हमारे समाज का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि हम आज अपनी बच्चियों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं और उन्हें कितना महत्व देते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, कानूनी सुरक्षा और सामाजिक सशक्तिकरण के माध्यम से बालिकाओं को सशक्त बनाना न केवल एक नैतिक दायित्व है बल्कि सामाजिक विकास के लिए एक जरूरी आवश्यकता भी है।
भारतीय समाज में लड़कियों के खिलाफ भेदभाव और असमानता एक गंभीर मुद्दा है, और यह राष्ट्रीय बालिका दिवस जैसे अवसरों पर चर्चा में लाना बेहद महत्वपूर्ण है। यह दिन हमें उन समस्याओं को समझने का मौका देता है, जिनका सामना लड़कियां अक्सर करती हैं, जैसे शिक्षा से वंचित रहना, यौन शोषण, हिंसा और समाज की रूढ़िवादी धारणाएँ जो उनकी स्वतंत्रता और विकास में रुकावट डालती हैं।
राष्ट्रीय बालिका दिवस का उद्देश्य लड़कियों को यह दिखाना है कि वे समाज में समान अवसर और अधिकारों की हकदार हैं। इस दिन के माध्यम से हम लड़कियों को सशक्त बनाने के साथ-साथ समाज में बदलाव लाने के लिए जागरूकता फैलाते हैं। इसके अलावा, शिक्षा, स्वास्थ्य, और पोषण के क्षेत्र में बेहतर अवसर प्रदान करना, लड़कियों के आत्मविश्वास और स्वतंत्रता को बढ़ावा देना एक मजबूत समाज बनाने के लिए आवश्यक है।
सरकार का उद्देश्य बालिका दिवस के माध्यम से बालिकाओं के साथ समान व्यवहार करने और उन्हें वे अवसर प्रदान करने की तत्काल आवश्यकता को व्यक्त करना है, जिनकी वे हकदार हैं। यह दिवस प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की शुरुआत की तिथि भी है। इसका लक्ष्य बालिका लिंग अनुपात में गिरावट के मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करना भी है। राष्ट्रीय बालिका दिवस 2025 की थीम ‘उज्ज्वल भविष्य के लिए लड़कियों को सशक्त बनाना’ है।
इसके लिये भारत में बालिकाओं के लिए कई सरकारी योजनाएं चल रही हैं। लेकिन कई प्रभावी सरकारी योजनाओं के बावजूद भारत में बालिकाओं की स्थिति चिन्ताजनक है। देश में हुई 2016 की जनगणना में लड़कों की तुलना में लड़कियों की घटती संख्या के आंकडे़ चौंकाते ही नहीं बल्कि दुखी भी करते हैं। जिस तरह से लड़के-लड़कियों का अनुपात असंतुलित हो रहा है, उससे ऐसी चिन्ता भी जतायी जाने लगी है कि यही स्थिति बनी रही तो लड़कियां कहां से लाएंगे?
हालत यह है कि आंध्र प्रदेश में 2016 में प्रति एक हजार लड़कों के मुकाबले महज आठ सौ छह लड़कियों का जन्म दर्ज किया गया। यह आंकड़ा सबसे निम्न स्तर पर मौजूद राजस्थान के बराबर है। तमिलनाडु, कर्नाटक जैसे राज्यों में भी तस्वीर बहुत बेहतर नहीं है। बालिकाओं की घटती संख्या एक गंभीर चिन्ता का विषय है। बहुत से लोगों का मानना है कि 21वीं सदी तक आते-आते बालिकाओं एवं महिलाओं की ज़िंदगी में बहुत बदलाव आए हैं लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि बालिकाओं एवं महिलाओं के लिए अब हालात पहले से ज्यादा खराब हो चुके हैं।
हमारे समाज का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि हम आज अपनी बच्चियों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं और उन्हें कितना महत्व देते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, कानूनी सुरक्षा और सामाजिक सशक्तिकरण के माध्यम से बालिकाओं को सशक्त बनाना न केवल एक नैतिक दायित्व है बल्कि सामाजिक विकास के लिए एक जरूरी आवश्यकता भी है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि लड़कियों को आगे बढ़ने, सीखने के समान अवसर मिले। तभी हम एक संतुलित, न्यायसंगत और समृद्ध समाज बना सकेगें।
कहने को भले ही लड़कियां हर मामले में लड़कों के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हो, हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा, क्षमता एवं कौशल का लोहा मनवा रही है लेकिन उनके सामने हर रोज एक लंबी चुनौती भी खड़ी है। भारतीय बालिकाओं एवं महिलाओं की समस्याएं केवल सामाजिक अधिकारों तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि कार्यस्थलों और घरों में भी वह मानसिक और सामाजिक रूप से प्रभावित होती हैं।
बालिकाओं एवं महिलाओं की सोच में भले ही पिछले कुछ सालों की तुलना में बदलाव आए हों लेकिन मर्दों की सोच और रवैये में कुछ खास फर्क नजर नहीं आता है। ऐसा इसलिए क्योंकि सड़क पर छोटे कपड़े पहनकर चलने में लगभग हर महिला ही असुरक्षित महसूस करती है। चीरहरण करती आंखें, अंजाने में छूने वाले हाथ और सीटियों की गूंज का सामना किसी लड़के को नहीं बल्कि लड़की को ही हर रोज करना पड़ता है।
कुछ घरों में आज भी लड़कों की तुलना में लड़कियों के साथ अलग व्यवहार किया जाता है। वह कैसे बोलती है, कैसे कपड़े पहनती है, अपना जीवन जीने का तरीका किस तरह चुनती है, भले ही इन बातों से उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा हो लेकिन उसके आसपास रहने वाले लोग इससे असुरक्षित वातावरण महसूस करने लगते हैं। ज्यादातर लोगों ऐसा मानना है कि एक बालिका को मिलनसार होना चाहिए। उसे हमेशा ही समझौता करना चाहिए। भले ही वह बातें उसे नुकसान क्यों न पहुंचा रही हों।
जन्म से पहले ही पता चल जाए कि बच्ची पैदा होगी तो ये उसकी जान लेने से भी नहीं कतराते। पिछली सदी में समाज के एक बड़े वर्ग में यह एक विभीषिका ही थी कि परिवार की धुरी होते हुए भी नारी को वह स्थान प्राप्त नहीं था जिसकी वह अधिकारिणी थी। उसका मुख्य कारण था सदियों से चली आ रही कुरीतियाँ, अंधविश्वास व बालिका शिक्षा के प्रति संकीर्णता। कितनी विडम्बना है कि देश में हम ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा बुलन्द करते हुए एक जोरदार मुहिम चला रहे हैं।
उस देश में लगातार बालिकाओं की संख्या घटने का दाग लग रहा है। यह दाग ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के संकल्प पर भी लगा है और यह दाग हमारे द्वारा नारी को पूजने की परम्परा पर भी लगा है। लेकिन प्रश्न है कि हम कब बेदाग होंगे? अच्छे भविष्य के लिए हम बेटियों की पढ़ाई से ही सबसे ज्यादा उम्मीदें बांधते हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे नारे हमारे संकल्प को बताते हैं, हमारी सदिच्छा को दिखाते हैं, भविष्य को लेकर हमारी सोच को जाहिर करते हैं, लेकिन वर्तमान की हकीकत इससे उलट है।
वे पढ़ाई में अपने झंडे भले ही गाड़ दें, लेकिन उन्हें आगे बढ़ने से रोकने की क्रूरताएं कई तरह की हैं। उसका मुख्य कारण है सदियों से चली आ रही कुरीतियाँ, अंधविश्वास व बालिका शिक्षा के प्रति संकीर्णता। शताब्दियों से हम साल में दो बार नवरात्र महोत्सव मनाते हुए कन्याओं को पूजते हैं। लेकिन विडम्बना देखिये कि सदियों की पूजा के बाद भी हमने कन्याओं को उनका उचित स्थान और सम्मान नहीं दे पाये हैं। इन त्रासद, अमानवीय एवं विडम्बनापूर्ण नारी अत्याचार की बढ़ती घटनाओं के होते हुए मां दुर्गा को पूजने का क्या अर्थ है?
बालिकाओं के साथ होने वाली त्रासद एवं अमानवीय घटनाएं -निर्भया कांड, नितीश कटारा हत्याकांड, प्रियदर्शनी मट्टू बलात्कार व हत्याकांड, जेसिका लाल हत्याकांड, रुचिका मेहरोत्रा आत्महत्या कांड, आरुषि मर्डर मिस्ट्री की घटनाओं में पिछले कुछ सालों में इंडिया ने कुछ और ऐसे मौके दिए जब अहसास हुआ कि भू्रण में किसी तरह नारी अस्तित्व बच भी जाए तो दुनिया के पास उसके साथ और भी बहुत कुछ है बुरा करने के लिए।
राष्ट्रीय बालिका दिवस का अवसर त्रासद एवं क्रूर स्थितियों पर आत्म-मंथन करने का है, क्योंकि बालिकाओं एवं महिलाओं के समावेश, न्याय व सुरक्षा की स्थिति को बताने वाले वैश्विक शांति व सुरक्षा सूचकांक के 177 देशों में भारत का 128वां स्थान है। महिलाओं के विरूद्ध अपराध में राष्ट्रीय औसत 66.4 है। राजधानी दिल्ली का स्थान 144.4 अंकों के साथ सर्वाेच्च है। आज लड़किया लड़को से किसी भी क्षेत्र में कमतर नहीं हैं। दुश्कर से दुश्कर कार्य लड़किया सफलतापूर्वक कर रही हैं। देश में हर क्षेत्र में महिला शक्ति को पूरी हिम्मत से काम करते देखा जा सकता है।