शारदा सिन्हा, जिनका निधन 5 नवंबर को हुआ, बिहार और मिथिलांचल के संगीत जगत का एक अभिन्न हिस्सा थीं। उन्हें ‘बिहार कोकिला’, ‘मिथिला की बेगम अख्तर’ और अन्य सम्मानित उपनामों से पुकारा जाता था। उनके द्वारा गाए गए लोकगीतों में एक ऐसी विशिष्ट मिठास और सांस्कृतिक गहराई थी, जो न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे भारत में लोक संगीत की परंपरा को समृद्ध करती है। उनके सुरों में वो मिट्टी की खुशबू और सांस्कृतिक विरासत समाई हुई थी, जो लोकगीतों को जीवित और प्रासंगिक बनाए रखती थी।
शारदा सिन्हा का योगदान विशेष रूप से छठ पूजा के गीतों में अतुलनीय रहा। छठ, जो बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड समेत कई अन्य स्थानों पर बड़े श्रद्धा भाव से मनाया जाता है, के गीतों को उन्होंने अपनी आवाज से अमर कर दिया। उनकी गायकी ने इस पर्व को घर-घर और देश-विदेश में लोकप्रिय बना दिया। उनका योगदान इस कदर था कि छठ पर्व के बिना शारदा सिन्हा की आवाज की कल्पना करना भी मुश्किल था। उनके द्वारा गाए गए छठ के गीत, जैसे “कांच ही बांस के बहंगिया”, आज भी सभी को भावनात्मक रूप से जोड़ते हैं और इस पर्व की आस्था को और भी मजबूती देते हैं।
शारदा सिन्हा का संगीत केवल उनके गाए हुए गीतों तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने लोक संगीत को एक नई दिशा दी थी। उनका गायन न केवल बिहार और मिथिलांचल में बल्कि भारत के अन्य हिस्सों में भी व्यापक रूप से सुना और सराहा गया। उनके गीतों में एक तरह की भावनात्मक ताकत होती थी जो सीधे दिल को छू जाती थी। उन्होंने अपनी गायकी के माध्यम से बिहार की लोक कला, संस्कृति और रीति-रिवाजों को पूरी दुनिया में पहचान दिलाई।शारदा सिन्हा का निधन न केवल उनके परिवार और प्रशंसकों के लिए, बल्कि समूचे संगीत जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। उनकी आवाज़ अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके गीत हमेशा हमारे दिलों में जीवित रहेंगे।
उनकी मृत्यु के समय, वह दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भर्ती थीं और कैंसर से जूझ रही थीं। उनका निधन उनके जन्मदिन के एक महीने बाद हुआ, जो एक भावनात्मक और विडंबनापूर्ण मोड़ है, क्योंकि उनका सबसे प्रिय पर्व, छठ पूजा, उनके निधन के बाद आया। उनकी गायकी के बिना बिहार और मिथिलांचल के सांस्कृतिक पर्वों की कल्पना करना असंभव है। शारदा सिन्हा का संगीत और उनकी विरासत हमेशा जीवित रहेगी।