश्वर है। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उसका अंत भी निर्धारित हो गया था। सब कुछ समाप्त होने के पश्चात केवल एक ही सत्ता का अस्तित्व बाकी रह जाता है। जिसे हम ईश्वर की संज्ञा देते हैं। श्मशान की राख भी कुछ ऐसी ही कहानी समेटे हुए है। कोई भी वस्तुयों का संग्रह जब अग्नि भेंट होता है। तो अग्नि उस प्रत्येक वस्तु को जला कर राख देती है, जिसका इस माया जगत से सीधा संबंध होता है। राख मानों पुकार-पुकार कर कहती है, कि देखो सब जल कर भस्म हो गया है, किंतु एक मैं ही हुँ, जो कि सब अंत होने के पश्चात भी बची हुँ। ठीक वैसे, जैसे महाप्रलय के पश्चात केवल ईश्वर बचते हैं। क्योंकि भगवान को भी पावन पवित्र कहा गया है, ठीक ऐसे ही भस्म को भी पवित्र कहा गया है। इसी कारण भगवान शंकर को जब शिवगणों ने भस्म लगाई, तो वे उसका आनंद लेते रहे। मानों कह रहे हों, कि अगर हमसे कोई लिपटना चाहता है, तो सर्वप्रथम अपनी समस्त मायावी ईच्छायों को भस्मीभूत करके, साक्षात भस्म होकर हमारे पास आयो। फिर देखो, हम आपको कैसे स्वयं से एकाकार करते हैं। भगवान शंकर कहना चाह रहे हैं, कि जैसे दिन से रात, जल से अग्नि एवं धरा से आस्माँ का कोई मिलन संभव नहीं, ठीक वैसे ही मुझ ईश्वर से माया का कैसा भी योग संगम संभव नहीं। एक बार इस त्रिगुणी माया को, ज्ञान रुपी कुण्ड में भस्म तो कीजिए, फिर देखिएगा, आप में, और हममें रत्ती भर भी अंतर नहीं होगा।
भगवान शंकर ने अपने तन पर भस्म इसीलिए भी लगाने दी, क्योंकि वे इस लीला से एक और सुंदर संदेश देना चाहते थे। तन पर भस्म लगाने का अर्थ यह, कि मानव का तन सदा रहने वाला नहीं है। यह निश्चित ही पानी के बुलबुले के मानिंद है। आँख झपकते ही कब फूट जाये, कुछ पता नहीं। बड़े-बड़े राजा महाराजा इस संसार में अहंकारवश पापाचार में लिप्त रहे। उन्हें लगता था, कि वे संसार में किसी के आधीन नहीं हैं। कोई उन्हें नहीं हरा सकता। रावण ने तो काल को ही बँधक बनाया हुआ था। किंतु सभी का भ्रम टूट गया। जब यमराज अपनी सवारी लेकर पहुँचता है, तो वह नहीं देखता, कि यह बच्चा है, जवान है अथवा कोई बूढ़ा। वह किसी को भी अपने रक्तमई पंजों से नोच डालता है। इसलिए कभी संसार की उपलपधियों का अहंकार नहीं करना चाहिए